विजयादशमी का यौगिक संदेश – नियति को बदला जा सकता है

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती

आज विजयदशमी का दिन है और यह दो सम्प्रदायों का पवित्र उत्सव है। एक वैष्णव सम्प्रदाय का और दूसरा शाक्त सम्प्रदाय का। नौ दिन तक वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय वाले इस पर्व को मनाते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय वाले राम और रावण को सामने रखकर इस पर्व को मनाते हैं और शाक्त सम्प्रदाय वाले देवी जी और महिषासुर को सामने रख कर। राम और रावण एक इतिहास है, जो बीत चुका है। परन्तु इतिहास सदा इतिहास नहीं रहता, वह एक अन्दर पौराणिक दन्तकथा बनता है, और वही पुराण मनुष्य के वर्तमान में एक सत्य बनता है, एक यथार्थ बनता है। दन्तकथाओं ने राम और रावण को सत्य और असत्य का, देवी और आसुरी शक्ति का प्रतीक माना है। अपने अंदर जो अज्ञान है, अपने चारों तरफ जो अविद्या फैली है, अपने समाज में जो भ्रष्टाचार फैला है, सारी दुनिया में जो आंतंक फैला है, वह आज का असुर है, रावण है। आज रावण का वध प्रतीक के रूप में नहीं, पौराणिक कथा के असुर एक पात्र के रूप में नहीं, इतिहास की एक हस्ती के रूप में नहीं, बल्कि यथार्थ रूप में करना है, यही इस पर्व का मतलब होता है। अर्थात् मैं अपने मन से अविद्या और अज्ञान निकालूँगा, तब मैं कह सकूँगा कि रावण म महिषासुर मर गया।

ईश्वर को हम राम रूप में भी देखते हैं और देवीजी के रूप में भी। देवीजी का रूप अत्यन्त प्राचीन है। मनुष्य ने आज से लाखों साल पहले, अपने जीवन के आदिकाल में, जब उसने देखना-सोचना शुरू ही किया था, सबसे पहले ईश्वर को माँ के रूप में देखा। उसे स्त्री रूप में देखा, पुरुष रूप में नहीं। संसार को बनाने वाला जो भी हो, उसकी सबसे पहले जो पूजा चली, वह स्त्री के रूप में चली। नारी पूजा, स्त्री पूजा और देवी पूजा, यहीं से पूजा की शुरुआत होती है, क्योंकि आदिकाल में हमारा समाज मातृ-प्रधान समाज था। आज हमारा समाज मातृ-प्रधान नहीं, पितृ-प्रधान है। इसलिए हमने ईश्वर को भी पुरुष के रूप में कल्पित किया है, श्रीराम, शिवजी या गणेशजी के रूप में। अब भगवान चाहे स्त्री हो या पुरुष, उससे अपने को अभी कोई मतलब नहीं है। मतलब केवल इतना है कि वह परमात्मा की शक्ति आज के दिन हम लोगों के अन्दर ज्ञान, प्रकाश, विद्या, शक्ति, सम्पत्ति और मंगल के रूप में जागृत होती है।

रावण के दस सिर थे, इसीलिए हम इस पर्व को दशहरा भी बोलते हैं। हमारे भी दस सिर हैं, पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हम संसार के सब भोगों को ग्रहण करते हैं। ये दस इन्द्रियाँ रावण का स्वरूप हैं, प्रतीक हैं और इस रावण के सिर काटते-काटते रामजी हार गए। विभीषण की तरफ देखने लगे कि यह सब क्या हो रहा है। बार-बार उसके सिर काटते थे, बार-बार वे वापस आ जाते थे। तब विभीषण ने कहा, ‘महाराज, जब तक अमृत का पिण्ड सूखेगा नहीं, तब तक रावण मरने वाला नहीं है। रावण के दस सिरों की तरह ये जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, इनको जीतना होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम अपनी नाक काट दो या कान काट दो या गाँधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँध लो। इन्द्रियों को रोकने से कुछ नहीं हो सकता, जब तक कि तुम अपने मन से तृष्णा को नहीं निकालते ।

तृष्णा एक प्यास है। और यह तृष्णा उम्र के साथ घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है। लोगों के बाल जितने सफेद होते जाते हैं, उनकी तृष्णा उतनी काली होती जाती है। तृष्णा कभी बुढ़िया नहीं होती, वह हमेशा जवान रहती है।

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितेनांकितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥

तुम्हारे अन्दर में वह तृष्णा नाभि में है, जिसको कहते हैं मणिपुर। तृष्णा मनुष्य के अन्दर छुपी है और जब तक वह तुम्हारे अन्दर है, तुम रावण को मार नहीं सकते, इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह तृष्णा चाहे भोग की हो, चाहे योग की, आखिर हथकड़ी तो हथकड़ी है, चाहे सोने की पहनो या लोहे की। अब इस तृष्णा का क्या करना है। रामचन्द्रजी ने विभीषण से पूछा कि इस अमृत रूपी तृष्णा को सुखाने का क्या तरीका है। तब उन्होंने वायवास्त्र, पर्जन्यास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र या ब्रह्मास्त्र, इनमें से किसी अस्त्र का इस्तेमाल नहीं किया, केवल आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल किया। अग्नि का स्वरूप है जलाना और तृष्णा है पानी । पानी को उबालते जाओ, उबालते जाओ, उसकी भाप निकलती है और थोड़ी देर में टोपिया एकदम खाली हो जाता है। यह जो आग्नेयास्त्र है, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 6.35 ॥

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हे अर्जुन! अभ्यास और वैराग्य, ये दो तरीके हैं, जिनके द्वारा तुम इस रावण को मार सकते हो, इस अमृत-कुण्ड को सुखा सकते हो।’ यह तृष्णा जो तुम्हारे अन्दर है, पता नहीं कब से हैं। ‘जनम-जनम की तृष्णा’ कबीरदास कहते हैं। पता नहीं पूर्व जन्म में तुमने क्या सोचा था और वह पूरा नहीं हुआ। अब भारत में जितने गरीब लोग हैं, सब मोटर गाड़ी और डिश टी.वी. का सपना देख रहे हैं। अगर सपना पूरा नहीं होगा, तो अगले जनम में तृष्णा तो रहेगी ही। तृष्णा पैदा होती है अधूरी इच्छा से। और यह तृष्णा रावण की नाभि का अमृत घट है। यह सबके अन्दर है। इसलिए हम लोग राम नहीं, रावण हैं। इस तृष्णा को दूर करने के लिए कृष्ण भगवान ने दो उपाय बतलाए, अभ्यास और वैराग्य। योग सूत्रों में भी कहा गया है-

अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः ॥

वैराग्य आग्नेयास्त्र है। अब वैराग्य किसको कहते हैं? इसका बिल्कुल सरल उदाहरण है, जिन विषयों को तुमने देखा या सुना, वे बार-बार तुम्हारे मन में चक्कर लगाते हैं। दादाजी को मरे पाँच साल हो गए, लेकिन अभी भी उनकी याद आती है। बीती हुई घटनाएँ मनुष्य के वर्तमान जीवन को उद्विग्न करती हैं। वर्तमान का भूतकाल से कितना सम्बन्ध हो सकता है, यह हर एक आदमी को अपने लिए निर्धारित करना पड़ेगा। हम लोग यह निर्धारित नहीं कर पाते हैं, इसीलिए हमारा मन अशान्त रहता है

आज के युग में राम और रावण का तथा देवीजी और महिषासुर का हमारे आज के जीवन से, हमारे आज के जीवन से, हमारे चारों तरफ के समाज से और विश्व की जितनी परिस्थितियाँ हैं, उनसे सम्बन्ध होना चाहिए। इसी रूप में हमको विजयदशमी के इस पर्व को देखना है। और एक बात हमेशा याद रखनी है कि अपने घर में तुम लोगों को पूजा-पाठ निरंतर करना चाहिए। इससे तुम अपने जीवन की नियति को भी बदल सकते हो। तुम नियति के गुलाम नहीं हो, उसमें परिवर्तन किया जा सकता है।

(बीसवीं सदी के महान संत औऱ विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक)

जब योग के प्रचारक बन गए थे जेपी

किशोर कुमार //

हम सब मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान से तो परिचित हैं ही। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन एकमात्र स्वायत्तशासी संगठन है, जिसका उद्देश्य एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में योग अनुसंधान, योग चिकित्सा, योग प्रशिक्षण और योग शिक्षा को बढ़ावा देना है। नई पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा कि योग के इस मंदिर की स्थापना महान योगी स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की परिकल्पना औऱ उनके श्रमसाध्य प्रयासों का प्रतिफल है। तब यह विश्वायतन योगाश्रम के रूप में जाना जाता था। पर मैं आज स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जीवनी भी लिखने नहीं बैठा हूं। आज तो संपूर्ण क्रांति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। उनके जीवन से जुड़े विविध पहलुओं पर प्रबुद्धजन अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। उसी कड़ी में मैं भी केवल स्मरण करा रहा हूं कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी को स्वामी धीरेंद्र ब्रह्चारी के रूप में स्थापित कराकर योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में लोकनायक का कितना बड़ा योगदान था।    

कैसे? इस विषय़ पर आने से पहले योग की महत्ता क्या है, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह कितना अद्भुत टॉनिक है और इसका प्रत्यक्ष अनुभव लोकनायक जयप्रकाश नारायण को कब और कैसे हुआ था, सब कुछ उन्हीं के शब्दों में जानिए, जिसका उल्लेख धीरेंद्र ब्रह्मचारी की पुस्तक “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” में है – “योग-विद्या का कोई ज्ञान मुझे नहीं है। न योग वाङ्मय से ही परिचित हूँ। तथापि अन्य साधारण लोगों की तरह योग की अनन्त महिमाओं का वर्णन जब तब सुनता रहा हूँ। अभी हाल में विश्वायतन योगाश्रम, काश्मीर, के दो योगियों– श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और हरिभक्त चैतन्य से परिचय प्राप्त करने का सौभाग्य मिला।

मेरा स्वास्थ्य वर्षों से अच्छा नहीं रहता। इधर दो-ढाई साल से मधुमेह का शिकार रहा हूँ। कुछ महीने पूर्व कलकत्ते गया था, तो मित्रों से इन महात्माओं के विषय में सुना था। यह दोनों महात्मा लगभग एक वर्ष से यौगिक क्रियाओं का शिक्षण कलकते के नागरिकों को दे रहे हैं। इन क्रियाओं से अनेकों ने लाभ उठाया है और पुराने-पुराने रोग भी दूर हो गये हैं। यह सब मित्रों से सुनकर मैंने भी इन क्रियाओं का अनुभव लेने का निश्चय किया। कलकत्ते रहकर इन महात्माओं की कृपा से कुछ क्रियाओं का अभ्यास किया।

कुछ तो अद्भुत क्रियाएं हैं, जैसे “शंखप्रक्षालन” की क्रिया। सूक्ष्म व्यायाम भी अत्यन्त वैज्ञानिक लगते हैं। अभ्यास लगभग एक मास से जारी है। इस थोड़े समय में ही बहुत लाभ का अनुभव कर रहा हूँ। शरीर हल्का लग रहा है। मन अधिक प्रसन्न है। पेशाब में चीनी नहीं आ रही है। खून में भी चीनी पहले से कम है। निश्चित रूप से तो कुछ महीने बाद ही कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य में क्या-क्या अन्तर पड़ा है, परन्तु २४-२५ दिनों के ही अभ्यास से जो लाभ हुआ, वह थोड़ा नहीं है ।

यहाँ योग की प्रशंसा करने नहीं बैठा हूँ। उसकी आवश्यकता ही क्या है? जब अनन्त ऋषि-मुनियों ने उसकी प्रशंसा गाई है, जब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उसकी बड़ाई की है और भगवान् बुद्ध ने योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त किया था, तो मुझ जैसे अदना और नानुभवी व्यक्ति के कथन का क्या महत्त्व हो सकता है?  मैं यहां इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह दुःख की बात है कि यह प्राचीन भारतीय विद्या आज भारतीय जीवन से लुप्त हो गई है। पाश्चात्य सभ्यता, शिक्षा, चिकित्सा आदि का भूत इस तरह हम पर सवार है कि अपने देश की इस अनमोल वस्तु का हम तिरस्कार ही कर रहे हैं। इस विद्या के जानने वाले भी इस वातावरण से क्षुब्ध होकर जन-जीवन से दूर पड़ गये हैं।

इस अवस्था में यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ ऐसे योगी हैं, जो समाज में आकर फिर से इस दिव्य विद्या को फैलाने का शुभ प्रयास कर रहे हैं। इनमें ही विश्वायतन योगाश्रम के यह दो योगी हैं, जिनका जिक्र ऊपर आया है और जिन्होंने “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” पुस्तक को तैयार किया है। हिन्दी भाषा में इस विषय पर ऐसी दूसरी पुस्तक नहीं है। शायद अन्य किसी भाषा में भी न हो। हजारों वर्षों के अनुभवों और प्रयोगों का सार यहाँ संग्रहीत है। इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार हो, इसमें देश का कल्याण मैं मनाता है।“

