कुछ आसान योगाभ्यासों से भी हृदय रहेगा स्वस्थ्य

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद स्वास्थ्य को लेकर लोगों में जागरूकता आई है औऱ सजग लोग योग या व्यायाम जरूर करते हैं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में युवा भी हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि एक साल के भीतर हृदयाघात से होने वाली मौतों में 12.5 फीसदी की वृद्धि हो गई है। आखिर कोविड-19 ने हमारे भीतर ऐसा कौन-सा जख्म दे दिया कि आजीवन लगातार लयबद्ध ढंग से स्पंदित और तरंगित होने वाला हृदय का पहिया बीच में ही रूक जा रहा है। दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी इस नई चुनौती को समझने और उससे मुकाबला करने के उपायों पर अध्ययन कर रहे हैं। साथ ही हिदायत भी दे रहे हैं कि कोरोना के शिकार हुए लोग कठिन योग या व्यायाम न करें। दूसरी तरफ योगाचार्य कह रहे है कि योग की इतनी विधियां हैं कि हर कोई विशेषज्ञों के परामर्श से अपने अनुकूल योग करके आसन्न संकट से मुक्ति पा सकता है।  

योगाचार्यों की बात में दम है। इससे चिकित्सकों के परामर्श की अवहेलना भी नहीं होती। जैसे, सिद्धासन और प्राणायाम की दो विधियां नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम भी हृदयाघात से बचाव में मददगार साबित हो सकती हैं। अब तक हुए विभिन्न शोधों से इस बात पुष्टि होती है। इन योग विधियों की साधना आसान भी है। सिद्धासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम का हृदय से संबंध तो अनेक लोग जानते हैं। पर भ्रामरी प्राणायाम का भी हृदय से सीधा संबंध है, यह बात ज्यादा प्रचारित नहीं है। दरअसल, इस प्राणायाम का सीधा प्रभाव उस अनाहत चक्र से होता है, जिसका संबंध हृदय से भी है। हमारे शरीर में जो मुख्य सात चक्र हैं, उनमें एक प्रमुख चक्र है-अनाहत चक्र। इसे हृदय चक्र भी कहते हैं। अनाहत का मतलब है कि जो आहत न हो और हृदय की तरह आजीवन चलते रहने वाला हो। योगियों का मानना है कि इस युग में मानव चेतना अनाहत से गुजर रही है। पर वह उस तरह क्रियाशील नहीं है, जिस तरह मूलाधार में क्रियाशील है। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि हृदय अनाहत की ध्वनि का केंद्र है। ठीक भौंरे की गुफे की तरह। जब हम भ्रामरी प्राणायाम करते हैं तो भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे अनाहत चक्र सक्रिय होता है। इसी वजह से यह प्राणायाम हृदय रोगियों के लिए विशेष लाभकारी साबित होता है।  

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। बिहार योग विद्यालय से जुड़े आस्ट्रेलिया के योगी और चिकित्सक डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि पुरूषों और महिलाओं की यौन ग्रंथियों में निर्मित होने वाले क्रमश: एण्ड्रोजन और एस्ट्रोजन हॉरमोन का बनना और उसका नियंत्रण पिट्यूटरी ग्रंथी से होता है, जो स्वयं मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस नामक हिस्से के नियंत्रण में रहती है। मस्तिष्क का यह हिस्सा भावनाओं और आवेगों के प्रति अतिसंवेदनशील रहता है। रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है। हम देख रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद महिलाएं भी समान रूप से हृदयाघात की शिकार हो रही हैं। अनाहत चक्र की साधना महिलाओं को विशेष फल देने वाली मानी गई हैं।  

