गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार

योग और स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस अगले महीने ही है। उसे व्यापक स्तर पर मनाने की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं। जोर इस बात पर है कि शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। योग के जरिए ईश्वरानुभूति की बात आम आदमी के संदर्भ में बेमानी प्रतीत होती है, इसलिए यह मुद्दा गौण प्राय: ही है। पर बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती और योग की कुछ अन्य परंपराओं के साधक सदैव योग का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-दर्शन मानते रहे हैं। आज भी स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती, स्वामी नित्यानंद आदि योग परंपराओं में योग का महान लक्ष्य ईश्वरानुभूति ही माना जाता है।  

चिन्मय मिशन के लिहाज से मई बड़े महत्व का है। इसलिए इस लेख में बात स्वामी चिन्मयानंद जी की और योग से संबंधित उनके कुछ विचार। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, हिन्दू धर्म व संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म कोई 106 साल पहले इसी महीने में हुआ था। उनके महानिर्वाण के भी कोई तीन दशक बीत चुके हैं। पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी उनके जीवनकाल में थी। योग-दर्शन पर व्याख्यान करते हुए वे ऐसी उपमा देतें थे कि बात लोगों के जेहन में उतरती चली जाती थी। उन्होंने प्राणायाम की चर्चा करते हुए कहा था कि यह सर्वविदित है कि इसका उद्देश्य इंद्रिय संयम है। यदि प्राणायाम का अभ्यास बिना वैराग्य भाव के किया जाए तो यह बच्चों का एक व्यायाम मात्र रह जाता है। जैसे एक मछुआरा श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में गोता लगाता है, उसी प्रकार लोग कुंभक व पूरक का अभ्यास शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए करते हैं, ताकि विषय भोगों का अधिक समय तक आनंद ले सकें। प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य यह कदापि नहीं होना चाहिए।

स्वामी चिन्मयानंद जी ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की थी कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती जीवन पर्यंत वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुटे रहे। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने। उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई। इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ। एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। ज्ञान यज्ञ में बत्ती बुझ गई। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

बात संतमत और संतों की

एस.के.राय /

इस धरती पर अनेकानेक संत अवतरित हुए और जनमानस के बीच ब्रह्मज्ञान से संबंधित अनुभव साझा किए। वे न तो अपना कोई साम्राज्य स्थापित करने आए थे, न ही धर्म। सच तो यह है कि संतों का एक ही प्रयोजन होता है और वह होता है-पीड़ित मानवता के कष्टों का निवारण और उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए सत्प्रेरित करते रहना। संत भी इन्सान ही होते हैं, इसलिये उनकी भाषा, उनका रहन सहन आम इंसान आसानी से ग्रहण कर सकता हैं, अपना सकता हैं।

ऋग्वेद, छान्दोग्योपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद् में सत् शब्द का प्रयोग परमात्मा और संत के लिए हुआ है। संत शब्द श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामचरितमानस, महाभारत आदि सद्ग्रंथों में मिलते हैं। इन्हीं संतों को सद्ग्रंथों में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, ऋषि, मुनि आदि भी कहा गया है। संत शब्द का प्रयोग प्रायः सदाचारी पवित्रात्मा महापुरुषों के लिए किया गया है। वस्तुतः संत उनको कहा गया है, जो अंतस्साधना के द्वारा जड़-चेतन की ग्रंथि को खोलकर सभी संशयों को निर्मूल नाश कर परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ हों।

संत शब्द संस्कृत के सन् शब्द में अस् धातु की संधि से बना हुआ सत् रूप हो गया है। जिसका अर्थ सदा एकरस रहनेवाला  होता है। सभी परमात्म- प्राप्त महापुरुषों का, शरीर की नश्वरता, माया की असत्यता, जीव की नित्यता, ईश्वर की शाश्वतता आदि विषयक विचार एक समान मिले रहने के कारण ही कहा गया कि सभी संतों का एक ही मत है। वही एक मत संतमत है।

जबसे इस धराधाम पर संतों का प्रादुर्भाव हुआ, तब से संत मत है। इसीलिए संतमत को परम प्राचीन मत कहा गया है। संतमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। किसी भी देश या जाति के परमात्म-प्राप्त महापुरुषों का विचार संतमत है।भगवान ऋषभदेवजी महाराज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, आचार्य शंकर, मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज, गोरखनाथजी महाराज, स्वामी रामानंदजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत भीखा साहब, संत पलटू साहब, संत जगजीवन साहब, संत दरिया साहब, संत शिवनारायण स्वामी, संत नामदेवजी महाराज, समर्थ रामदासजी महाराज, गोस्वामी  तुलसीदासजी महाराज आदि जितने महापुरुष हो गये; इन सभी महापुरुष ने देश-काल के अनुसार संसार के लोगों को अपना-अपना उपदेश दिये।

यही उपदेश उनके पीछे किसी विशेष कारणवश इन्हीं महापुरुषों के शिष्यों द्वारा अलग-अलग पंथ, संप्रदाय और मत के रूप में स्थापित होते हैं। जैसे, जैन मत, बौद्ध मत, नाथ पंथ, रामानंदी पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, दरिया पंथ, शिवरामी पंथ आदि। स्वामी रामानन्द जी के शिष्य कबीरदास जी का संतमत में अच्छा ख़ासा दखल दिखता है। संतों की कड़ी में सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं, जिनका उपदेश है कि शरीर के अंदर ही परमात्मा का वजूद है व उनकी साक्षात अनुभूति हम साधना के माध्यम से कर सकते हैं। यद्यपि कि यह बात अनेक संतों ने की कही है ।

अपने इस अलौकिक अनुभव को कबीर साहब ने एक शबद के माध्यम से जनमानस से साझा किया है। यह शबद बतीस दोहे में अंकित है, जिसमें बहुत विस्तार से शरीर और उसके सात चक्रों का वर्णन किया गया है। उसी शबद की सात पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ।

कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥

काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।

माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥

आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।

अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥

सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है॥

संतमत का यह बेहतरीन शबद अंड, पिंड और ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को परत दर परत खोल कर रख देता है।  शरीर के भिन्न-भिन्न चक्रों में देवताओं का निवास और उनकी महिमा का अद्भुत वर्णन दिखता है। संत मत इस बात का दावा करता है कि यह संत का अनुभव है। संतमत में यह बताया जाता है कि कबीर साहब के जिस शबद की चर्चा  हमलोगों ने कल किया है, वह कबीर साहब का अपना अनुभव है।

शबद का शीर्षक है “ कर नैनो  दीदार महल में प्यारा है “। इसका शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि ऐ साधक ! साधना में लग जाओ और अपने इस शरीर के अंदर ही परमात्मा का दर्शन कर लो।साधक के लिये इस शबद में दो दोहे वर्णित है जिनका अनुपालन अनिवार्य है।

“काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।

मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥

धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।

कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥

हमारे  शरीर के पैर के तलवे से सहस्त्रार तक के भाग में जो कुछ भी स्थित है, वह बहुमूल्य है और मनुष्य को मिला एक अनमोल ख़ज़ाना है।यही अंड, पिंड और ब्रह्माण्ड हमारे यात्रा के मार्ग हैं। हमें अंड से निकलकर ब्रह्म और परब्रह्म के आगे जाकर अनामी, अगम लोक की यात्रा इसी शरीर के माध्यम से ही करनी है।यह ऐसी यात्रा है जिसके आदि और अंत का कोई अता पता नहीं ।नौ द्वारों वाले इस शरीर ( दो आँखें, दो नाक , दो कान , एक मुँह, एक मल द्वार और एक मूत्र द्वार ) का दसवाँ द्वार दोनों आँखों के पीछे स्थित है जिसे तीसरा तिल भी कहते हैं।

रूहानी सफ़र तीसरे तिल से प्रारम्भ होता है और सहस्त्रार तक का रास्ता तय करना होता है। सुषुम्ना नाड़ी इस यात्रा का मुख्य माध्यम है।शरीर के अंदर जो सात चक्र हैं उनका विवरण इस शबद में इस प्रकार अंकित है।

मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।

देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥

स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥

नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा।

हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥

द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।

सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥

षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥

ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।

निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥

कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।

सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥

इस प्रकार उपर के सात दोहे में शरीर के सात चक्रों एवं उनके रंग, उस चक्र के देवता और वहाँ का पूरा वृत्तांत बताया है।

मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र या नाभि चक्र ,  अनाहत चक्र  , विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र  का वर्णन है। यहीं से रूहानी सफ़र शुरू कर सहस्त्रार तक पहुँचने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

कबीर साहब ने इसी शबद के दोहा 10 से दोहा 32 तक में इस मार्ग को जनमानस को प्रस्तुत किया है। कहते हैं कि इस मार्ग पर चलनेवाले साधक पहले चींटी चाल से , फिर मकड़ी चाल से तत्पश्चात् मीन ( मछली ) चाल से और फिर विहंगम चाल से चलने लगते हैं, संत मत ऐसा दावा करता है।

शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ।।32॥

सतगुरू की अनिवार्यता बताते हुए साधक से प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा से मिले इस शरीर का भरपूर उपयोग करते हुए अंड और पिंड को लाँघकर ब्रह्माण्ड में जाने का यत्न करें।

बुद्धि सब कुछ नहीं, भावना प्रमुख है

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

मनुष्य के जीवन में बुद्धि ही सब कुछ नहीं है। मानव जीवन में बुद्धि का अस्तित्व ज्ञान अर्जन के लिए है, निर्णय लेने के लिए है। साथ ही जिस ज्ञान को हम प्राप्त करते हैं, उसको अपने जीवन में उतारने के लिए है। अगर ज्ञान केवल बुद्धि तक ही सीमित रह जाए और जीवन में उतरे ही नहीं तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। पर भावना बुद्धि से सूक्ष्म है। भावना मे विवेक का अंश नहीं होता। हम किसी से स्नेह करते हैं, तो करते हैं। प्रेम करते हैं, तो करते हैं। इसके पीछे कोई तर्क नहीं होता। इस बात को सम्राट अकबर और बीरबल के बीच के संवाद से समझा जा सकता है।

सम्राट अकबर ने अपने दरबारियों के सामने इच्छा व्यक्त की कि वे दुनिया के सबसे खूबसूरत व्यक्ति को देखना चाहते हैं। दरबार में एक से बढ़कर एक खूबसूरत लोग थे। सम्राट उन सबसे भी ज्यादा खूबसूरत को देखना चाहते थे। बड़ा मंथन हुआ। अंत में तय हुआ कि यह काम बीरबल ही कर सकते हैं। बीरबल सम्राट अकबर को एक बस्ती में ले गया, जहां की झुग्गियां ही झुग्गियां थीं। वहां अनेक बच्चे खेल रहे थे। उन बच्चों का नयन-नक्श ऐसा कि उन्हें कुरूप ही कहा जा सकता था। बीरबल ने कहा – “देखिए सम्राट, कितने सुदर बच्चे हैं सारे।“ सम्राट आग-बबूला हो गए। कहा, “ये कुरूप बच्चे तुम्हे सुंदर दिख रहे हैं?” तभी एक घटना घटित हो गई। एक बच्चा खेलते हुए गिर गया। रोने लगा। उसकी आवाज सुनकर उसकी मां दौड़ती हुई वहां आई और बच्चे को सीने से चिपकाकर कहने लगी – “राजा बेटा, तुमको क्या हो गया है? तुम कितने सुंदर हो, कितने अच्छे हो। रोते क्यों हो?”  इस घटना के बाद बीरबल को अपनी बात साबित का मौका मिल गया। उसने कहा, “देखा ना महाराज आपने  कि किस तरह एक माता के लिए उसका बालक ही सबसे सुंदर, सबसे स्नेही होता है।“ अकबर ने भी माना कि सुंदरता देखने वालों की आंखों में होती है।

यह सच है कि भावना का संबंध बुद्धि से नहीं है। भावना केवल एक वस्तु या जीव को देखकर उससे प्रेम करती है। भावना में दो व्यक्ति एक कभी नहीं हो सकते। उन्हें दो रहना पड़ता है। दो हैं तो प्रेम-प्रवाह जाएगा। पर एक होते ही यह रूक जाता है। आखिर हम किससे प्रेम करें? ज्ञान और भक्ति मार्ग में यही विरोधाभास है। ज्ञान मार्ग कहता है कि अपने को भूल जाओ। भक्ति मार्ग में अपने को भूला नहीं जा सकता, बल्कि भावना को एक दिशा दी जाती है। ज्ञान में कहते हैं कि तुम आत्मा हो, शरीर नहीं हो, सच्चिदानंद रूप हो, इस बात को भूलो मत। भक्ति में कहा जाता है कि तुम जो हो उसको भूलो मत। केवल अपनी भावनाओं को दिशान्तरित कर दो। जो भावना संसारिकता की ओर प्रवाहित हो रही है, उसे ईश्वर की ओर प्रवाहित कर दो। पर संसारिक जीवन में ज्ञान की प्रधानता है। मनुष्य बुद्धि के बल जीता है, स्वभाव से नहीं। तभी कहते भी हैं कि हम बुद्धिजीवी हैं। भला कोई अपने को भावनाजीवी कहता है, सुना ऐसा कहते किसी को?

