भगवान नित्यानंद : गणेशपुरी के सिद्धयोगी

सिद्धयोग परंपरा के प्रेरणास्रोत, बीसवीं सदी के महान योगी गणेशपुरी के भगवान नित्यानंद में शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति के भीतर निष्क्रिय पड़ी दिव्य शक्ति को जगाने की क्षमता थी। वे अपने योग्य शिष्यों को शक्तिपात के जरिए कोलोकोपकार के लिए सहज ही सिद्ध बना देते थे। पर यह वैसा शक्तिपात नहीं था, जैसा कि आजकल ढोंगी बाबा पांच-पांच सौ रूपए में शक्तिपात करने का दावा करते रहते हैं। भगवान नित्यानंद अक्सर कहते थे कि जिस पर सिद्ध की कृपा होती है, वह भी सिद्ध हो जाता है। वास्तव में, गुरु कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि ईश्वरीय कृपा की दिव्य शक्ति है। इसलिए, वह स्वयं भगवान होता है और साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए आध्यात्मिक गुरु का रूप धारण करता है।

दुनिया भर में मशहूर सिद्धयोग परंपरा के महासमाधिलीन दो महान संतों भगवान नित्यानंद और उनके पट्ट शिष्य स्वामी मुक्तानंद को श्रद्धांजलि स्वरूप यह लेख प्रस्तुत है। अगस्त का महीना सिद्धयोग परंपरा के अनुयायियों के लिए खास होता है। इसी महीने में भगवान नित्यानंद का महासमाधि दिवस (8 अगस्त) होता है। स्वामी मुक्तानंद को अपने गुरू से शक्तिपात के जरिए सिद्धियां भी इसी महीने यानी 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुई थीं। वैसे भी जिस तरह स्वामी मुक्तानंद की आध्यात्मिक यात्रा की चर्चा भगवान नित्यानंद के बिना अधूरी रह जाती है, वैसे ही उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को ठीक तरह से समझने के लिए भी स्वामी मुक्तानंद के प्रसंगों का उल्लेख बेहतर होता है।

भगवान नित्यानंद की यौगिक अनुभूतियों पर आधारित सिद्धयोग के प्रवर्तक स्वामी मुक्तानंद ने आत्मकथा में अपने गुरू की शक्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है – “भगवान नित्यानंद भक्तों को अपने घरों में ही बैकुंठानुभूति करा देते थे। वे महापुरूष कृपामात्र से भक्त को योगी बनाते थे और कठिन साधना के बिना साधक को भक्तिसुख का पुजारी बनाते थे। कृपामात्र से ज्ञान-दृष्टि करा देते थे। प्रपंच में ही ब्रह्म दिखाते थे। नर-नारियों को परस्पर देवो भव: का मंत्र पढ़ाते थे। वे एक महान सिद्धलोक के वासी थे। पूर्ण सिद्ध थे। उनमें ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का संपूर्ण समन्वय था।“ सच है कि अपने गुरू के बारे में स्वामी मुक्तानंद ने जो कुछ कहा, उसके एक दो नहीं, बल्कि हजारों उदाहरण मिलते हैं।

एक प्रसंग तो भगवान नित्यानंद के व्यक्तिगत जीवन से ही जुड़ा हुआ है। पर पहले उनकी शैशवावस्था से लेकर आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत के दिनों की बात। उसी में अंतर्निहित है वह प्रसंग भी। कथा है कि सन् 1897 में एक तूफानी रात थी। सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। पेशे से वकील पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले ईश्वर अय्यर के घर काम करने वाली उन्नियाम्मा भी पूरी रफ्तार से घर चली जा रही थी। पर बीच रास्ते में घने जंगलों के पास अचानक उसके पांव थम गए। एक नवजात शिशु जमीन पर पड़ा था और कोबरा सांप फन फैलाए उसकी रखवाली कर रहा है। उन्नियाम्मा का वात्सल्य भाव जग गया। उधर, ऐसा लगा मानो सांप को उन्नियाम्मा की ही प्रतीक्षा थी। वह पीछ मुड़ा और जंगलों में विलीन हो गया। उन्नियाम्मा उस शिशु को सीने से लगाए घर पहुंच गई। उसका नाम रखा रमण और अपने बच्चों के साथ उसकी भी परवरिश करने लगी थी।

