विज्ञान के लिए चुनौती है ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की सूक्ष्म शक्तियां

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त महाराज कई मायनों में अनूढे थे। शवासन की अवस्था में भौतिक रूप से समाज के बीच होते हुए भी चेतना के स्तर पर किसी और लोक में चले जाते थे। तब ऐसा लगता मानों वे कोई बड़े ऋषि हैं, जो तपस्वियों को संबोधित कर रहे हैं। वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसी शास्त्रसम्मत बातें करते थे। कठिन यौगिक साधनाओं की बात करते और अपने एक खास शिष्य महानंद के सवालों का जबाव भी देतें। हैरतंगेज बात यह कि महानंद की आवाज भी महाराज के मुख से ही निकलती थी। दोनों की आवाज अलग-अलग होने से आसानी से पहचान हो जाती थी। तुरीयावस्था कितनी देर बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं होता था। पर इस अवस्था से बाहर होते ही अति सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें न लिखना आता था, न पढ़ना। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्तियां अब भी रहस्यमय ही हैं।    

योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। पुनर्जन्म, परकाया प्रवेश और एक ही काया को कई स्थानों पर उपस्थित कर देने के भी उदाहरण हैं। अक्षर ज्ञान न होते हुए भी शास्त्रों का ज्ञान होने के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। योग की बदौलत मिलने वाली इन शक्तियों का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया जाता रहा है। परं पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, तुरीयावस्था में वह ज्ञान प्रकट करना और दो लोगों के बीच का संवाद एक ही मुख से उच्चारित होना इस युग के लिए दुर्लभ बात है। गाजियाबाद जिले के एक गांव में अति सामान्य परिवार मे जन्मे ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ऐसे ही दुर्लभ संयोग की देन थे। 

कृष्णदत्त जी बेपढ़ थे। यौगिक साधनाओं से दूर-दूर का वास्ता न था। पर शवासन में होते ही कई युगों में मौजूद रहे देवतुल्य ऋषियों जैसी बातें करने लगते थे। वेद और उपनिषद की बातें, शुद्ध संस्कृत शब्दों के उच्चारण के साथ धाराप्रवाह बोलते जाते थे। योग के शास्त्रीय पक्षों पर खूब बोलते थे। यौगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शरीर के चक्रों की वैज्ञानिक बातें करते थे। पर शवासन से उठते ही एक ऐसा व्यक्ति होते थे, जिसका शास्त्रीय ज्ञान से दूर-दूर का नाता न होता था। अनेक विश्लेषणों के आधार पर माना गया कि वे जागृत चक्रों के साथ पूर्व जन्मों के ऋषियों वाले वैदिक ज्ञान के साथ जन्मे थे।

शवासन में जब उनकी अतीन्द्रिय शक्तियां (साइकिक पावर्स) जागृत होती थीं तो ऐसा लगता था कि वे इस लोक में नहीं हैं। वे कभी सत्ययुग की तो कभी त्रेतायुग तो कभी द्वापर युग की बात करने लगते। कलियुग की प्राचीन बातें भी करते थे। कई बार उनकी आवाज और बोलने का अंदाज बदल जाता था। विश्लेषण से पता चला कि वे जब महानंद नाम के अपने किसी शिष्य के साथ वार्तालाप कर रहे होते थे तब ऐसी स्थिति बनती थी। यानी गुरू-शिष्य की आवाज एक ही भौतिक शरीर से निकलती थी। उनका मुख उस स्पीकर की तरह हो जाता था, जिससे जुड़ी माइक में जो भी बोलता है, उसकी आवाज सुनाई देती है।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अवचेतन मन से नाता जुड़ते ही ऐसे बोलने लगतें मानों वे नहीं, किसी ऋषि की आत्मा बोल रही हो। एक बार अचानक बोल पड़े – “पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा जाओ, लघु मस्तिष्क में प्रवेश कर जाओ। मैने बारह वर्षों तक अनुष्ठान करके लघु मस्तिष्क को दृष्टिपात किया तो ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर वाली प्रतिभाएं मेरे समीप आने लगी। इसके पश्चात् पूज्यपाद के चरणों में विद्यमान हो गया। मैंने कहा कि प्रभु! मैं लघु मस्तिष्क मे चला गया हूँ। मैं लघु मस्तिष्क में सूर्यों की गणना करता रहा, लघु मस्तिष्क में पृथ्वियों की गणना करता रहा, सौर मण्डलों में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं अनन्तमयी ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं विचित्र-सा अनुभव करने लगा हूं। मुझे और मार्ग में प्रवेश कराइए।….”