महर्षि अरविंद हों या अन्य संत। सभी को ऐसा अनुभव हुआ कि प्रारंभ में बुद्धि साथी थी। पर अंत में वही विरोध करने लगी। पथ में कांटा बन गई। बुद्धि ईश्वर के साथ जोड़ने में सहायक नहीं हो पाई। जब-जब बुद्धि का साथ मिला, मार खानी पड़ी और जब-जब भावना का साथ मिला, जीवन में प्रगति हासिल हुई। यह साबित हो चुका है कि जीवन में जितने गुण होते हैं, वे भावना द्वारा जागृत किए जाते हैं, बुद्धि द्वारा नहीं। इसलिए भावना बुद्धि से आगे की बात है। ज्ञानयोगी इस दुनिया में अनेक हुए हैं। पर अंत में उन्हें बुद्धि का त्याग करना पड़ा। भावना को जीवन में स्थान देना पड़ा।

भावना के बल पर ही आगे बढ़ा जा सकता है। मिसाल के तौर पर अपने घर-परिवार में ही देख लीजिए कि बुद्धि की कद्र होती है या भावना की? हम अपने बच्चों को कहते हैं कि भाई-बहन के साथ प्रेमपूर्वक बर्ताव करो। उन्हें कभी नहीं कहते कि ज्ञानपूर्वक बर्ताव करो। मतलब साफ है कि हम अपने व्यक्तिगत जीवन में बुद्धि को नहीं, भावना को महत्व देते हैं।

मतलब यह कि पहला काम है अपने मन को समझना। मन में उत्पन्न होने वाले विकारों को समझना। मन के उथल-पुथल को जानना। इसके बाद ही मन को नियंत्रित करना संभव होगा और मन नियंत्रित होगा, तभी भावना को जीवन में स्थान देना संभव हो सकेगा। यह जीवन का महत्वपूर्ण सूत्र है, जिसे हमें जानना और सीखना चाहिए।  

भगवान नित्यानंद : गणेशपुरी के सिद्धयोगी

सिद्धयोग परंपरा के प्रेरणास्रोत, बीसवीं सदी के महान योगी गणेशपुरी के भगवान नित्यानंद में शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति के भीतर निष्क्रिय पड़ी दिव्य शक्ति को जगाने की क्षमता थी। वे अपने योग्य शिष्यों को शक्तिपात के जरिए कोलोकोपकार के लिए सहज ही सिद्ध बना देते थे। पर यह वैसा शक्तिपात नहीं था, जैसा कि आजकल ढोंगी बाबा पांच-पांच सौ रूपए में शक्तिपात करने का दावा करते रहते हैं। भगवान नित्यानंद अक्सर कहते थे कि जिस पर सिद्ध की कृपा होती है, वह भी सिद्ध हो जाता है। वास्तव में, गुरु कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि ईश्वरीय कृपा की दिव्य शक्ति है। इसलिए, वह स्वयं भगवान होता है और साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए आध्यात्मिक गुरु का रूप धारण करता है।

दुनिया भर में मशहूर सिद्धयोग परंपरा के महासमाधिलीन दो महान संतों भगवान नित्यानंद और उनके पट्ट शिष्य स्वामी मुक्तानंद को श्रद्धांजलि स्वरूप यह लेख प्रस्तुत है। अगस्त का महीना सिद्धयोग परंपरा के अनुयायियों के लिए खास होता है। इसी महीने में भगवान नित्यानंद का महासमाधि दिवस (8 अगस्त) होता है। स्वामी मुक्तानंद को अपने गुरू से शक्तिपात के जरिए सिद्धियां भी इसी महीने यानी 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुई थीं। वैसे भी जिस तरह स्वामी मुक्तानंद की आध्यात्मिक यात्रा की चर्चा भगवान नित्यानंद के बिना अधूरी रह जाती है, वैसे ही उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को ठीक तरह से समझने के लिए भी स्वामी मुक्तानंद के प्रसंगों का उल्लेख बेहतर होता है।

भगवान नित्यानंद की यौगिक अनुभूतियों पर आधारित सिद्धयोग के प्रवर्तक स्वामी मुक्तानंद ने आत्मकथा में अपने गुरू की शक्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है – “भगवान नित्यानंद भक्तों को अपने घरों में ही बैकुंठानुभूति करा देते थे। वे महापुरूष कृपामात्र से भक्त को योगी बनाते थे और कठिन साधना के बिना साधक को भक्तिसुख का पुजारी बनाते थे। कृपामात्र से ज्ञान-दृष्टि करा देते थे। प्रपंच में ही ब्रह्म दिखाते थे। नर-नारियों को परस्पर देवो भव: का मंत्र पढ़ाते थे। वे एक महान सिद्धलोक के वासी थे। पूर्ण सिद्ध थे। उनमें ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का संपूर्ण समन्वय था।“ सच है कि अपने गुरू के बारे में स्वामी मुक्तानंद ने जो कुछ कहा, उसके एक दो नहीं, बल्कि हजारों उदाहरण मिलते हैं।

एक प्रसंग तो भगवान नित्यानंद के व्यक्तिगत जीवन से ही जुड़ा हुआ है। पर पहले उनकी शैशवावस्था से लेकर आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत के दिनों की बात। उसी में अंतर्निहित है वह प्रसंग भी। कथा है कि सन् 1897 में एक तूफानी रात थी। सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। पेशे से वकील पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले ईश्वर अय्यर के घर काम करने वाली उन्नियाम्मा भी पूरी रफ्तार से घर चली जा रही थी। पर बीच रास्ते में घने जंगलों के पास अचानक उसके पांव थम गए। एक नवजात शिशु जमीन पर पड़ा था और कोबरा सांप फन फैलाए उसकी रखवाली कर रहा है। उन्नियाम्मा का वात्सल्य भाव जग गया। उधर, ऐसा लगा मानो सांप को उन्नियाम्मा की ही प्रतीक्षा थी। वह पीछ मुड़ा और जंगलों में विलीन हो गया। उन्नियाम्मा उस शिशु को सीने से लगाए घर पहुंच गई। उसका नाम रखा रमण और अपने बच्चों के साथ उसकी भी परवरिश करने लगी थी।

उस शिशु पर जब ईश्वर अय्यर की नजर गई तो वहीं ठहर गई। उन्हें इस बात का अहसास पहले से था कि जिस शिशु की रखवाली कोबरा सांप कर रहा हो, वह कोई सामान्य बालक नहीं हो सकता। उन्होंने उसे अपने पास रखकर शिक्षा दिलाने का फैसला किया। इसमें वे सफल भी रहे। वही रमण अपनी उच्च आध्यात्मिक साधनाओं के बाद भगवान नित्यानंद के रूप में मशहूर हुए। नित्यानंद नाम के साथ भी एक प्रसंग जुड़ा हुआ है। रमण उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वर अय्यर के साथ तीर्थयात्रा पर थे। पहाड़ों में अचानक रमण की आध्यात्मिक शक्तियां जागृत हो गईं। मन बदल गया। घर न लौटन की जिद पर अड़ गए। ईश्वर अय्यर रमण से अलग रहने की सोच भी नहीं सकते थे। पर रमण की तीब्र इच्छा को ध्यान में रखकर वे अकेले ही घर लौट गए। रमण ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे जब कभी याद करेंगे, वह उनके पास प्रस्तुत हो जाएगा।

