मन का मैल मिटे तो बने बात

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया – स्वामी जी, एक नई सभ्यता का निर्माण कैसे किया जाए, जो मानव जाति की शांति, समाज की खुशहाली और व्यक्ति की मुक्ति सुनिश्चित कर सकेगी? स्वामी जी ने जो उत्तर दिया था, वह वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य को लेकर उत्पन्न परिस्थितियों के आलोक में भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था – विचार मनुष्य को बनाता है और मनुष्य सभ्यता को। इतिहास की प्रत्येक महान घटना के पीछे एक शक्तिशाली विचार-शक्ति रही है। सभी खोजों और आविष्कारों के पीछे, सभी धर्मों और दर्शन-शास्त्रों के पीछे, सभी प्राण-रक्षक अथवा प्राण-विनाशक उपकरणों के पीछे विचार ही रहे हैं। जो धन और समय व्यर्थ के मंसूबों और विनाशकारी गतिविधियों में बर्वाद किया जाता है, उसका अंशमात्र भी यदि एक अच्छे विचार के सृजन में दिया जाए तो अभी और इसी वक्त एक नई सभ्यता का शुभागमन हो जाएगा।

पर विचार-शक्ति शक्तिशाली कैसे बने? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सभी धर्म-शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। वेद से लेकर बाइबिल और कुरान तक में अस्तित्व की रक्षा के लिए शक्तिशाली विचार-शक्ति के सूत्र मिलते हैं। इस बात को कुछ वैदिक प्रसंगों के जरिए समझा जा सकता है। पर पहले विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस की प्रासंगिकता की चर्चा। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से हम सब वाकिफ हैं। देश-दुनिया में इसकी गंभीरता पर चर्चा होती रहती है। बीते एक दशक से हर साल सितंबर महीने में अलग-अलग थीमों पर विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। लिहाजा इस साल भी यह दिवस मनाया गया। इस साल का थीम “वैश्विक पर्यावरणीय सार्वजनिक स्वास्थ्य : हर दिन हर किसी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए खड़े होना” था। इस मौके पर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों के आधार पर बतलाया गया कि वाय़ु प्रदूषण से दिल की बीमारियां, स्ट्रोक, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और तीव्र श्वसन संक्रमण आदि हो रही हैं। इसका संदेश यह कि अकेले वायु प्रदूषण ही इतना खतरनाक है तो सभी तरह के प्रदूषण से मानव जाति की क्या हालत बन रही होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।

यह दु:खद है कि जिस वैदिक ज्ञान की बदौलत हम विश्वगुरू रहे हैं, आधुनिक युग में उसी ज्ञान की अवहेलना हम ही कर रहे हैं। ईशावास्‍योपनिषद् में कहा गया है – ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। यानी जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे। पर हकीकत में हम करते क्या हैं? ठीक इसके विपरीत। यह एक प्रकार का मानसिक प्रदूषण ही है, जिसके लिए भारतीय वैदिक जीवन-दर्शन में कोई स्थान नहीं है।

हमें तो वैदिक काल से शिक्षा दी जाती रही है कि प्रकृति का मात्र दोहन नहीं, बल्कि इसका पोषण भी करना है। प्रकृति वेदों के हर पहलू का एक अपरिहार्य हिस्सा है। वैदिक संस्कृति की सबसे बुनियादी अवधारणाओं में से एक की अवधारणा है पंचभूत – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। इसी पंच तत्वों से पूरी सृष्टि की रचना हुई और वैदिक मान्यताओं के मुताबिक, इन तत्वों का पूजन होना चाहिए। संतों का मान्यता रही है कि इस पूजन के पीछे का विचार पूरी तरह से पर्यावरणीय है। भारत वर्ष में अनेक धर्मों और संप्रदायों में प्रकृति के पूजन के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान का विधान है। वैदिक काल के बाद भारत में आए बौद्ध धर्म ने सत्य, अहिंसा और पेड़-पौधों और वनस्पतियों सहित सभी जीवित प्राणियों के प्रति प्रेम पर बहुत जोर दिया। बौद्ध धर्म के प्रत्येक अनुयायी को हर साल एक पेड़ लगाना था और उसे तब तक पोषित करना था जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित पेड़ न बन जाए। महान राजा अशोक को जीवित प्राणियों के प्रति दया के कारण सिंहासन त्यागने और अहिंसा का उपदेश देने के लिए जाना जाता है।

पर हमारी सोच कैसे बदल गई? जिन प्राकृतिक संसाधनों का हमें रक्षक बनना था, उसका भक्षक मात्र बनकर क्यों रह गए? संत-महात्मा कहते हैं कि मन पर तमोगुण हावी है। इसलिए, संसार से जुड़ी हमारी भावनाएं घृणा, द्वेष, हिंसा आदि रूपों में परिवर्तित होती रहती है। इससे कूड़ा-कर्कट अंदर भरता है और मन दूषित होता है। वरना, आदियोगी शिव की जटाओं से निकली पवन पावनी गंगा और यमुना जैसी नदियां कदापि प्रदूषित नहीं रहतीं। मन में मैल है इसलिए करोड़ो खर्च करके भी गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना साकार नहीं हो पा रहा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। हम सब नंगी आंखों से नदियों की दुर्दशा देख रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण हो या सांस्कृतिक प्रदूषण हर मामले में यही सिद्धांत लागू है।

अब सवाल है कि मन का मैल कैसे मिटे? योग में इसके लिए कई उपाय बतलाए गए हैं। पर यम-नियम ठोस समाधान है। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का पहला चरण ही है यम और नियम। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्च और अपरिग्रह ये पांच यम हुए और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं। इन्हें ही संपूर्ण योग का आधार माना गया है। प्रश्नोपनिषद् में कथा है कि छह ब्रह्म जिज्ञासु सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी महर्षि पिप्पलाद के पास गए तो महर्षि ने उनसे वर्षों ब्रह्मचर्यपूर्वक तप करवाया था। वह कुछ और नहीं, बल्कि यम-नियम का उच्चाभ्यास ही था। यानी यम-नियम साधना बाद ही वे आध्यात्मिक ज्ञान के हकदार हो पाए थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अपने भाष्य में कहा है कि योग का समस्त क्षेत्र अंतरंग और बहिरंग में विभक्त है। धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग योग है। महान संस्कारों के साथ जन्में कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को ध्यान तभी सध पाता है, जब प्रारंभ यम-नियम से हुआ होता है। यम-नियम के अभ्यास के बिना बहिरंग योग का तात्कालिक लाभ भले मिल जाए। पर मन का मैल तो बना ही रह जाता है। चूंकि समाज मानव मन की अभिव्यक्ति है, इसलिए भौतिक जगत की समस्याएं विकराल होती जाती हैं, जिसका हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। इसलिए स्वस्थ्य जीवन की आकांक्षा है तो सबसे पहले अष्टांग योग के प्रथम पायदान पर चढ़ना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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