कृष्णदत्त जी के ज्यादातर प्रवचनों की वॉयस रिकार्डिंग की जा चुकी है। शवासन अवस्था वाले कृष्णदत्त जी महाराज शांत स्वभाव वाले ज्ञानी ऋषि की तरह होते थे। वहीं उनका शिष्य महानंद बेहद आक्रामक होता था। ऐसा लगता था कि महानंद की आत्मा कलियुग के किसी काल-खंड की यादों के साथ उपस्थित होती थी, जिसे समाज की विकृतियां बेचैन रखती थीं। तभी कृष्णदत्त जी जब किसी अन्य युगों की बात कर रहे होते थे तो वह दखल देता और कहता, गुरूदेव, आपकी बात कोई नहीं समझेगा, आप इस युग के लिहाज से बोलिए। एक और चौंकाने वाली बात यह कि कृष्णदत्तजी जब मुनिवरो शब्द का प्रयोग करते हुए संबोधन शुरू करते तो ऐसा लगता था कि वे अन्य युगों के मुनियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कभी महाभारतकालीन घटनाओं का आंखो देखा हाल बयां करने लगते तो कभी राजा दशरथ के लिए श्रृंगी ऋषि के पुत्रेष्टि यज्ञ का। योग की शक्तियों का बखान तो अक्सर करते थे।

धरती पर ऐसे संतों की कमी नहीं रही, जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था। पर वे शास्त्रसम्मत बातें, विज्ञानसम्मत बातें करते थे। कबीर पर तो न जाने कितने ही शोध होते रहते हैं। पर उसी कबीर ने अपने बारे में कहा था – “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यी नहीं हाथ।“ इतनी पुरानी बात छोड़ भी दें तो चित्रकूट की धरती एक संत थे। नाम था परमहंस परमानंद। प्रसिद्ध थे। लेकिन एक बार उनके हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी तो अजीब संकट खड़ा हो गया। इसलिए कि अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं था। शिष्यों को नाम लिखने का अभ्यास कराना पड़ा था। पर सन् 1969 में शरीर त्यागने से पहले धर्म की रूढ़ीवादी प्रथाओं पर चोट करते रहे और अपनी अलौकिक शक्तियों से जन-कल्याण करते रहे। वेदों और उपनिषदों के वैज्ञानिक व व्यवहारिक ज्ञान की बाते करते थे।

पुनर्जन्म होता है, इसके भी कई उदाहरण हैं। धनबाद में कोयला खदान मालिक की पत्नी को तीन जन्मों की बातें याद थीं। इससे उनका जीवन आशांत होता जा रहा था। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में जाने के बाद राहत मिली थी। स्वामी सत्यानंद जी की पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। पूर्व जन्म की बात गीता में भी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन! तेरे औऱ मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूं….।” शरीर से ऊर्जा और चेतना को पृथक करके महीनों बाद उसे संयुक्त करने के भी उदाहरण हैं। इस संदर्भ में राजा रणजीत सिंह के दरबार के साधु हरीदास का नाम उल्लेखनीय है। फ्रांस और यूरोप के चिकित्सकों ने साधु हरीदास की इस शक्ति का चिकित्सीय परीक्षण किया था और पाया कि मृत शरीर कई महीनों बाद जीवित हो उठता था। परमहंस योगानंद ने विदेशी चिकित्सकों की फाइलों तक पहुंच बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया था। संतों के सूक्ष्म रूप से एक ही साथ एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं वाले स्थानों पर उपस्थिति के भी उदाहरण हैं। ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़े ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका के टेड सीरियो की अतीन्द्रिय शक्ति ऐसी थी कि उसकी आंखें हजारो मील दूर की तस्वीरें लेने में सक्षम थी।         