थोड़े समय बाद ईश्वर अय्यर बीमार पड़े। भरोसा न रहा कि जीवित रह पाएंगे। ऐसे में रमण की एक झलक पाने तीब्र इच्छा हुई और चमत्कार हो गया। रमण उपस्थित हो गए। ईश्वर अय्यर सूर्य के उपासक थे। वे रमण की शक्ति भांप गए थे। लिहाजा अंतिम क्षण में साक्षात सूर्य के दर्शन कराने की इच्छा व्यक्त की। रमण ने तुरंत उनका कमरा अंदर से बंद कर लिया। बाहर खड़े लोगों ने अनुभव किया कि ईश्वर अय्यर का कमरा अकल्पनीय प्रकाश से भरा हुआ है। दरअसल, साक्षात् सूर्य अपने भक्त ईश्वर अय्यर को दर्शन दे रहे थे। अंतिम इच्छा पूरी होने के बाद अय्यर के मुंह से सहसा निकल गया – “तुमने मुझे ब्रह्मानंद दिया है। आज से तुम्हारा नाम नित्यानंद है।“

भगवान नित्यानंद और उनके शिष्य स्वामी मुक्तानंद का भले भौतिक शरीर नहीं हैं। पर उनकी अलौकिक शक्तियों, उनकी सूक्ष्म ऊर्जा के प्रवाह को मुंबई से कोई 80 किमी दूर ठाणे जिले के गणेशपुरी स्थित सिद्धपीठ जाने वाले या रहने वाले शिद्दत से महसूस करते हैं। यही स्थल दोनों संतों की तपोभूमि है। भगवान नित्यानंद ने इसी स्थान पर शक्तिपात करके स्वामी मुक्तानंद को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। मौजूदा समय में गुरूमाई चिद्विलासानंद पीठाधीश्वर हैं। सिद्ध गुरूओं से प्रदत्त आध्यत्मिक शक्तियां भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सिद्धयोग परंपरा को पल्लवित-पुष्पित करने में मददगार है। सच तो यह है कि भक्ति, श्रद्धा और प्रेम ने गणेशपुरी को धरती पर स्वर्ग बना दिया है। सिद्धयोग स्वामी मुक्तानंद द्वारा स्थापित एक आध्यात्मिक मार्ग है। इस मार्ग में पराशक्तिमयी श्रीकुंडलिनी महाविद्या को सिद्धविद्या कहा जाता है और साधक सिद्ध विद्यार्थी कहलाते हैं। सिद्धपीठ में दी गई कुंडलिनी दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है। हंस गायत्री व हंस प्रणव इसके जपमंत्र हैं। प्राण-अपान द्वारा हंसानुसंधान ही इस मार्ग का प्राणायाम है।

निसंदेह भगवान नित्यानंद उच्चकोटि के अवधूत थे। भक्तगण उन्हें बाबा कहकर पुकारते थे। ईश्वर अय्यर के देवलोक गमन के बाद और गणेशपुरी में साधना प्रारंभ करने से पहले सन् 1920 से लेकर सात वर्षों तक उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में साधना की थी। इस दौरान अक्सर मौन रहते थे। वे न सत्संग करते थे और न ही कुछ लिखते-पढ़ते थे। पर कभी-कभी ध्यान की अवस्था में अपने भक्तों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कुछ बोल जाते थे। उनकी एक शिष्या थीं साध्वी तुलसी अम्मा। उन्हें इसी मौके का इंतजार होता था। बाबा जैसे ही कुछ बोलते, तुलसी अम्मा उसे कन्नड भाषा में लिपिबद्ध कर लेती थीं। यह संकलन “चिदाकाश गीता” नाम से मशहूर हुआ। उसमें वेदांत दर्शन का सार है। भाषा सरल है। जैसे, बारिश को माया और छाते के हैंडल को चित्त बताकर दोनों ही गूढ़ बातों की सहज व्याख्या कर दी गई है। मान्यता है कि सिद्धयोग परंपरा के दोनों समाधिस्थ गुरू आज भी अपने भक्तों पर सदैव चिरशांति औऱ नित्यतृप्ति प्रदान करते रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

स्वामी चिन्मयानन्द हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने देश भर में भ्रमण करते हुए देखा कि लोगों में किस तरह धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हुई हैं। उन्होंने उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, चिन्मय मिशन आंदोलन के प्रेरणा-स्रोत और वैदिक ज्ञान को जनमानस तक पहुंचाने वाले स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती को उनके निर्वाण दिवस पर नमन। वेदांत दर्शन के इस महान प्रवक्ता ने सन् 1993 में 3 अगस्त को अमेरिका की धरती पर भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर अपने जीवनकाल में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। इस लेख में श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए प्रसंगो की चर्चा करने की कोशिश है। पहले बात बिहार योग विद्यालय से जुड़े एक प्रसंग से।

सन् 1993 के नवंबर माह में बिहार के मुंगेर में विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसमें स्वामी चिन्मयानंद को अनिवार्य रूप से भाग लेना था। उनकी दिली इच्छा थी। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि मुंगेर में हर बीस वर्ष पर आयोजित होने वाला विश्व योग सम्मेलन अद्वितीय होता है। इसलिए देश-विदेश के आध्यात्मिक नेताओं को इसमें भाग लेने की सहज इच्छा रहती है। पर स्वामी चिन्मयानंद के लिए दूसरा कारण भी कम महत्व का नहीं था। विश्व योग सम्मेलन का आयोजक बिहार योग विद्यालय था और इसके संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती उनके प्रिय गुरू भाई थे।

कालचक्र ऐसा घूमा, परिस्थितियां ऐसी बनी कि वे विश्व योग सम्मेलन में भाग न ले सके थे। सम्मेलन से दो-ढ़ाई महीने पहले ही भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर विश्व योग सम्मेलन में उनकी सूक्ष्म उपस्थिति शिद्दत से महसूस की गई थी। स्मारिका के लिए भेजे गए उनके संदेश ने सबका ध्यान आकृष्ट किया। साथ ही यह भी पता चला कि उनके मन में अपने गुरू भाई के लिए सम्मान कितना था और यूं ही नहीं था। उन्होंने लिखा था – “परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती आधुनिक युग के महर्षि पतंजलि हैं।“

स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती स्वामी सत्यानंद सरस्वती से उम्र में बड़े थे। उनका जन्म 8 मई 1916 को केरल राज्य के एरनाकुलम में हुआ था, जबकि स्वामी सत्यानंद का जन्म 24 दिसम्बर 1923 को अल्मोड़ा में हुआ था। गुरू आश्रम में दोनों ने एक तरह की शिक्षा पाई थी। पर गुरू की प्रेरणा से स्वामी सत्यानंद योग के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे। वहीं स्वामी चिन्मयानंद वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुट गए थे।