स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी के निर्देशन में योगाभ्यास से लोकनायक जयप्रकाश नारायण को चमत्कारिक लाभ मिला तो उन्होंने उन्हें कलकत्ता के बदले दिल्ली को अपना केंद्र बनाने का सुझाव दिया। धीरेंद्र ब्रह्मचारी इसके लिए खुशी-खुशी तैयार भी हो गए। वे जब दिल्ली आए तो जेपी ने ही पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाबू जगजीवन राम तक को धीरेंद्र ब्रह्चारी की विलक्षण यौगिक क्षमता से अवगत कराया। फिर तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी की योगविद्या की खुशबू तुरंत ही फैल गई।

साठ के दशक में योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण को उनकी जयंती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मन का मैल मिटे तो बने बात

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया – स्वामी जी, एक नई सभ्यता का निर्माण कैसे किया जाए, जो मानव जाति की शांति, समाज की खुशहाली और व्यक्ति की मुक्ति सुनिश्चित कर सकेगी? स्वामी जी ने जो उत्तर दिया था, वह वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य को लेकर उत्पन्न परिस्थितियों के आलोक में भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था – विचार मनुष्य को बनाता है और मनुष्य सभ्यता को। इतिहास की प्रत्येक महान घटना के पीछे एक शक्तिशाली विचार-शक्ति रही है। सभी खोजों और आविष्कारों के पीछे, सभी धर्मों और दर्शन-शास्त्रों के पीछे, सभी प्राण-रक्षक अथवा प्राण-विनाशक उपकरणों के पीछे विचार ही रहे हैं। जो धन और समय व्यर्थ के मंसूबों और विनाशकारी गतिविधियों में बर्वाद किया जाता है, उसका अंशमात्र भी यदि एक अच्छे विचार के सृजन में दिया जाए तो अभी और इसी वक्त एक नई सभ्यता का शुभागमन हो जाएगा।

पर विचार-शक्ति शक्तिशाली कैसे बने? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सभी धर्म-शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। वेद से लेकर बाइबिल और कुरान तक में अस्तित्व की रक्षा के लिए शक्तिशाली विचार-शक्ति के सूत्र मिलते हैं। इस बात को कुछ वैदिक प्रसंगों के जरिए समझा जा सकता है। पर पहले विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस की प्रासंगिकता की चर्चा। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से हम सब वाकिफ हैं। देश-दुनिया में इसकी गंभीरता पर चर्चा होती रहती है। बीते एक दशक से हर साल सितंबर महीने में अलग-अलग थीमों पर विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। लिहाजा इस साल भी यह दिवस मनाया गया। इस साल का थीम “वैश्विक पर्यावरणीय सार्वजनिक स्वास्थ्य : हर दिन हर किसी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए खड़े होना” था। इस मौके पर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों के आधार पर बतलाया गया कि वाय़ु प्रदूषण से दिल की बीमारियां, स्ट्रोक, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और तीव्र श्वसन संक्रमण आदि हो रही हैं। इसका संदेश यह कि अकेले वायु प्रदूषण ही इतना खतरनाक है तो सभी तरह के प्रदूषण से मानव जाति की क्या हालत बन रही होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।

यह दु:खद है कि जिस वैदिक ज्ञान की बदौलत हम विश्वगुरू रहे हैं, आधुनिक युग में उसी ज्ञान की अवहेलना हम ही कर रहे हैं। ईशावास्‍योपनिषद् में कहा गया है – ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। यानी जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे। पर हकीकत में हम करते क्या हैं? ठीक इसके विपरीत। यह एक प्रकार का मानसिक प्रदूषण ही है, जिसके लिए भारतीय वैदिक जीवन-दर्शन में कोई स्थान नहीं है।

हमें तो वैदिक काल से शिक्षा दी जाती रही है कि प्रकृति का मात्र दोहन नहीं, बल्कि इसका पोषण भी करना है। प्रकृति वेदों के हर पहलू का एक अपरिहार्य हिस्सा है। वैदिक संस्कृति की सबसे बुनियादी अवधारणाओं में से एक की अवधारणा है पंचभूत – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। इसी पंच तत्वों से पूरी सृष्टि की रचना हुई और वैदिक मान्यताओं के मुताबिक, इन तत्वों का पूजन होना चाहिए। संतों का मान्यता रही है कि इस पूजन के पीछे का विचार पूरी तरह से पर्यावरणीय है। भारत वर्ष में अनेक धर्मों और संप्रदायों में प्रकृति के पूजन के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान का विधान है। वैदिक काल के बाद भारत में आए बौद्ध धर्म ने सत्य, अहिंसा और पेड़-पौधों और वनस्पतियों सहित सभी जीवित प्राणियों के प्रति प्रेम पर बहुत जोर दिया। बौद्ध धर्म के प्रत्येक अनुयायी को हर साल एक पेड़ लगाना था और उसे तब तक पोषित करना था जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित पेड़ न बन जाए। महान राजा अशोक को जीवित प्राणियों के प्रति दया के कारण सिंहासन त्यागने और अहिंसा का उपदेश देने के लिए जाना जाता है।

पर हमारी सोच कैसे बदल गई? जिन प्राकृतिक संसाधनों का हमें रक्षक बनना था, उसका भक्षक मात्र बनकर क्यों रह गए? संत-महात्मा कहते हैं कि मन पर तमोगुण हावी है। इसलिए, संसार से जुड़ी हमारी भावनाएं घृणा, द्वेष, हिंसा आदि रूपों में परिवर्तित होती रहती है। इससे कूड़ा-कर्कट अंदर भरता है और मन दूषित होता है। वरना, आदियोगी शिव की जटाओं से निकली पवन पावनी गंगा और यमुना जैसी नदियां कदापि प्रदूषित नहीं रहतीं। मन में मैल है इसलिए करोड़ो खर्च करके भी गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना साकार नहीं हो पा रहा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। हम सब नंगी आंखों से नदियों की दुर्दशा देख रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण हो या सांस्कृतिक प्रदूषण हर मामले में यही सिद्धांत लागू है।