परमहंस योगानंद कहा करते थे कि महान संत मृत्युलोक में कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाते हैं तो उन्हें दोबारा जन्म लेना होता है। शास्त्रों के मुताबिक कुछ ऋषि किसी श्राप के कारण भी मृत्युलोक मे जन्म लेते हैं, कर्मफल भुगतने के लिए। जो ऋषि मृत्युलोक में भौतिक शरीर धारण करते हैं उनके तुरीयावस्था में चले जाने का उल्लेख भी योगशास्त्र की पुस्तकों में मिलता है। उसके मुताबिक तुरीयावस्था के अनुभव देवलोक के अनुभव माने जाते हैं। जैसे, अमुक ऋषि स्वर्गलोक पहुंच गए, वहां विष्णुजी से उनका साक्षात्कार हुआ, फिर लक्ष्मीजी या शिवजी से साक्षात्कार हुआ आदि आदि। कृष्णदत्त जी भी अक्सर ऐसी ही बातें किया करते थे।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अब शरीर त्याग चुके हैं। उनके अनुयायी उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मानते हुए उनके संदेशों को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते रहते हैं। श्रृंगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान कृष्णदत्त जी महाराज की रिकार्ड की गई बातों को पुस्तकाकार देकर उनके संदेशों को प्रचारित करता है। डॉ कृष्णावतार और उनके सहयोगी पूरी तल्लीनता से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। पर कृष्णदत्त जी महाराज की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्ति को आधुनिक विज्ञान के लिहाज से सही-सही परिभाषित किया जाना बाकी है। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस के साथ उसकी कार्य-प्रणाली पर हुए शोधों से चेतना की कई परतें खुली हैं। सेक्रल प्लेक्सस तंत्रिका तंतुओं यानी नर्वस सिस्टम का नेटवर्क होता है, जो शरीर के निचले अंगों पेल्विस और लोअर लिंब को त्वचा और मांसपेशियों की आपूर्ति करता है। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस का एक दूसरे सें गहरा नाता है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि चेतना की उपस्थिति और इससे जुड़े अन्य मामलों में थैलेमस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अब तक मानव चेतना के विस्तार संबंधी जो सूत्र मिल रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लगता है कि भविष्य में चेतना के किसी खास स्तर पर कृष्णदत्त जी की खास अवस्था प्राप्त कर लेने के रहस्यों का भेद मिल ही जाएगा।

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वैसे, कुछ घटनाओं और शरीर के चक्रो की यौगिक विवेचना से प्रतीत होता है कि शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के खास तरीके से प्रवाहित होने से कृष्णदत्त जी की चेतना पूर्व जन्मों की चेतना के साथ समस्वरित हो जाती रही होगी। योगशास्त्र के मुताबिक, शरीर के मुख्य सात चक्रों में स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण वीडियो कैमरे की तरह होता है, जो जन्म-जन्मांतर की बातों को संग्रहित करके रखता है। गणित के विद्वान श्रीनिवास रामानुजन के बारे में कौन नहीं जानता। उनसे पूछा गया कि सवाल करो नहीं कि जबाव जाहिर। यह चमत्कार कैसे होता है? उनका उत्तर था – “मैं नहीं जानता। तुम मुझसे प्रश्न करते हो तो कहीं नीचे से उत्तर आता है, सिर से नहीं।” उनके इस उत्तर से भी स्वाधिष्ठान चक्र का ही संकेत मिलता है। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान शरीर में रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोड़ पर स्थित है। इसका संबंध सेक्रल प्लेक्सस से है, जो अचेतन मन को नियंत्रित करता है।