उस शिशु पर जब ईश्वर अय्यर की नजर गई तो वहीं ठहर गई। उन्हें इस बात का अहसास पहले से था कि जिस शिशु की रखवाली कोबरा सांप कर रहा हो, वह कोई सामान्य बालक नहीं हो सकता। उन्होंने उसे अपने पास रखकर शिक्षा दिलाने का फैसला किया। इसमें वे सफल भी रहे। वही रमण अपनी उच्च आध्यात्मिक साधनाओं के बाद भगवान नित्यानंद के रूप में मशहूर हुए। नित्यानंद नाम के साथ भी एक प्रसंग जुड़ा हुआ है। रमण उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वर अय्यर के साथ तीर्थयात्रा पर थे। पहाड़ों में अचानक रमण की आध्यात्मिक शक्तियां जागृत हो गईं। मन बदल गया। घर न लौटन की जिद पर अड़ गए। ईश्वर अय्यर रमण से अलग रहने की सोच भी नहीं सकते थे। पर रमण की तीब्र इच्छा को ध्यान में रखकर वे अकेले ही घर लौट गए। रमण ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे जब कभी याद करेंगे, वह उनके पास प्रस्तुत हो जाएगा।

थोड़े समय बाद ईश्वर अय्यर बीमार पड़े। भरोसा न रहा कि जीवित रह पाएंगे। ऐसे में रमण की एक झलक पाने तीब्र इच्छा हुई और चमत्कार हो गया। रमण उपस्थित हो गए। ईश्वर अय्यर सूर्य के उपासक थे। वे रमण की शक्ति भांप गए थे। लिहाजा अंतिम क्षण में साक्षात सूर्य के दर्शन कराने की इच्छा व्यक्त की। रमण ने तुरंत उनका कमरा अंदर से बंद कर लिया। बाहर खड़े लोगों ने अनुभव किया कि ईश्वर अय्यर का कमरा अकल्पनीय प्रकाश से भरा हुआ है। दरअसल, साक्षात् सूर्य अपने भक्त ईश्वर अय्यर को दर्शन दे रहे थे। अंतिम इच्छा पूरी होने के बाद अय्यर के मुंह से सहसा निकल गया – “तुमने मुझे ब्रह्मानंद दिया है। आज से तुम्हारा नाम नित्यानंद है।“

भगवान नित्यानंद और उनके शिष्य स्वामी मुक्तानंद का भले भौतिक शरीर नहीं हैं। पर उनकी अलौकिक शक्तियों, उनकी सूक्ष्म ऊर्जा के प्रवाह को मुंबई से कोई 80 किमी दूर ठाणे जिले के गणेशपुरी स्थित सिद्धपीठ जाने वाले या रहने वाले शिद्दत से महसूस करते हैं। यही स्थल दोनों संतों की तपोभूमि है। भगवान नित्यानंद ने इसी स्थान पर शक्तिपात करके स्वामी मुक्तानंद को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। मौजूदा समय में गुरूमाई चिद्विलासानंद पीठाधीश्वर हैं। सिद्ध गुरूओं से प्रदत्त आध्यत्मिक शक्तियां भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सिद्धयोग परंपरा को पल्लवित-पुष्पित करने में मददगार है। सच तो यह है कि भक्ति, श्रद्धा और प्रेम ने गणेशपुरी को धरती पर स्वर्ग बना दिया है। सिद्धयोग स्वामी मुक्तानंद द्वारा स्थापित एक आध्यात्मिक मार्ग है। इस मार्ग में पराशक्तिमयी श्रीकुंडलिनी महाविद्या को सिद्धविद्या कहा जाता है और साधक सिद्ध विद्यार्थी कहलाते हैं। सिद्धपीठ में दी गई कुंडलिनी दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है। हंस गायत्री व हंस प्रणव इसके जपमंत्र हैं। प्राण-अपान द्वारा हंसानुसंधान ही इस मार्ग का प्राणायाम है।