अब सवाल है कि मन का मैल कैसे मिटे? योग में इसके लिए कई उपाय बतलाए गए हैं। पर यम-नियम ठोस समाधान है। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का पहला चरण ही है यम और नियम। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्च और अपरिग्रह ये पांच यम हुए और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं। इन्हें ही संपूर्ण योग का आधार माना गया है। प्रश्नोपनिषद् में कथा है कि छह ब्रह्म जिज्ञासु सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी महर्षि पिप्पलाद के पास गए तो महर्षि ने उनसे वर्षों ब्रह्मचर्यपूर्वक तप करवाया था। वह कुछ और नहीं, बल्कि यम-नियम का उच्चाभ्यास ही था। यानी यम-नियम साधना बाद ही वे आध्यात्मिक ज्ञान के हकदार हो पाए थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अपने भाष्य में कहा है कि योग का समस्त क्षेत्र अंतरंग और बहिरंग में विभक्त है। धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग योग है। महान संस्कारों के साथ जन्में कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को ध्यान तभी सध पाता है, जब प्रारंभ यम-नियम से हुआ होता है। यम-नियम के अभ्यास के बिना बहिरंग योग का तात्कालिक लाभ भले मिल जाए। पर मन का मैल तो बना ही रह जाता है। चूंकि समाज मानव मन की अभिव्यक्ति है, इसलिए भौतिक जगत की समस्याएं विकराल होती जाती हैं, जिसका हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। इसलिए स्वस्थ्य जीवन की आकांक्षा है तो सबसे पहले अष्टांग योग के प्रथम पायदान पर चढ़ना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगियों के उपदेशों पर मुहर लगाता विज्ञान

किशोर कुमार

“योग भगाए रोग” न कभी नारा था, न है। योग तो अब कैंसर जैसी घातक बीमारी में लाभकारी साबित हो रहा है। तभी भारत ही नहीं, बल्कि विकासित देशों के चिकित्सा विज्ञानी भी कैसर रोगियों के लिए योग की अनुशंसा अनिवार्य रूप से करने लगे हैं। टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के एक अध्ययन से पता चला है कि स्तन कैंसर के रोगियों के इलाज में योग को शामिल करने से मृत्यु दर में कोई पंद्रह फीसदी की कमी हो जाती है। कैंसर रोगियों पर योग के प्रभावों को लेकर अमेरिका में भी कई अध्ययन कराए गए हैं। सबके परिणाम ठीक वैसे ही मिले हैं, जैसा कि भारत के योगी दशकों से कहते रहे हैं।

भारत के वैज्ञानिक संत कई दशकों से कहते आ रहे हैं कि लोग न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी बीमार होते हैं। इसी के परिणाम स्वरूप हृदय रोग और कैंसर जैसी प्राण घातक बीमारियां भी आम हो गई हैं। स्वामी शिवानंद सरस्वती, स्वामी कुवल्यानंद और स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे संतों ने वैज्ञानिक अनुसंधानों और अपने अनुभवों के आधार पर सिद्ध किया था कि योग में इतनी शक्ति है कि उससे न केवल शांति, पूर्णता और शाश्वत आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है, बल्कि आधुनिक युग में होने वाले कैंसर और हृदय रोग जैसे घातक रोगों से निजात पाने में भी मदद मिल जाती है। इन बातों के पक्ष में अनेक प्रमाण दिए जाने के बावजूद चिकित्सा विज्ञानियों के लिए ये बातें वर्षों पहेली बनी रहीं। पर अब दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी कैंसर के उपचार को असरदार बनाने के लिए योग की महती भूमिका को खुले तौर पर स्वीकार कर रहे हैं।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में कैंसर 12.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के अध्ययन के नतीजों से तो पता चलता है कि हर नौ भारतीयों में से एक को अपने जीवनकाल के दौरान कैंसर हो जाएगा। अध्ययन से यह बात भी स्पष्ट हुई कि प्रत्येक 68 पुरुषों में से एक को फेफड़े का कैंसर होगा और प्रत्येक 29 महिलाओं में से एक को स्तन कैंसर होगा। कुछ खास प्रकार के कैंसर की त्वरित पहचान और उसकी रोकथाम संभव होने के बावजूद हालात बिगड़ते जाना चिंता का सबब बना हुआ है। पर योग के प्रयोग से मिले परिणाम सांत्वना प्रदान करने वाले हैं। केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक दो साल पहले बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे पर थे तो उनका ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ था, जिन्हें नियमित योगाभ्यास से ही कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात मिल गई थी।

हर साल सितंबर माह को रक्त कैंसर जागरूकता माह के तौर पर मनाया जाता है। इस दौरान विविध स्तरों पर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इसी के तहत अमेरिकन ऑकोलॉजी इंस्टीट्यूट (एओआई), हैदराबाद की ओर से बड़े पैमाने पर आयोजित कार्यक्रम में रेडिएशन ऑकोलॉजिस्ट डॉ. सुनीता मुलिंटी ने कई उदाहरणों के जरिए बतलाया कि योग के साथ कैंसर का उपचार कितना असरदार होता है। केवल योगनिद्रा के ही चमत्कारिक परिणाम मिलने लगते हैं। आस्ट्रेलिया के मनश्चिकित्सक डॉ. एइनसाइ मीरेस तो काफी पहले ही आपने शोध के के आधार पर बतला चुके हैं कि योगनिद्रा के अभ्यास से मलाशय का कैंसर कम हो जाता है। वहीं फेफड़ों में प्राथमिक कैंसर से उत्पन्न होने वाले द्वितीयक कैंसर का बढ़ना रूक जाता है। ऐसा इसलिए कि रोग प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत हो जाती है।

बंगलुरू स्थित एचसीजी कैंसर सेंटर की चिकित्सक डॉ. दीपिका के मुताबिक, “योग कोर्टिसोल के स्तर को कम करने में मदद करता है, जो तनाव के लिए जिम्मेदार हार्मोन है। इसके कारण रिकवरी की दर बढ़ जाती है। मुंबई स्थित एक सौ साल से भी ज्यादा पुराने योग संस्थान की निदेशक, भारतीय योग संघ और अंतर्राष्ट्रीय योग बोर्ड की अध्यक्ष डॉ. हंसाजी योगेन्द्र का अनुभव है कि योग के नियमित अभ्यास से  हार्मोनल संतुलन हो जाता है। वे कैंसर रोगियों के लिए आसनों में पर्वतासन, सुप्त बद्ध कोणासन, सेतुबंदासन, मत्स्यासन, वीरभद्रासन, ताड़ासन, विपरीतकरणी आदि को बेहद असरदार मानती हैं।  

टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के अध्ययन के लिए जो योग प्रोटोकॉल बनाए गए थे, उनमें नियमित अवधि के विश्राम और प्राणायाम के साथ सौम्य और पुनर्स्थापनात्मक योगासन शामिल किए गए थे। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीनस्थ मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की ओर से कैंसर के मरीजों के लिए षट्कर्म में विशेष तौर से जलनेति व कपालभाति और प्रत्याहार में योगनिद्रा को अनिवार्य बताया गया है। इसके साथ ही नाडीशोधन प्राणायाम व भ्रामरी प्राणायाम और आसनों में ताड़ासन, कटिचक्रासन, वज्रासन, अर्द्ध उठासन, भुजंगासन, शशंकासन, बलासन और सुप्त बंध कोनासन को प्रमुख माना गया है। यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन का भी मानना है कि कैंसर के मरीजों के लिए शिथलीकरण के योगाभ्यास बेहद लाभप्रद साबित होते हैं।

यदि विस्तार से जानना हो कि योग से कैंसर के मरीजों की रिकवरी आसान क्यों हो जाती है तो “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कैंसर” नामक पुस्तक का अध्ययन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के मार्ग-दर्शन में योग रिसर्च फाउंडेशन के विज्ञान-सम्मत अध्ययनों के आधार पर इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। इसमें विस्तार से विश्लेषण है कि कैंसर के मरीजों को किन परिस्थितियों में कौन-से योगाभ्यास क्यों, कब और कितना करना चाहिए। मुंबई की प्रख्यात चिकित्सक रहीं स्वामी डा. निर्मलानंद इस पुस्तक की लेखिका हैं, जो बिहार योग विद्यालय की संन्यासी हैं। इस पुस्तक में एक प्रसंग है कि किस तरह आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था और वे सभी मरीज नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करके चौदह वर्षों से भी ज्यादा जीवित रहे।

मौजूदा समय में बड़ी संख्या में लोगों का ज्ञात हो चुका है कि कैंसर बेलगाम क्यों है। अमेरिका के दो महत्वपूर्ण संगठनों अमेरिकन कैंसर सोसायटी और नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के मुताबिक, मुख्य रूप से तनाव, शराब, मोटापा, तंबाकू के साथ ही अनेक प्रकार के संक्रमणों के कारण कैंसर बेलगाम है। प्रदूषण उत्प्रेरक का काम कर रहा है। पर जहां तक उपचार की बात है, तो सफलता के तमाम प्रसंगों के बावजूद हम जानते हैं कि हर पैथी की अपनी सीमाएं होती हैं। योग की भी सीमाएं हैं। इसलिए बचाव से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। समय रहते योग को जीनव-शैली बना लेने में ही भलाई है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सनातन धर्म से निकला यौगिक अमृत है सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार //

आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार एक बार फिर चर्चा में है। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की जा रही है। इसलिए इस बार के कॉलम का विषय सूर्यनमस्कार ही चुना। पर जब लिखने बैठा तो जी20 शिखर सम्मेलन के 55 पृष्ठों वाले दस्तावेज पर नजर गई, जिसे किसी मित्र ने भेजा था। भारत के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चिंतन को दर्शाने वाले इस दस्तावेज ने बेहद प्रभावित किया। इसलिए उस दस्तावेज के सार-तत्व के आलोक में दो शब्द।   

जी20 शिखर सम्मेलन से हमने क्या खोया, क्या पाया, इसका राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण होता रहेगा। पर यह अच्छा हुआ कि इस शिखर सम्मेलन के बहाने हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

आज सनातन धर्म को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है और पक्ष व विपक्ष में बहुत-सी बातें कही जा चुकी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर वैदिककालीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के संत तक धर्म को परिभाषित करके मानते रहे हैं कि जीवन में धर्म की बड़ी अहमियत है। जैसे योग को जीने की कला माना जाता है, वैसे ही धर्म को भी जीने की कला और विज्ञान माना गया। संत जब धर्म की बात कहते हैं तो प्रकारांतर से अध्यात्म की भी बात कर रहे होते हैं। इसलिए कि कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई है।

ओशो की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है – मेरा स्वर्णिम भारत। इसकी बहुत-सी बातों से मत-मतांतर हो सकता है। पर नईपीढ़ी को प्रेरित करने वाली अनेक बाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को,अपनी हिमाच्छादित ऊँचाईयों को पुनः पा लेगा, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। अब देखिए न। भारत जी20 शिखर सम्मेलन का अगुआ बना तो उसने फिर से “वसुधैव कुटुंबम्” के रूप में सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचारधारा को मजबूती से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। कमाल यह कि इस पर पूरी दुनिया ने तालियां बजाईं।

भारत ने कोई नौ साल पहले जब योग को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया तो उसका मकसद केवल अपना कल्याण नहीं था। मंशा तो यही थी कि पूरे विश्व का कल्याण हो। सभी खुशहाल रहें। इसलिए कि स्वस्थ तन-मन ही खुशहाली की कुंजी है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि सुखी, समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन की चाहत है तो योगविद्या को जीवन का हिस्सा बनाना ही होगा। यह आजमाया हुआ है। प्राचीनकाल में भारत के लोग इसी विद्या के बल पर सुखी जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सदैव समग्र योग पर बल दिया। पर भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को ज्यादा ही अहमियत देती रही है तो इसकी खास वजह है।

दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। अब यह बात कोई सैद्धांतिक नहीं रह गई है, बल्कि लाखों लोगों का अनुभव है। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है।

एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है। बीते सप्ताह देहरादून में प्रयाग आरोग्य केंद्र के सहयोग से योगा स्पोर्ट्स फेडरेशन ने दो दिवसीय सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसे आशातीत सफलता मिली। इस मेगा इवेंंट में सात देशों और अठारह राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल योग को खेल बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। पर खेल-खेल में योग के हिमायती रहे हैं। इसलिए मेगा इवेंट होने के बावजूद सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं रह गया था, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहा। जाहिर है कि ऐसे अभ्यास के बड़े लाभ होते हैं। इस आयोजन की एक और विशिष्टता थी। इसमें भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए “मिस योग इंडिया” प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी, जो योग की गौरवशाली संस्कृति की झांकी थी।

खैर, सूर्यनमस्कार के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों मे स्पष्टता रहे, इसके लिए पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ठीक ही रहता है। बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

योग-शास्त्रों में सूर्योपासना के प्रसंग तो जगह-जगह है। पर सूर्य नमस्कार किसके दिमाग की उपज है, यह पहेली है। आम धारणा रही है कि आधुनिक युग में सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक  “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।   