स्वामी चिन्मयानंद जी में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने।

उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई।

इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए थे।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ।

एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। एक बार ज्ञान यज्ञ के दौरान बत्ती बुझ गई थी। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी है, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है श्रीमद्भगवत गीता

तमिलनाडु के त्रिचि में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।

युवाओं और विद्यार्थियों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता की महत्ता के बारे में तो हमारे वैज्ञानिक संत सदियों से बतलाते रहे हैं। आधुनिक युग में विज्ञान भी विभिन्न प्रयोगों के जरिए इस निष्कर्ष पर है कि तेजी से अवसाद के शिकंजे में फंसती युवापीढ़ी को श्रीमद्भगवद् गीता का ज्ञान ही उस भंवर से निकालने में सक्षम है। ऐसे में दक्षिण के महान आध्यात्मिक नेता स्वामी चिद्भवानंद जी का युवाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया श्रीमद्भगवद् गीता का भाष्य समयानुकूल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस भाष्य के किंडल संस्करण का लोकापर्ण करते हुए ठीक ही कहा कि महाभारतकालीन स्थितियां और परिस्थितियां भले भिन्न थीं। पर परिणाम एक जैसे हैं। मानवता संघर्षों और चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे समय में श्रीमद्भगवद् गीता में दिखाया गया मार्ग प्रासंगिक हो जाता है।

तमिलनाडु के त्रिचि जिले में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। कर्मयोगी थे। अपने गुरू स्वामी शिवानंद की प्रेरणा से तमिलों को वैदिक ज्ञान से अवगत कराने और राज्य के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए अतुलनीय कार्य किया था। तमिलनाडु में आज भी उनके 18 आश्रमों के जरिए 80 शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग उम्र के लोगों को ध्यान में रखकर श्रीमद्भगवत गीता का बेहद शक्तिशाली भाष्य लिखा।

किंडल फार्मेट में जारी किए गए श्रीमद्भगवत गीता में बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है कि जब जीवन का पथ काले घने बादलों से अदृश्य-सा प्रतीत हो रहा होता है तब भी जीवन में नई ऊर्जा के संचार के तत्व मौजूद होते हैं और उन्हें आत्मसात करके भवसागर को पार किया जा सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के आलोक में उनकी यह बात संदेह से परे है। कल्पना कीजिए यदि अर्जुन को रणभूमि में विषाद न हुआ होता तो शक्तिशाली गीता का ज्ञान मिला होता, जो उसे ही नहीं, बल्कि सदियों से मानव जाति की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। सच कहिए तो श्रीमद्भगवत गीता ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है। यह महज ग्रंथ नहीं, बल्कि मनुष्य के नित्य जीवन को व्यवस्थित करने वाला पथ-प्रदर्शिका है। इसका मार्ग सरल है। हर उम्र, हर वर्ग के लोगों के लिए सहज ग्राह्य है। इसलिए इससे प्रेरणा लेकर कर्मयोग के जरिए चित्त-शुद्धि का द्वार खोला जाना चाहिए। जीवन के सारे बंद दरवाजे स्वत: खुलने लगेंगे।

पश्चिमी दुनिया में योग के पितामह माने जाने वाले परमहंस योगानंद ने कोई एक सौ साल पहले आज जैसी परिस्थितियों के शिकार युवाओं को संबोधित करते हुए साफ-साफ कहा था कि विकल्प नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को कुरूक्षेत्र की अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है। यह युद्ध मात्र जीतने के योग्य ही नहीं, अपितु विश्व के दिव्य नियम और आत्मा व परमात्मा के शाश्वत संबंध में है। यह एक ऐसा युद्ध है, जिसे कभी तो जीतना ही होगा। श्रीमदभगवत् गीता में इस जीत की शीघ्रतम प्राप्ति उस भक्त के लिए सुनिश्चित की गई है जो बिना हतोत्साहित हुए ध्यान-योग के दिव्य विज्ञान के अभ्यास द्वारा परमात्मा के भीतरी ज्ञान-गीत को अर्जुन की भांति सुनना सीखता है।

पर मन में उपद्रव है तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ जा सकता है? और यदि ऐसी स्थिति पाना संभव न हो तो धारणा और ध्यान का अभ्यास कैसे फलित होगा? इस संदर्भ में प्रश्नोपनिषद् का एक प्रसंग ध्यान देने योग्य है। कात्यायन ऋषि के प्रपौत्र कबंधी महर्षि पिप्पलाद के समक्ष इस विश्वास के साथ गए थे कि वे उनके मार्ग की तमाम बाधाएं दूर कर देंगे। पर उन्होंने महर्षि पतंजलि की भाषा में कहें तो पहले यम और नियम का पालन करने का आदेश देते हुए कहा कि इसके बिना उनके सवाल का जबाव नहीं मिल पाएगा। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस बात को बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है। वे कहते हैं कि यम – नियम योग का आधार है और कर्मयोग गीता का महान संदेश। विक्षिप्त और बिखरावपूर्ण मानसिकता को कर्मयोग के अभ्यास के जरिए ही अवक्रमित किया जा सकता है। पर इसके पहले हमें अपनी ऊर्जा को संतुलित करना होगा। अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को व्यवस्थित करना होगा। साथ ही अपने ऊपर थोड़ा संयम का अंकुश रखना होगा। ऐसी स्थितियों को प्राप्त करना यम-नियम का पालन करके ही संभव है। कर्मयोग भी तभी फलित होगा।

यह निर्विवाद है कि कर्मयोग जीवन पद्धति बन जाने पर आदमी बहुत हद तक सुख-दु:ख में समभाव बना रहता है। इससे चेतना का बेहतर विकास होता है। यदि संस्कारों का क्षय हुआ तो चमत्कार भी हो जाता है। इसे इस तरह समझिए। चैतन्य महाप्रभु दक्षिण में तीर्थ-यात्रा पर थे तो देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है और पास ही बैठा एक आदमी रोए जा रहा है। उन्होंने रोते हुए व्यक्ति से पूछा,” रो क्यों रहे हो?” उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिया, वह असामान्य था, आंखें खोलने वाला था। उसने कहा, “यह दु:ख के नहीं, सुख के आंसू हैं। मैं देख रहा हूं कि अर्जुन का रथ है। उसके सामने भगवान और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हैं। भगवान का साक्षात दर्शन हो रहा है।“ शायद इसलिए आध्यात्मिक गुरू कहते रहे हैं कि गीता केवल किताब से नहीं पढ़ी जाती। आसक्ति दूर होने और श्रद्धा की प्रबलता होने पर मन के पार किए गए इशारे, उसके वास्तविक आशय समझ में आने लगते हैं।