निसंदेह भगवान नित्यानंद उच्चकोटि के अवधूत थे। भक्तगण उन्हें बाबा कहकर पुकारते थे। ईश्वर अय्यर के देवलोक गमन के बाद और गणेशपुरी में साधना प्रारंभ करने से पहले सन् 1920 से लेकर सात वर्षों तक उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में साधना की थी। इस दौरान अक्सर मौन रहते थे। वे न सत्संग करते थे और न ही कुछ लिखते-पढ़ते थे। पर कभी-कभी ध्यान की अवस्था में अपने भक्तों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कुछ बोल जाते थे। उनकी एक शिष्या थीं साध्वी तुलसी अम्मा। उन्हें इसी मौके का इंतजार होता था। बाबा जैसे ही कुछ बोलते, तुलसी अम्मा उसे कन्नड भाषा में लिपिबद्ध कर लेती थीं। यह संकलन “चिदाकाश गीता” नाम से मशहूर हुआ। उसमें वेदांत दर्शन का सार है। भाषा सरल है। जैसे, बारिश को माया और छाते के हैंडल को चित्त बताकर दोनों ही गूढ़ बातों की सहज व्याख्या कर दी गई है। मान्यता है कि सिद्धयोग परंपरा के दोनों समाधिस्थ गुरू आज भी अपने भक्तों पर सदैव चिरशांति औऱ नित्यतृप्ति प्रदान करते रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी कुवलयानंद : योग की महिमा को पुनर्स्थापित करने वाले महायोगी

बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग विधियों पर शोध करके यौगिक चिकित्सा का अलख जगाने वाले स्वामी कुवलयानंद के गुजरे पांच दशक से ज्यादा बीत चुके हैं। पर उनकी ज्ञान-गंगा का प्रवाह अनवरत जारी है। उन्होंने जब योग-मार्ग पर यात्रा शुरू की थी तो योग साधु-संतों तक ही सीमित था और गृहस्थों के बीच उसको लेकर नाना प्रकार की भ्रांतियां थीं। उन्होंने जब आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साबित कर दिया कि यह विश्वसनीय विज्ञान है तो देश-विदेश के लोग बरबस ही उस ओर आकृष्ट हुए। एक तरफ महात्मा गांधी ने उनकी योग विद्या का लाभ लिया तो दूसरी तरफ मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर देश-विदेश की कई हस्तियां स्वामी कुवलयानंद के कैवल्यधाम आश्रम पहुंच गईं थीं।

कैवल्यधाम, लोनावाला आश्रम प्रयोगशाल का दृश्य

गुजरात में 30 अगस्त 1883 को जन्मे उस वैज्ञानिक योगी की 137वीं जयंती पर शत्-शत् नमन। वे आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। यह जानने के लिए कि मानव शरीर पर योग किस तरह काम करता है। उन्होंने इन प्रयोगों के लिए खुद की प्रयोगशाला बनाई। प्रयोग सफल होने लगे तो अपनी संस्था कैवल्यधाम के लिए दावे के साथ पंचलाइन लिखा – “यह यौगिक अनुसंधान को को समर्पित वह संस्था है, जहां योग परंपरा और विज्ञान का मिलन होता है।“ वाकई, उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू और यौगिक अनुसंधान के लिए समर्पित कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलता गया। महाराष्ट्र में मुंबई-पुणे मार्ग पर अवस्थित लोनावाला में उनकी संस्था का मुख्यालय ही अब लगभग 170 एकड़ भू-भाग में फैल चुका है।