आज्ञा चक्र को शिव का नेत्र या तीसरी आंख भी कहा जाता है। यह अतीन्द्रिय अनुभूतियों का स्थान है, जहां व्यक्ति में उसके संस्कार और मानसिक प्रवृत्तियों के अनुसार अनेकानेक सिद्धियां प्रकट होती हैं। दरअसल, यह चक्र मुख्य रूप से मन का चक्र है, जो चेतना की उच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके जागृत होने से स्वाधिस्थान चक्र की संग्रहित बातों को प्रकट करना संभव हो पाता है। यह चक्र रीढ़ की हड्डी के ऊपर और भ्रूमध्य के ठीक पीछे होता है। इसका संबंध पीनियल ग्रंथि से है। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण काम शरीर की पेशियों और काम-प्रवृत्ति को नियंत्रित करना भी है। योग साधाना में इसका बड़ा महत्व है। इतिहास गवाह है कि अनेक संत जागृत चक्रों के साथ जन्मे। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी का मामला केवल चक्रों के जागरण तक सीमित नहीं है। कई गूढ़ बातें और भी हैं, जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर परिभाषित किया जाना बाकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

कोरोना महामारी से दो-चार होते हृदय रोगी

योगनिद्रा में हाइपोथैलेमस ग्रंथि परानुकंपी नाड़ी संस्थान द्वारा दिल तक पहुंचने वाले विद्युत फाइबर्स को तनाव दूर करने के संकेत भेजती है। परिणाम स्वरूप दिल की धड़कन, रक्तचाप और हृदय की पेशियों पर पड़ने वाला भार कम हो जाता है। हृदय को राहत मिलती है। जो हृदय रोगी विभिन्न प्रकार के योगासन न करने की स्थिति में हों, उन्हें नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ ही योगनिद्रा का अभ्यास जरूर करना चाहिए।

कोविड-19 वैसे तो मुख्यत: श्वसन तंत्र को प्रभावित करने वाला संक्रमण है। पर इससे  हृदय रोगियों पर खासा कहर बरपा है। चिकित्सक और चिकित्सा शोध संस्थान की ओर से हृदय रोगियों को कोविड-19 के आलोक में बार-बार चेतावनी दी जाती रही है। दूसरी तरफ प्रमुख योग संस्थानों के संन्यासियो व योगाचार्यों ने बताया कि कोरोनाकाल में किस तरह के योगाभ्यास किए जाएं कि विश्वव्यापारी महामारी से बचाव हो सके। बावजूद मैं व्यक्तिगत रूप से अनेक हृदय रोगियों को जानता हूं, जिन्हें चेतावनियों और सलाहों को नजरंदाज करना भारी पड़ गया। एक सज्जन की जान तो बच गई। पर योग को जीवन पद्धति बनाने की मजबूरी है। मजबूरी इसलिए कि उन्हें संक्रमित होने से पहले तक योग की विधियां खासतौर से हृदय रोग के मामले में महत्वहीन जान पड़ती थी। अब जीवन भर के लिए योग ही सहारा है। 

हृदय रोग से बचाव में योग की भूमिका पर दुनिया भर में अनुसंधान किए जाते रहे हैं। अपने देश में सरकार के स्तर पर तो योग अनुसंधान पर काफी देर से काम शुरू हुआ। पर बिहार योग विद्यालय और कैवल्यधाम, लोनावाला के साथ ही स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान ने विभिन्न चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर खासतौर से हृदय रोग पर काफी काम किया। कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उनके शिष्य स्वामी दिगंबर जी ने तो अपने शरीर पर ही कई शोध कर डाले। यह सर्वविदित है कि स्वामी दिगंबर जी ने अनुसंधानों के लिए अपने शरीर का इतना इस्तेमाल किया कि बीमार पड़ गए। पर प्राय: सभी शोधों के नतीजें योग के पक्ष में रहे।   