स्वामी चिद्भवानंद जी के भाष्य में भी संकटकाल में जीवन में नई ऊर्जा के संचार के लिए कोई न कोई तत्व भी मौजूद रहने की बात का आशय भी योग की इन विधियों को अपना कर भवसागर को पार करने से ही है। उनके भाष्य में अनियंत्रित मन के कुप्रभावों और मन का स्वामी बनने के सरल उपाय सुझाए गए हैं। उस पुस्तक पर मनन और तदनुरूप कर्म अवसादग्रस्त युवाओं खासतौर से विद्यार्थियों का जीवन बदल देने में सक्षम है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, विवादों से कहां दबती

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) का विवादों से नाता पुराना है। पश्चिमी देशों में बीते चार सालों से एक बार फिर मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर शायद पहली बार है कि भारत में किसी शंकराचार्य ने इस्कॉन को घेरा है। शंकराचार्य स्वरूपानंद के मुताबिक इस्कॉन के मंदिरों की कमाई अमेरिका भेजी जा रही है, क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है। यह विवाद ऐसे समय में छिड़ा हुआ है जब एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की 124वीं जयंती पर इस्कॉन परिवार जश्न के मूड में है।  

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। यह आलम तब है, जब इस अभियान को नेतृत्व देने के लिए श्रील स्वामी प्रभुपाद जैसा अलौकित शक्ति वाला ऊर्जावान आध्यात्मिक नेता नहीं है। दूसरी तरफ पश्चिमी जगत का मीडिया लगातार हमलावर बना रहता है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

Shril Prabhupada

श्रीकृष्णभावनामृत ही मौलिक चेतना है। अवांछनीय उपाधियों से आवृत्त चेतना को स्वच्छ करना होगा। ऐसा होते ही चेतना श्रीकृष्णभावनामृत में परिणत हो जाएगा। यह भक्ति मार्ग है। कलियुग में यही श्रेष्ठ है।

चार साल पहले सन् 2016 में जब इस्कॉन की स्वर्ण जयंती दुनिया भर में भव्यता के साथ मनाई जा रही थी तो पश्चिम का मीडिया यह बताने में जुटा हुआ था कि इस्कॉन किस तरह अपना असर खो रहा है और श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान बेहद कमजोर हो चुका है। इसके साथ ही लिंगभेद की अनेक कहानियां उछाली गई थीं। वह सिलसिला अब भी जारी है। पर इन सब से अप्रभावित श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान अपने मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिकता मनवाने में सफल होता दिख रहा है। इस लेख में इन तमाम बातों विस्तार दिया जाएगा। पर पहले श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान के प्रणेता और इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की बात। उन्होंने यदि अपना भौतिक शरीर न छोड़ा होता तो 1896 में कलकत्ता में जन्में श्रील प्रभुपाद 1 सितंबर को 124 वर्ष के हो गए होतें। 

भक्त के अद्भुत भाव: श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में गरूड़स्तंभ के पास खड़े होकर बड़ी तन्मयता से आरती गा रहे थे। एक स्थनीय महिला भी भगवान के दर्शन करना चाहती थी। पर भीड़ इतनी कि जगह नहीं मिल पा रही थी। उसने तरकीब निकाली। गरूड़स्तंभ पर चढ़ गई और एक पांव चैतन्य महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी। बाकी भक्तों की आपत्ति पर उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह तुरंत नीचे उतर गई और महाप्रभु के चरण पकड़ लिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा – अरे, तुम यह क्या कर रही हो? मुझे तो तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्तिभाव मैं भी प्राप्त कर सकूं।

कोई व्यक्ति 69 साल की उम्र में समुद्री मार्ग से अमेरिका जाए और एक मलिन बस्ती में अनजान लोगों और क्राइस्ट को मामने वाले लोगों के बीच अपनी जगह बनाकर अपने श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान को जनांदोलन जैसा बना दे, यह फिल्मों में तो संभव है। पर व्यवहार रूप में भी ऐसा ही होना कम हैरान करने वाली बात नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने अपने अदम्य साहस और अलौकिक प्रतिभा की बदौलत असंभव को संभव कर दिखाया था। वे 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। ऐसे में श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे।

नदिया में राजा कृष्णानंद दत्त के 7वें पुत्र केदारनाथ दत्त अपनी अलौकिक शक्ति के कारण श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रूप में ख्यात हुए। उन्होंने संकीर्तन आंदोलन के अद्वितीय महत्व को समझा और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पुनर्जीवित किया।

श्रील प्रभुपाद को अभियान के शुरूआती दिनों में एक तरफ श्रीकृष्ण और हिंदू धर्म के बीच के संबंधों पर सफाई देनी होती थी तो दूसरी तरफ आत्मा-परमात्मा पर शास्त्रार्थ करना होता था। बाद के दिनों में उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था। श्रील प्रभुपाद श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्य थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आधुनिक युग में श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है। वे सरकारी सेवक थे। पर श्रीकृष्ण और उनके उपासक श्रीचैतन्य महाप्रभु से बेहद प्रभावित थे। वे उनके भक्ति आंदोलन को बढ़ाने के लिए इस तरह ब्याकुल रहते थे, मानों उनका जन्म इसी काम के लिए हुआ हो। 

दैवीय शक्ति वाले भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र और श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के गुरू थे। कथा है कि जब वे शैशवावस्था में थे तो रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनके घर के सामने तब तक रूका रहा जब तक कि उन्हें दर्शन नहीं करा दिया गया था।

उनकी पदस्थापना डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में जगन्नपुरी में हुई तो मंदिर की सेवा में जुट गए थे। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को गति देना चाहते थे। पर अकेले इस काम को कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। एक दिन उन्हें कुछ आभास हुआ और वे जगन्नाथ मंदिर में अवस्थित विमला देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत होकर अलौकिक शक्ति वाले पुत्र की इच्छा व्यक्त कर दी। बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद यानी 6 फरवरी 1874 को उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम विमला देवी के नाम पर विमला प्रसाद रख दिया। कुछ समय बाद एक चमत्कार हुआ। जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो रथ अपने आप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (तब उन्हें केदारनाथ दत्त के नाम से जाना जाता था) के घर के सामने रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया कि रथ आगे बढ़ क्यों नहीं रहा है। पर बात नहीं बनी थी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को कुछ आभास हुआ। उन्होंने अपने नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी दुनिया को कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए वृद्धावस्था में अमेरिका कूच कर गए थे।

श्रील प्रभुपाद के बेहतरीन ग्रंथों की वजह से श्रीकृष्णभावनामृत अभियान को काफी बल मिला था। सच कहिए तो उन ग्रंथों ने उत्प्रेरक का काम किया था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों के अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

Biggest iskon temple of Delhi - Reviews, Photos - ISKCON Temple Delhi -  Tripadvisor