स्वामी कुवलयानंद का कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं। इससे इस संस्था का स्वरूप किसी विश्वविद्यालय जैसा प्रतीत होता है। यौगिक अनुसंधान इस संस्था की आत्मा रही है। इसे जीवंत बनाए रखने के लिए आज भी कोशिशें जारी हैं। इसके लिए स्वतंत्र विभाग है। उसे कैवल्यधाम योग अनुसंधान संस्थान के नाम से जाना जाता है। यौगिक अनुसंधानों पर आधारित पुस्तकों व अन्य यौगिक साहित्य की रचना और उनके प्रकाशन के लिए अलग समृद्ध विभाग है। योग शिक्षा के लिए गोरधनदास सेकसरिया कॉलेज ऑफ़ योग एंड कल्चरल सिंथेसिस है। श्रीमती अमोलकदेवी तीरथराम गुप्ता यौगिक अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र योग व प्राकृतिक चिकित्सा का महत्वपूर्ण केंद्र है। इनके अलावा भी योग विज्ञान को समृद्ध बनाने वाली कई गतिविधियां चलती रहती हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते साल ही स्वामी कुवलयानंद सहित आयुष के 12 मास्टर हिलर्स के नाम डाक टिकट जारी किया था।

कैवल्यधाम आश्रम लोनावाला की मनोरम वादियों से सटा हुआ है। लोनावाला महत्वपूर्ण पर्य़टन स्थल है। पर यह कैवल्यधाम के कारण देश-दुनिया में ज्यादा प्रसिद्ध है। इस संस्थान की मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भोपाल और राजकोट में शाखाएं हैं तो सरहद के पार फ्रांस, अमेरिका, चीन, जापान और सिंगापुर में शाखाएं हैं। शुरूआती दिनों में स्वामी कुवलयानंद का फोकस अष्टांग योग पर था, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। बाद में योग का आध्यात्मिक पक्ष और क्रियायोग भी जुड़ गया। स्वामी कुवलयानंद महर्षि पतंजलि के हवाले कहते थे कि शारीरिक व मानसिक पीड़ा एवं क्लेश की वजह न तो केवल मानसिक है, न केवल शारीरिक, बल्कि वह मनोकायिक प्रक्रिया है। इसलिए जारूरी है इससे मुक्ति पाने के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर काम हो। इसके लिए यम और नियम को उतना ही तवज्जो मिलना चाहिए, जितना आसन और प्राणायाम को मिलता है। इसमें हठयोग का भी सम्मिश्रण होना चाहिए। तभी ध्यान फलीभूत होगा और मन के पार जाने का मार्ग भी प्रशस्त हो पाएगा। स्वामी कुवलयानंद कहा करते थे कि शारीरिक आयाम योग का मात्र एक दोयम पक्ष है। योग का मुख्य लक्ष्य मानसिक और आध्यात्मिक है। अपने इस विचार के बावजूद उन्होंने समय की मांग और आध्यात्मिक साधना की तैयारियों के लिए जरूरी मामते हुए शारीरिक-मानसिक स्वस्थ्य के लिहाज से यौगिक प्रभावों पर ज्यादा अनुसंधान किया था।

स्वामी कुवलयानंद के सकारात्मक ऊर्जा-संपन्न होने की झलक कम उम्र में ही मिलने लगी थी। वह स्कूली छात्र थे तो उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। अपनी मेहनत और लगन की बदौलत छात्रवृत्ति के हकदार बने और आगे की पढ़ाई की। संस्कृत का ज्ञान तो ऐसा था मानो पूर्व जन्म का संस्कार रहा हो। इतने मेघावी छात्र को नौकरी की कमी न थी। प्रध्यापक के तौर पर नौकरी की भी। पर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रति दीवानगी ने उन्हें श्रीअरविंद और बाल गंगाधर तिलक के साथ ला खड़ा कर दिया था। वे श्रीअरविंद के आध्यात्मिक विचारों से ज्यादा ही प्रभावित हो गए थे। महर्षि पतंजलि के योग-सूत्रों का सैद्धांतिक ज्ञान था ही। लिहाजा वे श्रीअरविंद की तरह ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदमी स्वयं की अनुभूति तभी कर सकता है जब चित्त-वृतियों का निरोध होगा, मन शांत होगा। ऐसा व्यक्ति ही कोई रचनात्मक कार्य कर सकता है। इसी प्रेरणा से उन्होंने बड़ौदा में जुम्मादादा व्यायमशाला में प्रोफेसर राजरत्न मणिकराव से इंडियन सिस्टम ऑफ फिजिकल एजुकेशन की शिक्षा ली।