उद्गम का स्रोत चाहे जो भी हो, पर सूर्य नमस्कार यौगिक अमृत है। तभी इसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं। सनातन धर्म की खासियत है कि वह बिना किसी भेदभाव के मानव जाति को ऐसी जीवनोपयोगी विधियां उपलब्ध कराता है कि उस पर अमल किया जाए तो जीवन खुशहाल हो जाएगा। सूर्य नमस्कार इसका बेहतरीन उदाहरण है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महर्षि अरविंद : स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी

किशोर कुमार //

श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही पलायनवादी कैसे हो गए? अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में क्यों बैठ गए? एक सच्चा योगी के लिए इस तरह पलायन उचित है? आपने तो श्रीमद्भगवतगीता का सुंदर भाष्य लिखा है। क्या आपको स्मरण नहीं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पलायन न करने की शिक्षा दी थी? क्या आपको लगता हैं कि अब करने के लिए कुछ नहीं बचा? श्री अरविंद ने जवाब में बस इतना ही कहा था, “मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है।“

इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद देश के हालात बदले, परिस्थितियां बदलीं। देश आजाद हुआ और वह अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। दूसरी तरफ श्री अरविंद की 150वीं जयंती पर देश भर में न जाने कितने ही आयोजन हुए। स्वतंत्रता संग्राम और योग व अध्यात्म के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया गया। समय का पहिया घूमता गया और अब हम फिर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस और श्री अरविंद की जयंती मनाने के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी के मन में सहज सवाल हो सकता है कि श्री अरविंद ने ऐसा क्या किया था जो स्वाधीनता संग्राम में उनकी सीधी भागीदारी से बढ़कर था? वैसे, आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही सवाल करेंगी और इस पर चिंतन-मनन आध्यात्मिक आंदोलन को गति देकर प्रकारांतर से देश की सेवा करना होगा।

ओशो जब अपने शिष्यों को बता रहे थे कि धर्म और अध्यात्म से किस तरह राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, तो किसी शिष्य ने श्री अरविंद को लेकर सवाल कर दिया। वही सवाल पूछा जो हर पीढ़ी के लिए नया सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। ओशो प्रत्युत्तर में कहा था कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे। भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसके बारे में कोई लिखता भी नहीं।

सच है कि महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य स्थूल प्रयासों के पीछे सूक्ष्म प्रयास भी कार्यरत था। महर्षि अरविंद के योगदान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसलिए कि आत्मिक जागृति व उत्थान के बिना पूर्ण रूप से राष्ट्र की सेवा लगभग असंभव हो जाता है। निःस्वार्थ, सद्भावना और सकारात्मक ऊर्जा रखने वाले जितने भी अग्रणी और महान सेनानियों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि इन सबके पीछे अध्यात्म की शक्ति ही काम कर रही थी। महर्षि अरविंद ने भी अपने आध्यात्मिक बल से स्वतंत्रता संग्राम को प्राणवान बनाया था। स्वयं महर्षि अरविंद ने कहा था कि यह पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा।

जब देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो गया, तो महर्षि अरविंद ने उस दिन संदेश दिया था- ‘…अगस्त 15, 1947, स्वतंत्र भारत का जन्मदिन और दैवीय इच्छा से यह मेरा जन्मदिन भी है। आज देश स्वतंत्र जरूर हुआ है, पर भारतीयों को आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी बाकी है, जो कि भारत की एकता, अखण्डता, पुनरुत्थान और मानव सभ्यता की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। भविष्य में पूरी दुनिया भारत के आध्यात्मिक उपहार से पोषित हो सके तो बड़ी बात होगी। मानव की चेतना के जागरण और उसके आंतरिक विकास से ही सार्वभौमिक विकास संभव है। मैं आशा करता हूँ कि भारत आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा! वन्दे मातरम्।‘

हम जानते हैं कि अपने देश में हजार से ज्यादा वर्षों तक आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे है। पर उनके बीच कोई समन्वय नहीं बन पाया। महर्षि अरविंद कहते थे कि दरअसल, साधु-संतों ने वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति को लक्ष्य मान लिया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का संबंध-विच्छेद कर लिया। इसकी तात्कालिक वजह थी। उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा, जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाए रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा।

पर जब परिस्थितियां बदली, तब तक वे भूल चुके थे कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है। इसलिए अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, इस पूर्णता का प्रयोजन इसमें था कि इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाए तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें। खैर, यह सुखद है कि हमने महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती ऐसे समय में मनाई, जब दुनिया के कोने-कोने में भारतीय योग और अध्यात्म का डंका सुनाई देने लगा था। विभिन्न स्तरों पर विज्ञानसम्मत तरीके से वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। पर चिंताजनक बात यह है कि साधनाओं में योग-समन्वय का घोर अभाव दिखता है। कोई हठयोग में जुटा हुआ है तो जीवन से राजयोग गायब है। यही हाल बाकी योग पद्धतियों के मामलों में भी है। हालात ऐसे ही रहे तो आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हो जाएगी, जिसकी चिंता महर्षि अरविंद सदैव किया करते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सतत यौगिक व आध्यात्मिक साधना की दिव्य ऊर्जा के सूक्ष्म प्रभाव, असंख्य बलिदानों और निष्काम योगदानों से हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। पर इस बाह्य स्वराज से संतुष्ट हो जाने का कोई औचित्य नहीं। आंतरिक स्वराज का स्वप्न अभी अधूरा है और जैसा कि श्री अरविंद कहते थे कि पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा। इसलिए समन्वित योग साधना समय की जरूरत है। इसके बल पर ही भारत दुनिया भर के लिए आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा और यही महर्षि अरविंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

चौंकिए मत, यह योगनिद्रा का कमाल है!