इस्कॉन मंदिर, नई दि्ल्ली, जहां प्रतिदिन एक-दो-तीन हजार नहीं, पूरे डेढ़ लाख लोगों का खाना बन रहा है। वह भी तेल नहीं, गाय के शुद्ध घी से। दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन सात विधानसभा क्षेत्रों के निवासी डेढ़ लाख लोगों का पेट भर रहा है

आजतक, न्यूज चैनल

परमहंस योगानंद अमेरिकी नागरिकों को बताते थे कि जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज के भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल। आदि आदि।

जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज को भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल।

परमहंस योगानंद

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे। श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

यौगिक परंपरा में कहा गया है कि हठयोग और राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना मंत्र योग के प्रयोग से चक्रों औऱ कुंडलिनी को जागृत करना संभव है।

श्रील प्रभुपाद अमेरिका के लोगों को समझातें कि यह भ्रांति दूर होनी चाहिए कि गीता में जाति की बात भी है। श्रीमद्भगवत गीता में समाज के चार वर्णों की परिभाषा दी गई है। वे हैं – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र। मनुष्य की योग्यताओं के मुताबिक उनके वर्ण बतलाए गए हैं। जाति की बात कहीं नहीं है। श्रीकृष्णभावनामृत अभियान स्त्रियों और पुरूषों के बीच समानता की वकालत करता है। लिंगभेद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यहां तक कहना पड़ता था – “मैं यह शरीर नहीं हूं, मै भारतीय नहीं हूं….आपलोग अमेरिकन नहीं हैं…हम सब आत्मा हैं।“ पर जब उन्होंने 1968 में मैसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के छात्रों को संबोधित किया तो उनकी वैज्ञानिक बातों के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने अपने संबोधन में सवाल किया था – यद्यपि आपके पास ज्ञान के अनेकानेक विभाग हैं। पर एक मृत एवं जीवित शरीर में अंतर की खोज करने के उद्देश्य पर आधारित विभाग कहां है? फिर जबाव का प्रतीक्षा किए बिना बोलते गए थे – आधुनिक विज्ञान यद्यपि देह की यांत्रिक कार्य-प्रणाली को समझने में विकसित हो चुका है। पर वह देह को सजीव रखने वाले चिन्मय स्फुलिग (आत्मा) के विषय में अध्ययन करने के लिए बहुत कम ध्यान देता है। जबकि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इसके पक्ष में कई वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किए थे।

जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो एक घर के सामने रथ रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया। पर बात नहीं बनी थी। एक नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन के विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और भी जगहों पर महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन साबित हो रही हैं और इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। स्वामी प्रभुपाद की कोशिशों के कारण मात्र दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय पूरे विश्व में करीब  400 इस्कॉन मंदिर हैं। श्रील प्रभुपाद और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को मुकाम दिलाने वाले अन्य सिद्ध संतों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

श्रीकृष्ण की बांसुरी, गोपियां और स्वामी सत्यानंद की दिव्य-दृष्टि

रासलीला, श्रीकृष्ण की बांसुरी, उसकी सुमधुर धुन और गोपियां…. इस प्रसंग में बीती शताब्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की व्याख्या एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह शास्त्रसम्मत है, विज्ञानसम्मत भी है।

जन्माष्टमी के मौके पर विशेष तौर से ज्ञान मार्ग के लोगों के लिए एक प्रेरक कथा। परमगुरू और कोई सौ से ज्यादा देशों में विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी बिहार योग पद्धति के जन्मदाता परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के श्रीमुख से सत्संग के दौरान अनेक भक्तों ने यह कथा सुनी होगी। फिर भी यह सर्वकालिक है। प्रासंगिक है।  

श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। कथा है कि उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? उन सबसे रह न गया तो एक दिन सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें आखिर ऐसी क्या बात है कि भगवान तुम्हें दिन-रात अपने पास रखते हैं और तुम उनकी पटरानी की तरह साथ-साथ रहती हो? तुम तो जंगली और सूखे बांस से बनी हो, जिसका न तो कोई रंग, न रूप और न अन्य कोई आकर्षण। फिर तुमने ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है कि भगवान तुम्हें अपने श्रीमुख से लगाते हैं तो तुमसे ऐसी सुमधुर आवाज निकलती है कि मोर पागलों की तरह नाचने लगते हैं। पहाड़ों में अजीब शांति छा जाती है। जीव-जंतु मूर्तिवत हो जाते हैं। तुमसे निकली सुरीली धुन से हम गोपियां भी सुध-बुध खो बैठती हैं और पागलों की तरह कृष्ण से मिलने दौड़ पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि तुम बांसुरी नहीं, जादू की छड़ी हो।

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उससे इतनी सुरीली आवाज कैसे निकलती है कि गोपियों के मन में इतने सारे सवाल चल रहे हैं। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“  मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है। इसलिए आपलोग भी अपने वैभव, अपनी सुंदरता व विद्वता के अभिमान से मुक्त होकर अपने को खाली कर दें तो भगवान दिव्य प्रेम से भर देंगे।“

श्री स्वामी जी कहते थे – श्रीकृष्ण की रासलीला वाली बात हम सबको पता है। कथा है कि श्रीकृष्ण आधी रात को जंगल में जा कर जब बांसुरी बजाने लगे तो उस बांसुरी की मधुर धुन सुनकर गोपिकाएं मदहोश हो गईं। जो जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में जंगल की तरफ दौड़ पड़ीं और बांसुरी की सुरीली धुन पर नाचने लगी थीं। इस प्रसंग को इस तरह समझना चाहिए और यही शास्त्रसम्मत है, यही विज्ञानसम्मत भी है। यह शरीर भी सूक्ष्म रूप से कृष्ण की वंशी ही है। उसकी सुमधुर आवाज आत्मा है। इंद्रियों को वश में कर लेना गोपियां हैं। गो मतलब इंद्रिय और पी मतलब उसे पी जाना। अर्थात कृष्ण की मुरली के धुन पर गोपियों के खींचे चले आने से अभिप्राय है आत्मा की आवाज पर इंद्रियों का वश में हो जाना। योग साधक जब साधना में लीन होता है, ध्यानमग्न होता है तो उसकी अंतर्रात्मा की आवाज से इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं और झूमने लगती हैं, नाचने लगती हैं। यानी वे वश में आ जाती हैं। आत्मा में लीन हो जाती हैं। यही योग की पूर्णता है, यही भक्ति की पराकाष्ठा है, यही मनुष्य के जीवन का पूर्णत्व है। रासलीला का अभिप्राय यही है।“