परमहंस माधवदास

“जिनकी कृपा से गूंगा भी बोलने लगता है और लंगड़ा भी पर्वत लांघ जाता है, उस परम आनंद श्रीमाधव को शतश: नमन।“

स्वामी कुवलयानंद

योग विद्या ग्रहण करते ही समाज सेवा का नया मार्ग प्रशस्त हो गया। इसे प्रारब्ध कहें या उनके संकल्प व समर्पण का नतीजा, उनकी मुलाकात बंगाल के एक ऐसे संत हो गई, जो वकालत छोड़कर भारत भ्रमण करते हुए नर्मदा के तट पर साधनारत थे। अपनी उच्चकोटि की साधना की बदौलत ईश्वर से साक्षात्कार कर लेने वाले इस संत का नाम परमहंस माधवदास था। वे विज्ञान की बातें करते थे। वे कहते थे कि भारत को लंबे समय तक पराधीन बनाकर शास्त्रों को तहस-नहस किया जा चुका है और इतिहास इस अवैज्ञानिक तरीके से लिखा जा चुका है कि नए जमाने के लोगों के लिए उस पर भरोसा करना ही मुश्किल है। इसलिए शास्त्रसम्मत बातों को आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसकर ही नई पीढ़ी को उससे लाभान्वित कराया जाना चाहिए। स्वामी कुवलयानंद अपने गुरू से बेहद प्रभावित थे। इसका अंदाज इस बात से लगता है कि वे अपना हर लेख संस्कृत की दो लाइनों के श्लोक से शुरू करते थे, जिसका भावार्थ है – “जिनकी कृपा से गूंगा भी बोलने लगता है और लंगड़ा भी पर्वत लांघ जाता है, उस परम आनंद श्रीमाधव को शतश: नमन।“

शायद यही वजह है कि वे योग विधियों के वैज्ञानिक अनुसंधान को लेकर इतने समर्पित हो गए थे। उन्होंने सबसे पहले बड़ौदा अस्पताल के साथ मिलकर अध्ययन किया था कि स्वास्थ्य लाभ में योग की क्या भूमिका हो सकती है। उसके नतीजे आशाजनक निकले। तब आध्यात्मिक रूचि वाले स्वामी कुवलयानंद ने लोनावाला में अपनी नई जिंदगी की शुरूआत अनुसंधान केंद्र खोलकर की थी। वहां उन्होंने सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किए। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे। रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर काम करने वाले प्रथम वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बसु ने स्वामी कुवलयानंद के यौगिक अनुसंधानों को देखकर कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि आप सही रास्ते पर हैं।“ मौजूदा समय में इस अनुसंधान केंद्र को भारत सरकार के वैज्ञानिक संगठनों से लेकर विश्व विद्यालायों तक से संबद्धता प्राप्त है।   

स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके थे। पंडित नेहरू को पता चला तो वे थोड़े चिंतित हुए। उन्हें डर था कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेश जाकर न बस जाएं। लिहाजा, उन्होंने आश्रम के आगंतुक रजिस्टर में लिखा, “यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा।”