किशोर कुमार //

महर्षि पतंजलि ने जिस अष्टांग योग से दुनिया का परिचय कराया था, जिसका पांचवां अंग है प्रत्याहार। प्रत्याहार यानी इंद्रियों पर संयम। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी प्रत्याहार से आज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक शक्तिशाली विधि विकसित की थी, जिसे आज हम “योगनिद्रा” के रूप में जानते हैं। आज का विषय वही योगनिद्रा है और इसकी एक खास वजह भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 13-14 जुलाई को फ्रांस में थे। भारतीय मूल के लोग स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री मोदी से मिलने खिंचे चले गए थे। उनमें एक उत्साही युवक ने प्रधानमंत्री से पूछ लिया – आप हर रोज बीस घंटे काम करते हैं, इसका राज क्या है? लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के दौरान जाहिर है कि प्रधानमंत्री के पास इतना वक्त नहीं रहा होगा कि वे खड़े होकर उस यौगिक क्रिया के बारे में बतलाते, जिनकी बदौलत वे तीन-चार घंटे सो कर भी तरोताजा बने रहते हैं। इसलिए वे उस युवक का हाथ थपथपाते हुए आगे बढ़ गए थे। पर भारत के कुछ बुद्धिजीवियों को यह बात नागवार गुजरी। आखिर मोदी निरूत्तर क्यों हो गए? शायद तीन-चार घंटे ही नींद लेने वाली बात सही नहीं है।

कुछ साल पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो उनकी पुत्री इवांका ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था, जैसा कि फ्रांस में किया गया। उन्होंने ट्वीट करके पूछा था कि इतने ऊर्जावान होने का राज क्या है? प्रत्युत्तर में मोदी ने कहा था कि बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा निर्देशित “योगनिद्रा” का नियमित अभ्यास करता हूं। तब इवांका ट्रंप ने कहा था कि वे भी इस योगविधि का अभ्यास करेंगी। इस संवाद को जानने-समझने के बाद  कहना होगा कि या तो विरोध करने के लिए बाल की खाल निकाली जा रही है या फिर योगनिद्रा की शक्ति पर ही संशय है।          

बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे – बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी कई विज्ञानसम्मत बातें भी चमत्कार प्रतीत होने लगती हैं। ओशो रेल से जुड़े एक रोचक प्रसंग सुनाते थे – इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

हालांकि योगनिद्रा कोई नई योगविद्या तो है नहीं। दुनिया भर की एक हजार से ज्यादा प्रयोगशालाओं में शोध किया जा चुका है। सच तो यह है कि योगनिद्रा प्रत्याहार की एक ऐसी विधि है, जिसके लाभों की फेहरिस्त लंबी हैं। एक लाभ तो यही है कि पांच-छह घंटे सोने जितना शारीरिक-मानसिक आराम नहीं मिलता, उससे ज्यादा आराम ढाई-तीन घंटों की योगनिद्रा में मिल जाता है। इसलिए कि योगनिद्रा के दौरान व्यक्ति की स्थिति जागृत और स्वप्न के बीच वाली होती है। योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर पहली बार वर्षों पहले जापान में शोध किया गया था। शोधकर्त्ता डॉ हिरोशी मोटोयामा ने देखा था कि योगनिद्रा के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। इससे योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। इस वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक प्रत्याहार में इतनी शक्ति है कि इड़ा और पिंगला नाड़ियों को अवरूद्ध कर मस्तिष्क से उनका संबंध विच्छेद किया जा सकता है। इस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राय: सुषुप्तावस्था में रहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करना आसान हो जाता है। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। शोधों से पता चला है कि मनुष्य जब निद्रित रहता है, उस समय उसका मन बहुत ग्रहणशील रहता है। इसके अतिरिक्त उसकी श्रवण, दृष्टि और ज्ञान की शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि स्थूल इन्द्रियों का बन्धन नहीं रहता। यह ज्ञान अर्जन के लिए आदर्श स्थिति होती है। साथ ही स्नायविक, मानसिक और भावनात्मक तनावों मुक्ति मिल जाती है, जो अनेक बीमारियों की वजह बनी होती हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आपबीती सुनाई थी कि योगनिद्रा जीवन को किस तरह रूपांतरित कर देती है। वर्षों पहले की बात है। स्वामी जी इंग्लैंड में थे और उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। लंदन विश्वविद्यालय में बायोफीडबैक विषय पर शोध पूर्व संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। उसमें योग विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार रखने के लिए बिहार योग विद्यालय को निमंत्रण था। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लंदन में थे ही तो चले गए अपने संस्थान का प्रतिनिधित्व करने। पहले तो अन्य वक्ताओं ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पर वक्तव्य पूरा हुआ तो सभी दंग रह गए थे। इसलिए कि जिस विषय पर अभी शोध होना था, स्वामी जी उसके परिणामों की बात कर गए थे। चिकित्सा वैज्ञानिकों से रहा न गया। पूछ लिया – आपको इस विषय की इतनी गहन जानकारी कैसे हुई? पता चला कि स्वामी जी ने तो मंच से उतना ही कहा था, जितना उन्हें सपने में उनके गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बतलाया था। यह चमत्कार कैसे हुआ? स्वामी निरंजन कहते हैं कि यह योगनिद्रा का परिणाम है। दरअसल, उन्होंने अपने गुरू से सारी शिक्षाएं योगनिद्रा में ही पाई थी।     

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि पूरे मनोयोग से और नियमित प्रत्याहार की शक्तिशाली साधना करने वाले किस तरह रूपांतरित हो जाते हैं। मौजूदा बड़े राजनेताओं में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी घोषित तौर से प्रत्याहार की साधना करते हैं। तभी वे दोनों चौबीस घंटो में बमुश्किल तीन-चार घंटे ही नींद लेकर भी ऊर्जावान व संयमित बने रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती : आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत

किशोर कुमार //

योग की बेहतर शिक्षा किस देश में और वहां के किन संस्थानों में लेनी चाहिए? यदि इंग्लैंड सहित दुनिया के विभिन्न देशों से प्रकाशित अखबार “द गार्जियन” से जानना चाहेंगे तो भारत के बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे पहले बताया जाएगा। चूंकि ऐसा सवाल पश्चिमी देशों में आम है। इसलिए “द गार्जियन” ने लेख ही प्रकाशित कर दिया। उसमें भारत के दस श्रेष्ठ योग संस्थानों के नाम गिनाए गए हैं। बिहार योग विद्यालय का नाम सबसे ऊपर है। इस विश्वव्यापी योग संस्थान के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की समाधि के दस साल होने को हैं। फिर भी बिहार योग का आकर्षण दुनिया भर मे बना हुआ है तो निश्चित रूप से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को अपने गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मिली दिव्य-शक्ति और खुद की कठिन साधना का प्रतिफल है।

