विजयादशमी का यौगिक संदेश – नियति को बदला जा सकता है

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती

आज विजयदशमी का दिन है और यह दो सम्प्रदायों का पवित्र उत्सव है। एक वैष्णव सम्प्रदाय का और दूसरा शाक्त सम्प्रदाय का। नौ दिन तक वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय वाले इस पर्व को मनाते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय वाले राम और रावण को सामने रखकर इस पर्व को मनाते हैं और शाक्त सम्प्रदाय वाले देवी जी और महिषासुर को सामने रख कर। राम और रावण एक इतिहास है, जो बीत चुका है। परन्तु इतिहास सदा इतिहास नहीं रहता, वह एक अन्दर पौराणिक दन्तकथा बनता है, और वही पुराण मनुष्य के वर्तमान में एक सत्य बनता है, एक यथार्थ बनता है। दन्तकथाओं ने राम और रावण को सत्य और असत्य का, देवी और आसुरी शक्ति का प्रतीक माना है। अपने अंदर जो अज्ञान है, अपने चारों तरफ जो अविद्या फैली है, अपने समाज में जो भ्रष्टाचार फैला है, सारी दुनिया में जो आंतंक फैला है, वह आज का असुर है, रावण है। आज रावण का वध प्रतीक के रूप में नहीं, पौराणिक कथा के असुर एक पात्र के रूप में नहीं, इतिहास की एक हस्ती के रूप में नहीं, बल्कि यथार्थ रूप में करना है, यही इस पर्व का मतलब होता है। अर्थात् मैं अपने मन से अविद्या और अज्ञान निकालूँगा, तब मैं कह सकूँगा कि रावण म महिषासुर मर गया।

ईश्वर को हम राम रूप में भी देखते हैं और देवीजी के रूप में भी। देवीजी का रूप अत्यन्त प्राचीन है। मनुष्य ने आज से लाखों साल पहले, अपने जीवन के आदिकाल में, जब उसने देखना-सोचना शुरू ही किया था, सबसे पहले ईश्वर को माँ के रूप में देखा। उसे स्त्री रूप में देखा, पुरुष रूप में नहीं। संसार को बनाने वाला जो भी हो, उसकी सबसे पहले जो पूजा चली, वह स्त्री के रूप में चली। नारी पूजा, स्त्री पूजा और देवी पूजा, यहीं से पूजा की शुरुआत होती है, क्योंकि आदिकाल में हमारा समाज मातृ-प्रधान समाज था। आज हमारा समाज मातृ-प्रधान नहीं, पितृ-प्रधान है। इसलिए हमने ईश्वर को भी पुरुष के रूप में कल्पित किया है, श्रीराम, शिवजी या गणेशजी के रूप में। अब भगवान चाहे स्त्री हो या पुरुष, उससे अपने को अभी कोई मतलब नहीं है। मतलब केवल इतना है कि वह परमात्मा की शक्ति आज के दिन हम लोगों के अन्दर ज्ञान, प्रकाश, विद्या, शक्ति, सम्पत्ति और मंगल के रूप में जागृत होती है।

रावण के दस सिर थे, इसीलिए हम इस पर्व को दशहरा भी बोलते हैं। हमारे भी दस सिर हैं, पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हम संसार के सब भोगों को ग्रहण करते हैं। ये दस इन्द्रियाँ रावण का स्वरूप हैं, प्रतीक हैं और इस रावण के सिर काटते-काटते रामजी हार गए। विभीषण की तरफ देखने लगे कि यह सब क्या हो रहा है। बार-बार उसके सिर काटते थे, बार-बार वे वापस आ जाते थे। तब विभीषण ने कहा, ‘महाराज, जब तक अमृत का पिण्ड सूखेगा नहीं, तब तक रावण मरने वाला नहीं है। रावण के दस सिरों की तरह ये जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, इनको जीतना होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम अपनी नाक काट दो या कान काट दो या गाँधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँध लो। इन्द्रियों को रोकने से कुछ नहीं हो सकता, जब तक कि तुम अपने मन से तृष्णा को नहीं निकालते ।