सिद्धासन महिला और पुरूष दोनों ही कर सकते हैं। घेरंड संहिता में इस आसन के बारे में विस्तार से चर्चा है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस संहिता लिखे अपने भाष्य में कहा है कि सिद्धासन करने से मेरुदण्ड की ऊर्जा निम्न चक्रों से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इससे मस्तिष्क उद्दीप्त होता है और संपूर्ण तन्त्रिका-तन्त्र शांत होता है। स्वतः वज्रोली या सहजोली मुद्रा लग जाती है। परिणामस्वरूप यौन ऊर्जा-तरंगें मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक पहुँचने लगती हैं, जिससे प्रजननशील हार्मोन पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। यह आसन मेरुदण्ड के निचले भाग और उदर में रक्त-संचार को नियमित करता है, मेरुदण्ड के कटि-प्रदेश, श्रोणि और आमाशय के अंगों को पोषित करता है और प्रजनन-संस्थान व रक्त-चाप को भी संतुलित करता है। इस वजह से हृदयाघात से विशेष बचाव हो जाता है। पर सायटिका के मरीजों को इसका अभ्यास न करने की सलाह दी जाती है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि इस तरह के कुछ आसान आसन और प्राणायाम हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करते हैं। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया। इसी तरह पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम करने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

हृदयाघात की घटनाओं में वृद्धि की तात्कालिक वजह चाहे जो भी हो, पर यह सर्वामान्य है कि विभिन्न परेशानियों में उलझा हुआ मन और असंयमित जीवन-शैली से ज्यादा नुकसान हो रहा है। कहा भी गया है कि चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। वैदिक ग्रंथों में तो दु:ख और चिंता के दुष्परिणामों को लेकर कितनी ही बातें कही गई हैं। गरूड़ पुराण में चिंता को चिता के समान बतलाया गया है। पर वैदिक ग्रंथों में समस्या का समाधान भी दिया गया है। आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश, हताशा और दु:ख एक ही आधार से उपजे रोग हैं और वैदिककालीन योग ग्रंथों में बतलाए गए उपाय बड़े काम के हैं। इसलिए मौजूदा मर्ज की दवा तभी संभव है जब हम योगाचार्य के रूप में सही चिकित्सक का चुनाव करके उसके बताए नुस्खे पर अमल करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी विवेकानंद और महर्षि महेश योगी के यौगिक मंत्र

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है। भावातीत ध्यान इसलिए बड़े काम का है।

योग और अध्यात्म की दृष्टि से जनवरी महीने की बड़ी अहमियत है। अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले सर्वकालिक संत स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी महर्षि महेश योगी की जयंती इस महीने में एक ही दिन यानी 12 जनवरी को मनाई जाती है। उनकी शिक्षा की प्रासंगिकता बनी ही रहती है। पर कोरोना महामारी के आलोक में मानसिक सजगता को लेकर उनके विचार, योग की विधि बड़े काम के हैं।

चाहे युवा-शक्ति के अभ्युत्थान की बात हो या फिर बंगाल में 1899 में आए प्लेग से उत्पन्न पीड़ाएं, स्वामी विवेकानंद अपना अनुभव साझा करते हुए कहते थे – “सजगता की शक्ति ऐसी है कि वह ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त तो करती ही है, मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति दिलाती है। हम देखते हैं कि सभी लोग नईपीढ़ी से कहते हैं कि अच्छे बनो, विवेकशील बनो। पर बताते नहीं कि ऐसा किस तरह संभव होगा। यदि मन अपने वश में न होगा तो कोई कब तक अच्छा या विवेकशील बना रह सकता है? मन की सजगता औऱ उसकी बुनियाद पर एकाग्रता का महल तभी खड़ा होगा, जब सजगता (प्रत्याहार) और एकाग्रता (धारणा) की किसी एक विधि को भी अपनी जीवन-शैली का हिस्सा बनाया जाएगा। “

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। विभिन्न कारणों से अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं को भावातीत ध्यान से इतने फायदे मिले कि वह अवसाद से उबारने की यौगिक दवा बन गई थी। इससे चिकित्सा विज्ञानी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान के विभिन्न रोगों में प्रभावों पर शोध किए जाने लगे थे। अब तक सात सौ से ज्यादा शोध-कार्य किए जा चुके हैं। उनके सकारात्मक नतीजों का ही असर है कि कोरोना महामारी के कारण अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भा रहा है। योगनिद्रा भी प्रत्याहार की ही एक क्रिया है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज की जरूरतों के लिहाज से विकसित करके प्रस्तुत किया था।