योग में उपचार के तीन पक्ष माने गए हैं – चिकित्सात्मक, रक्षात्मक और संवर्द्धक। मनुष्य रोगी है तो उसकी चिकित्सा होती है और वह स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। यदि इस बात का अहसास है कि भविष्य में शारीरिक या मानसिक पीड़ाएं हो सकती हैं और उस स्थिति से बचने के लिए कोई उपाय कर लिया जाए तो यह हुआ रक्षात्मक। संवर्द्धनात्मक उपाय वह है कि हमें कोई समस्या तो नहीं होती। पर हम स्वस्थ्य हैं और स्वस्थ्य बने रहें, इसके लिए उपाय करते रहते हैं। यानी संतुलित आहार और नियमित योगाभ्यास। पर कैवल्यधाम के सीईओ डॉ सुबोध तिवारी कहते हैं – “आदमी योगशालाओं में हमेशा चिकित्सा के लिए ही आता है, रक्षा के लिए नहीं। इसलिए कि वह सोचता है कि मैं स्वस्थ्य हूं, मुझे क्या होना है। नतीजा होता है कि शरीर की ऊर्जा और सामर्थ्य का दुरूपयोग होने से तन-मन बीमार हो जाता है।“  

सच है कि कोरानाकाल में हृदय रोग से बचाव के लिए अनेक यौगिक उपाय सुझाए गए थे। यह जानते हुए कि हृदय रोगियों के लिए कोरोना संक्रमण घातक है, अनेक लोग लापरवाह बने रह गए। नतीजा है कि कोरोना संक्रमण से पहले जहां भारत में तीन मिलियन लोग हृदयाघात से काल के गाल में समां जाते थे। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इस साल एक मिलियन का इजाफा होने की संभावना बनी हुई है। योगाचार्यों की मानें तो दो तरह के लोग हैं जो योग से दूर रहते हैं। कुछ लोग तो लापरवाह होते हैं और योग की महत्ता को समझते हुए भी उस पर अमल नहीं करते। पर दूसरी श्रेणी के लोग वे हैं, जिन्हें योग की वैज्ञानिकता पर ही संदेह है। ऐसे लोग ज्यादा खतरा मोल लेते हैं।  

हाल ही हुए कुछ अध्ययनों के निष्कर्षों से साफ है कि योग का हृदय रोगियों पर कितना सकारात्मक असर होता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि योग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोगों से ग्रस्त मरीजों में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। “योगा केयर” नाम से मरीजों के अनुकूल एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया था। उसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल किया गया। पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। नतीजा आशाजनक रहा। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम की विधियों को अपनाने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था। 

यौन क्रियाओं का हृदय से सीधा संबंध स्थापित सत्य है। इसके लाभ-हानि पर चर्चा होती रहती है। पर हानि से बचाव का कोई यौगिक उपचार है? इस सवाल पर चर्चा कम ही हुई। विभिन्न स्तरों पर हुए शोधों से साबित हो चुका है कि हृदय को खास परिस्थियों की वजह से होने वाली हानि से बचाव में योग कारगर है। उस योग का नाम है – सिद्धासन। गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा शोधित “सिद्धासन” को विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसा गया और हर बार खरा साबित हुआ। नतीजतन, सिद्धासन हृदय रोग से बचाव के लिए अनुशंसित योगाभ्यासों में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि नाड़ी शोधन प्राणायाम और कुछ सावधानियों के साथ यह योगाभ्यास पुरूषों और महिलाओं को समान रूप से लाभ पहुंचाता है।

योग क्रियाओं के अभ्यासों के प्रभावों पर अब तक जितने भी अनुसंधान किए गए हैं, देश में या देश से बाहर, लगभग सभी के परिणाम योग के पक्ष में रहे। साबित हुआ कि हृदय मंडल, श्वसन मंडल और अंतस्रावी मंडलों पर यौगिक क्रियाओं के सकारात्मक प्रभाव होते हैं। मैंने अपने लेखों में बार-बार योगनिद्रा की चर्चा की है। यह हृदय रोग के लिए भी रामबाण है।

योगनिद्रा में हाइपोथैलेमस ग्रंथि परानुकंपी नाड़ी संस्थान द्वारा दिल तक पहुंचने वाले विद्युत फाइबर्स को तनाव दूर करने के संकेत भेजती है। परिणाम स्वरूप दिल की धड़कन, रक्तचाप और हृदय की पेशियों पर पड़ने वाला भार कम हो जाता है। हृदय को राहत मिलती है। जो हृदय रोगी विभिन्न प्रकार के योगासन न करने की स्थिति में हों, उन्हें नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ ही योगनिद्रा का अभ्यास जरूर करना चाहिए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

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