तृष्णा एक प्यास है। और यह तृष्णा उम्र के साथ घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है। लोगों के बाल जितने सफेद होते जाते हैं, उनकी तृष्णा उतनी काली होती जाती है। तृष्णा कभी बुढ़िया नहीं होती, वह हमेशा जवान रहती है।

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितेनांकितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥

तुम्हारे अन्दर में वह तृष्णा नाभि में है, जिसको कहते हैं मणिपुर। तृष्णा मनुष्य के अन्दर छुपी है और जब तक वह तुम्हारे अन्दर है, तुम रावण को मार नहीं सकते, इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह तृष्णा चाहे भोग की हो, चाहे योग की, आखिर हथकड़ी तो हथकड़ी है, चाहे सोने की पहनो या लोहे की। अब इस तृष्णा का क्या करना है। रामचन्द्रजी ने विभीषण से पूछा कि इस अमृत रूपी तृष्णा को सुखाने का क्या तरीका है। तब उन्होंने वायवास्त्र, पर्जन्यास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र या ब्रह्मास्त्र, इनमें से किसी अस्त्र का इस्तेमाल नहीं किया, केवल आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल किया। अग्नि का स्वरूप है जलाना और तृष्णा है पानी । पानी को उबालते जाओ, उबालते जाओ, उसकी भाप निकलती है और थोड़ी देर में टोपिया एकदम खाली हो जाता है। यह जो आग्नेयास्त्र है, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 6.35 ॥

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हे अर्जुन! अभ्यास और वैराग्य, ये दो तरीके हैं, जिनके द्वारा तुम इस रावण को मार सकते हो, इस अमृत-कुण्ड को सुखा सकते हो।’ यह तृष्णा जो तुम्हारे अन्दर है, पता नहीं कब से हैं। ‘जनम-जनम की तृष्णा’ कबीरदास कहते हैं। पता नहीं पूर्व जन्म में तुमने क्या सोचा था और वह पूरा नहीं हुआ। अब भारत में जितने गरीब लोग हैं, सब मोटर गाड़ी और डिश टी.वी. का सपना देख रहे हैं। अगर सपना पूरा नहीं होगा, तो अगले जनम में तृष्णा तो रहेगी ही। तृष्णा पैदा होती है अधूरी इच्छा से। और यह तृष्णा रावण की नाभि का अमृत घट है। यह सबके अन्दर है। इसलिए हम लोग राम नहीं, रावण हैं। इस तृष्णा को दूर करने के लिए कृष्ण भगवान ने दो उपाय बतलाए, अभ्यास और वैराग्य। योग सूत्रों में भी कहा गया है-

अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः ॥

वैराग्य आग्नेयास्त्र है। अब वैराग्य किसको कहते हैं? इसका बिल्कुल सरल उदाहरण है, जिन विषयों को तुमने देखा या सुना, वे बार-बार तुम्हारे मन में चक्कर लगाते हैं। दादाजी को मरे पाँच साल हो गए, लेकिन अभी भी उनकी याद आती है। बीती हुई घटनाएँ मनुष्य के वर्तमान जीवन को उद्विग्न करती हैं। वर्तमान का भूतकाल से कितना सम्बन्ध हो सकता है, यह हर एक आदमी को अपने लिए निर्धारित करना पड़ेगा। हम लोग यह निर्धारित नहीं कर पाते हैं, इसीलिए हमारा मन अशान्त रहता है

आज के युग में राम और रावण का तथा देवीजी और महिषासुर का हमारे आज के जीवन से, हमारे आज के जीवन से, हमारे चारों तरफ के समाज से और विश्व की जितनी परिस्थितियाँ हैं, उनसे सम्बन्ध होना चाहिए। इसी रूप में हमको विजयदशमी के इस पर्व को देखना है। और एक बात हमेशा याद रखनी है कि अपने घर में तुम लोगों को पूजा-पाठ निरंतर करना चाहिए। इससे तुम अपने जीवन की नियति को भी बदल सकते हो। तुम नियति के गुलाम नहीं हो, उसमें परिवर्तन किया जा सकता है।

(बीसवीं सदी के महान संत औऱ विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक)

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