योगशास्त्र में कहा गया है कि इंद्रियों को अंतर्मुखी करने की कला यानी Withdrawal of Senses ही प्रत्याहार है। चूंकि आमतौर पर सबकी चेतना बहुर्मुखी होती है और मन इंद्रियों का दास बनकर उसके इशारे पर नाच रहा होता है। इसलिए तरह-तरह की मानसिक समस्याएं खड़ी होती रहती हैं। जीवात्मा के लिए अपने भीतर की परमसत्ता यानी आत्मा या चेतना के अनंत पक्षों को जान पाना कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “कुछ क्षण बैठें और मन को इधर-उधर दौड़ने दें। मन सदैव बुलबुलाता रहता है। वह उस कूदते हुए बंदर के समान है। बंदर को जितना कूदना है, कूदने दो; आप केवल रुककर देखते रहिए। एक लोकोक्ति के अनुसार, ज्ञान ही शक्ति है, और यह बिल्कुल सत्य है। जब तक आप यह नहीं जानते कि आपका मन क्या कर रहा है, आप उसको नियंत्रित नहीं कर सकते। उसे लगाम दीजिए; आपके भीतर कई घृणित विचार आ सकते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आपके लिए ऐसा सोचना कैसे संभव था? परंतु आप देखेंगे कि प्रत्येक दिन मन की सनक धीरे-धीरे कम हिंसात्मक हो रही है, प्रत्येक दिन वह शांत हो रहा है।“ 

आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहली जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरी, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरी है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। ऐसी अवस्था में गुरूमंत्र या किसी भी मंत्र का जप चलते रहने का चमत्कारिक प्रभाव होता है। मानव चेतना के सवाल ऋषियों और संतों की स्थापनाओं पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने काफी शोध किया है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक आध्यात्मवाद के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक माइकेल टालबोट की शोधपरक पुस्तक “मिस्टिसिज्म एंड द न्यू फिजिक्स” उल्लेखनीय है। इसमें कई शोधों के आधार पर भारतीय तंत्रशास्त्र और योगविद्या की वैज्ञानिकता पर विस्तार से चर्चा की गई है।    

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। वैसे तो त्राटक, नादयोग,संगीत, कीर्तन आदि भी इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए बेहद प्रभावशाली हैं। पर सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र बेहद प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। यह कुछ और नहीं, बल्कि चेतना का विज्ञान है। चेतना विज्ञान की शिक्षा सार्वभौम सत्ता या चेतना के प्रत्यक्ष अनुभव से आरंभ होनी चाहिए। जब सृष्टि के हर पक्ष को धारण करने वाली विशुद्ध चेतना व्यावहारिक स्तर पर आएगी, तब ही जीवन में पूर्णता आएगी, हर रहस्य से पर्दा उठेगा।“ उनकी इन बातों की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करने लगा तो विभिन्न कारणों से तनावपूर्ण जीवन जी रहे पश्चिमी दुनिया के युवा भावातीत ध्यान की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फिर तो इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड ’द बीटल्स’ के कलाकार भी इसके दीवाने हो गए थे और साठ के दशक में ध्यान सीखने ऋषिकेश जा पहुंचे थे। आज भी भारत सहित दुनिया के 126 देशों में इस ध्यान साधना की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है। अब तो वैज्ञानिक इसे क्वांटम मैकेनिक्स औऱ थर्मोडाइनोमिक्स से जोड़कर देखने लगे हैं।

स्वामी विवेकानंद सर्वकालिक प्रासंगिक रहे हैं। पर कोरोनाकाल में महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान विशेष तौर से पश्चिमी जगत के युवाओं के लिए कोरामिन की तरह साबित हुआ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

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