भक्ति योग और रामायण के यौगिक संदेश

भारत के योगियों औऱ संत-महात्माओं ने श्रीराम की शिक्षाओं को दो अलग-अलग संदर्भों में देखा है। एक है भक्ति मार्ग और दूसरा है भक्ति योग। भारतीय चिंतन परंपरा में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। श्रीमद्भागवत के मुताबिक भक्ति मार्ग नवधा भक्ति है। इसके मुताबिक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन और वंदन ये छह विधियां हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति दिव्यता के स्रोत से जुड़ पाता है। अपने अराध्य के साथ आंतरिक संबंध विकसति करता है। इसका अनुभव सातवें और आठवें चरण में होता है और नवें चरण में पूर्ण आत्म-समर्पण सिद्ध होता है। भक्ति योग इससे बिल्कुल अलग है। इसके तहत भावनाओं का अवलोकन, दिशांतरण और परिष्कार किया जाता है।

प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण  के लिए आयोजित भूमिपूजन अनुष्ठान के बाद अपने संबोधन में मर्यादा पुरूषोत्तम राम से प्रेऱणा लेने संबंधी युवाओं से जो अपील की, उसे आध्यात्मिक आलोक में देखा जाए तो गहरे अर्थ हैं और वे भक्ति योग की बातें हैं। पिछली शताब्दी के महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती श्रीराम और रामायण के यौगिक संदेशों पर विस्तार से संदेश देते रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, राम का जीवन और रामायण की बातें पग-पग पर हमारे जीवन की विषमता और कटुता, युद्ध और भय, मृत्यु और जीवन के प्रति सतर्क करती रही हैं। रामायण का एक ही संदेश है – जागते रहो।

संकेतों को पकड़े तो समझना आसान होगा कि हमारे अंदर जो आत्मा, आत्म-स्फूर्ति और आत्म-शक्ति है, वही राम है। सीता बुद्धि और शास्त्रोक्त ज्ञान एवं तर्कशीलता की प्रतीक हैं। रावण के दस सिर जीव की दस इंद्रियों के प्रतीक हैं। रावण का निवास जिस तरह सोने की लंका में था, हमारी आत्मा भी भौतिक शरीर में सूक्ष्म रूप से उसी तरह रहती है। असंख्य रानियों के बावजूद रावण में पर स्त्री की कामना बनी रहती थी। यह इस बात का द्योतक है कि इंद्रियों की भोग-तृप्ति की कोई सीमा नहीं है। मेघनाद मन है और सतर्कता और ब्रह्मचर्य लक्ष्मण हैं।

अयोध्या को आत्म-निकेतन कहना चाहिए। श्रीराम अध्योध्या से निकल कर जिस तरह वनगमन करते हैं, उसी तरह आत्मा अपने आत्म-निकेतन से निकल कर संसार वन में भटकती है। इस संसार वन में हमारे अंदर के तुच्छ विचार, तामसी प्रवृत्तियां ही खरदूषण और मरीच की तरह हम पर आक्रमण करती है। श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण को गुफा में भेजकर इन राक्षसों को अकेले ही मारा था। इस प्रसंग से सीख मिलती है कि हमें आपात् स्थिति में तर्क-वितर्क में फंसकर आत्मबल का सहारा लेना चाहिए। रावण इंद्रियों का प्रतीक है तो मारीच इच्छा का प्रतीक है। तभी मारीच रावण के बहकावे में आ जाता है।

राम सीता के वियोग में वन में शोकाकुल होकर भटकते हैं। इसका संदेश यह है कि जब आत्मा का ज्ञान और बुद्धि से संपर्क टूट जाता है तो आत्मा जगह-जगह ठोकरें खाती फिरती है। ऐसे में आत्मा को सत्संग और भक्ति का सहारा लेना होता है। समुद्र में सेतुबंध सत्संग का औऱ हनुमान का साथ भक्ति का प्रतीक है। इंद्रियों की पराजय का अनूठा उदाहरण रावण के दरबार में देखने को मिलता है, जब अंगद रावण को चुनौती देते हैं कि दरबार को कोई उसका पैर उठा दे तो राम पराजय मान लेंगे। पर अंगद के पांव शक्तिशाली रावण सहित कोई न उठा पाया। मतलब यह कि अंगद के आत्मबल के आगे दुष्प्रवृत्तियों (राक्षसों) की अगुआई करने वाली इंद्रियां (रावण) तक पराजित हो जाती हैं।

रावण का भाई कुंभकर्ण आलस्य और शोषण का प्रतीक है। आलस्य के नाश के लिए आत्मबल की जरूरत होती है। श्रीराम के आत्मबल से कुंभकर्ण मारा जाता है। उधर रावण का पुत्र मेघनाद मन की दूषित भावनाओं और कुटिलता का प्रतीक है। ये दोनों ही बातें इतनी बलशाली होती हैं कि कई बार सतर्कता और साधना को भी मात दे देती हैं। तभी मेघनाद का वाण लक्ष्मण को लग जाता है। तब ब्रह्मचर्य का तेज और संयम का चमत्कार दिखता है। हनुमान जी अपनी इन शक्तियों से मन की कुटिलताओं को पराजित कर देते हैं।

रावण इंद्रियों का प्रतीक है और आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि दमन करके इंद्रियों का नाश आसान नहीं है। तभी जब-जब रावण के सिर काटे जाते थे, वे उभर आते थे। खून की एक-एक बूंद से रावण उत्पन्न हो जाता था। ऐसे ही समय में आते हैं विभीषण, जो सद्विवेक और सद्वृत्तियों के प्रतीक हैं। इंद्रियों के बोझ से दबी सद्वृत्तियों का साक्षात्कार आत्मबल औऱ आत्म-दृढ़ता से होता है तो दुष्प्रवृत्तियों के विनाश का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसलिए श्रीराम रावण की नाभि से जैसे ही अमृत रूपी वासना और लिप्सा को खींचते हैं, रावण का अंत हो जाता है। इस तरह हमें ज्ञात होता है कि इंद्रियों और दुष्प्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न की गईं बाधाओं को किस तरह कुचल कर आत्मा के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

श्रीराम के जीवन पर आधारित रामायण में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनसे हमें आदर्श जीवन जीने के संदेश मिलते हैं। श्रीराम के मजूबत यौगिक संदेशों का असर ही है कि गांव-गांव में जिन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं है, वे भी रामायण की चौपाइयां बेधड़क बोलते हैं और उसके मायने भी बताते हैं। पांडवानी लोक गायिकों और गायिकाओं के मामले में भी यही बात लागू है। उनके बीच रामायण बेहद लोकप्रिय है, जबकि उनमें से ज्यादातर पढ़ना-लिखना नहीं जानतें। श्री राम के आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं।   

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, भक्ति योग के तहत श्रीराम के यौगिक मार्म का अनुसरण करने से हृदय की प्रतिभाओं का विकास होता है। स्वयं को इस मार्ग पर स्थापित कर लेने के बाद भावनाएं अंतरात्मा की खोज में दिशांतरित हो जाती हैं। ऐसे में जब अंतरात्मा से साक्षात्कार होगा तो समझ में आ जाएगा कि जीवात्मा परमात्मा का ही प्रतिबिंब है और यही भक्ति की परिणति है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

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