कैवल्यधाम आश्रम में पंडित जवाहरलाल नेहरू।

इन शोध कार्यों को अनेक लोग शास्त्रसम्मत बातों पर अविश्वास के तौर पर देखते थे और कहते थे कि यदि योग विधियों की शास्त्रों में वर्णित बातों में सच्चाई न होती तो यौगिक उपचारों की तरफ लोगों का झुकाव कदापि नहीं होता। इसके जबाव में स्वामी कुवलयानंद ने कभी राजनीतिक बातें नही की। वे चाहते तो कह सकते थे कि विदेशी आक्रमणक्रारी और अंग्रेज शास्त्रों को या तो नष्ट कर दिया या फिर उसे गलत तरीके से परिभाषित करके जनता को गुमराह कर चुके हैं। अब आधुनिक विज्ञान के बिना पर योग विधियों को कसे बिना कोई भरोसा नहीं करेगा। उन्होंने हमेशा यही कहा कि योगाभ्यासियों की संख्या बल से योग विधियों की अमहमियत सिद्ध नहीं की जा सकती है। ऐसा किए बिना योग चिकित्सा का अनुकरण अंधविश्वास की ओर बहा ले जाएगा। इससे न योग विद्या समृद्ध होगी और न ही मानव जाति का कल्याण होगा।

स्वामी कुवलयानंद यौगिक चिकित्सा और व्यायाम के घालमेल के सख्त खिलाफ थे। वे कहते थे कि यौगिक चिकित्सा प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्याओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि एक ही बीमारी के मरीज की चिकित्सा अलग तरह से करनी पड़ सकती है। उदाहरण के लिए स्पॉडिलाइसिस के मरीजों के लिए झुकने वाला कोई भी अभ्यास वर्जित होना चाहिए। हर्निया को मरीजों से ऐसा कोई योगाभ्यास नहीं कराया जाना चहिए, जिनसे पेट दबता हो। उच्च रक्तचाप के रोगियों से केवल सेडेटीव कैरेक्टर यानी शामक प्रवृत्ति के योगाभ्यास ही करवाए जाने चाहिए। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यौगिक चिकित्सा की अपनी सीमाएं हैं। बीमारियों का पता लगाने के लिए आधुनिक चिकित्सा उपकरणों की सहायता लेने से यौगिक चिकित्सा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकती है।      

अतुल्य भारत | के.एस.एम.वाई.एम.समिति ...

यौगिक अनुसंधानों और उनके नतीजों के आलोक में यौगिक उपचारों से असाध्य बीमारियां भी ठीक होने लगी तो यौगिक चिकित्सा की विश्वसनीयता बढ़ती गई और कैवल्यधाम आश्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। देश-विदेशों से बड़ी-बड़ी हस्तियां यौगिक उपचार के लिए लोनावाला आने लगी थीं। भारत के प्रमुख हस्तियों में मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि को स्वामी कुवलयानंद ने योग सिखाया था। पंडित मालवीय तो लगभग एक सप्ताह तक आश्रम में रहकर ही योग साधना की थी। वे कैवल्यधाम के विश्वसनीय कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बीएचयू के साथ मिलकर कोई यौगिक परियोजना शुरू करने की इच्छा जता दी थी। इस मामले में इस संस्थान महत्व आज भी बरकरार है। मौजूदा समय में भारत सरकार का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू इस बात से प्रसन्न थे कि कुवलयानंद और कैवल्यधाम की विदेशों में भी लोकप्रियता बढ़ रही है। पर वे जब कैवल्यधाम आश्रम गए थे तो उन्हें पता चला कि स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके हैं तो पंडित नेहरू थोड़े चिंतित हुए। उन्हें डर था कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेशी संस्थानों के साथ काम करने विदेश न चले जाएं। लिहाजा, उन्होंने आश्रम छोड़ने से पहले आगंतुक रजिस्टर में अपनी चिंता जाहिर कर दी थी। उन्होंने लिखा कि यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा। पर आजादी के दीवाने कुवलयानंद विदेशी संस्थानों के मोहपाश में कहां फंसने वाले थे। वे जीवन पर्यंत भारत भूमि पर रहकर ही योग को समृद्ध बनाते रहे। 18 अप्रैल 1966 को उनका निधन हो गया था। पर योग विज्ञान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के कारण उनका नाम अमर हो गया। मानव जाति के लिए उनका कैवल्यधाम वरदान साबित हो रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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