दरअसल, बिहार योग विद्यालय दुनिया के उन गिने-चुने योग संस्थानों में शूमार है, जो परंपरागत योग के सभी आयामों की समन्वित शिक्षा प्रदान करता है। उनमें हठयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, कुंडलिनी योग आदि शामिल है। यह संस्थान योग को कैरियर बनाए बैठे प्रोफेशनल्स द्वारा नहीं, बल्कि पूरी तरह संन्यासियों द्वारा संचालित है। योग शिक्षा का वर्गीकरण भी लोगों को आकर्षित करता है। जैसे, आमलोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अलग तरह का पाठ्यक्रम है और आध्यात्मिक उत्थान की चाहत रखने वालों के लिए अलग तरह का पाठ्यक्रम है। संन्यास मार्ग पर चलने वालों के लिए भी पाठ्यक्रम है, जबकि भारत में ज्यादातर योग संस्थानों में हठयोग की शिक्षा पर जोर होता हैं।

भारत के प्रख्यात योगी और ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की थी। वे 20वीं सदी के महानतम संत थे। उन्होंने बिहार के मुंगेर जैसे सुदूरवर्ती जिले को अपना केंद्र बनाकर विश्व के सौ से जयादा देशों में योग शिक्षा का प्रचार किया। उन देशों के चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर य़ौगिक अनुसंधान किए। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उन्हीं के आध्यात्मिक उतराधिकारी हैं, जिन्हें आधुनिक युग का वैज्ञानिक संत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस का और स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्वामी शिवानंद सरस्वती के मिशन को दुनिया भर में फैलाया था। उसी तरह स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने गुरू का मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।

आदिगुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह अनेक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौती सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है।

केंद्र सरकार परमहंस स्वामी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती और बिहार योग विद्यालय की अहमियत समझती है। तभी एक तरफ उन्हें पद्मभूषण जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया तो दूसरी ओर बिहार योग विद्यालय को श्रेष्ठ योग संस्थान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार प्रदान किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग विद्यालय की योग विधियो से इतने प्रभावित हैं कि जब उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने पूछा कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी।     

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर देश में योग के प्रचार-प्रसार के लिए चार योग संस्थानों के चयन की बात आई तो एक ही परंपरा के दो योग संस्थानों का चयन किया गया। उनमें एक है ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और दूसरा है बिहार योग विद्यालय। शिवानंद आश्रम खुद 20वीं शताब्दी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बिहार के मुंगेर में गंगा के तट पर बिहार योग विद्यलाय उनके शिष्य स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। बाकी दो सस्थानों में पश्चिमी भारत के लिए कैवल्यधाम, लोनावाला और दक्षिणी भारत के लिए स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान का चयन किया गया था। समाधि लेने से पहले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे, “स्वामी निरंजन ने मानवता के क्ल्याण के लिए जन्म और संन्यास लिया है। उसका व्यक्तित्व नए युग के अनुरूप है।“

शायद उसी का नतीजा है कि जहां देश के अनेक नामचीन योगी कसरती स्टाइल की योग शिक्षा का प्रचार करते हुए बीमारियों को छूमंतर करने का नित नए दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग को जीवन-शैली बताते है। वे कहते हैं कि यदि बीमारी के इलाज के लिए योग का प्रयोग करना हो तो एलोपैथी पद्धति से जांच और आयुर्वेदिक पद्धति से आहार के साथ योग ब़ड़ा ही असरदार पद्धति बन जाता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दे रखा है कि वह योग की विभिन्न परंपराओं, विभिन्न विधियों को संरक्षित करने, उनका प्रचार करने और उन योग विधियों पर हो रहे अनुसंधानों को एक साथ संग्रह करने के लिए मोरारजी देसाई योग अनुसंधान संस्थान में राष्ट्रीय संसाधन केंद्र बनाए। इन बातों से समझा जा सकता है कि योग शिक्षा के शुद्ध ज्ञान के लिए बिहार योग विद्यालय देश-विदेश के लोगों को क्यों आकर्षित करता है। गुरू पूर्णिमा इसी सप्ताह है। आधुनिक युग के इस वैज्ञानिक संत और पूज्य गुरूदेव को नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

चेतना के विकास में बड़े काम का है गायत्री मंत्र

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकने-चौंकाने वाली बात न थी। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर में उस समय क्या घटित हो रहा था, उसका आंखों देखा हाल ऐसे बतला दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ देख रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी। परीक्षण के बाद उस तस्वीर को बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में इसे त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।    

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह स्वस्थ्य और सक्रिय रखा जा सकता है? उपाय अनेक हैं। पर गायत्री मंत्र किसी भी यौगिक उपाय से बढ़कर है। कुछ वैज्ञानिक अनुसंधानों से इस मंत्र की अहमित को समझिए। मंत्र विज्ञान पर अनुसंधान करने वालों में अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगरिल का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे अपनी प्रयोगशाला में मंत्रों की शक्ति का वर्षों परीक्षण के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि गायत्री मंत्र बेहद शक्तिशाली है। इसके जप से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो सर्वाधिक हैं। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय ने मानव के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक विकास में गायत्री मंत्र की भूमिका पर कई साल पहले शोध शुरू किया था। पायलट प्रोजेक्ट के तहत रेडियो पारामारिबो, सूरीनाम, दक्षिण अमेरिका, जर्मन व हालैंड से प्रतिदिन शाम 7 बजे से 15 मिनट के लिए गायत्री मंत्र का प्रसारण किया गया। कुछ लोगों का समूह बनाकर उन्हें नियमित रूप से रेडियो पर गायत्री मंत्र सुनने और उससे अपने को तादात्म्य बनाने को कहा गया था। छह महीनों बाद पाया गया कि जप के समय कंपन वातावरण में फैलता है। वही कंपन सकारात्मक परमाणुओं को आकर्षित करके मंत्र से तादात्म्य बनाने वाले व्यक्ति के पास लौटता है और उसे उस सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

वैदिककालीन ऋषि तो सदियों से गायत्री शक्ति की महत्ता को स्वीकारते रहे हैं। तभी वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता, गायत्री उपनिषद, गायत्री संहिता, गायत्री तंत्रम, गायत्री रामायण, गायत्री सहस्रनाम, गायत्री चालीसा और गायत्री हृदयम जैसे न जाने कितने ही ग्रंथ उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था – ऊं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है। हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उनके उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे।

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध आज्ञा चक्र से होने के कारण इसका उच्चारण करने से ऐसे स्पंदन उत्पन्न होते हैं, जो आज्ञा चक्र को जागृत करते हैं। भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

संतों और आधुनिक युग के वैज्ञानिकों के अनुभवों से स्पष्ट है कि यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो इससे जीवन में बड़ा और सकारात्मक बदलाव देखने को मिल सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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