स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज

किशोर कुमार

दुनिया भर के लोगों में धर्मानुकूल आचरण की शिक्षा प्रसारित करने वाले और भगवान स्वामिनारायण के पांचवें आध्यात्मिक उत्तराधिकारी प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में जो सुना और पढ़ा, उसके आधार पर उनकी उपलब्धियों की झांकी भी नहीं मिल सकती। ऐसा इसलिए कि वे तो उस हिमशैलों की तरह थे, जिनका थोड़ा-सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है। शेष भाग पानी में ही डूबा रहता है। अलौकिक दृष्टि वाले उस दिव्यात्मा के जन्मशताब्दी वर्ष पर अहमदाबाद में एक महीना तक चलने वाला भव्य समारोह का आयोजन किया गया है। उसमें स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज की उपलब्धियों को व्यापक फलक पर प्रस्तुत करने की कोशिश है। पर, वहां भी कुछ शेष रह गया है।

श्रीमद्भगवत गीता के ज्ञान में ब्रह्म विद्या, ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों और योग शास्त्रों का ज्ञान छिपा हुआ है। पर क्या कोई भी दावे के साथ कह सकता है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो संदेश दिए थे, उसके वास्तविक भाव और अर्थ पूरी समग्रता से फलां भाष्य में है? शायद किसी भाष्यकार संत ने भी कभी इस बात का दावा न किया होगा। महान संतों के मामले में भी कुछ ऐसी ही बातें लागू होती हैं। प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियां कितनी उच्च कोटि की थी, इसकी झलक पूर्व राष्ट्रपति ड़ॉ एपीजे अब्दुल कलाम की पुस्तक आरोहण – प्रमुखस्वामीजी के साथ मेरा आध्यात्मिक सफर में उद्धृत दृष्टांतों से मिल जाती है। इसी तरह प्रमुखस्वामी महाराज की प्रेरणा से बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामिनारायण (बीएपीएस) संस्था के जरिए वैदिक उपासना हेतु दिल्ली के भव्य अक्षरधाम मंदिर निर्माण का मामला हो, जो भारतीय शिल्प व वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, या फिर धार्मिक व सांस्कृतिक वैविध्य के रक्षण व प्रोत्साहन की बात, कहना होगा कि धर्म का भारतीय प्रतिमान पूरी तरह प्रस्तुत हुआ।  

महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है, सर्वेषां य: सवहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले।। महर्षि अरविंद घोष, जिनकी 150वीं जयंती मनाई जा रही है, ने लिखा है कि इस श्लोक में संतों के सिद्धावस्था में किए गए कर्मयोग का उद्घोष है। श्लोक में जाजले शब्द उसके लिए है, जिसने धर्म के वास्तविक स्वरूप को जाना तथा मन, कर्म और वाणी से सबका हित करता है, जो सभी का नित्य स्नेही है। श्रीमद्भगवत गीता से लेकर भगवान स्वामिनारायण तक ने भक्तों-संतों के कुछ लक्षण बतलाए हैं। कहना चाहिए कि प्रमुखस्वामी महाराज इन सभी कसौटियों पर खरे थे। उनमें ताउम्र कामना रहित भक्ति नित्य-निरंतर बनी रही। उन्होंने सदैव सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया: को ध्येय वाक्य मानते व्यक्ति के विकास के लिए आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए सुनिश्चित किया कि वर्गभेद मिटे, राष्ट्र निर्माण के लिए बालकों व युवकों का परिपोषण व प्रशिक्षण मिले। जन्मशताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में ठीक ही कहा कि उनके विचार शाश्वत हैं, सार्वभौमिक हैं। उनका एक ही संदेश होता था कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य सेवा ही होना चाहिए।

भावी पीढ़ियां धर्मानुकूल कैसे रहें, प्रमुखस्वामी महाराज को ऐसी शिक्षा विरासत में मिली थी। प्रमुखस्वामी महाराज के बचपन का नाम शांतिलाल था। उनकी माता दीवालीबाई और पिता मोतीभाई गुजरात के बड़ोदरा जिले के चाणसद गांव में खेती-किसानी करके जीवन जीते थे। पर उनके भगवत् प्रेम में कोई कमी न थी। इस तरह पूर्व जन्मों के अच्छे संस्कार और शैशवावस्था से ही माता-पिता से मिले संस्कार का असर हुआ कि शांतिलाल में बाल्यावस्था से ही प्रवज्या योग के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होने लगे थे। उन्हें संतों का सत्संग खूब रास आता था। सुगंधित पुष्प की तरह उनके भगवत् प्रेम की खुशबू फैली तो स्वामिनारायण परंपरा के तत्कालीन प्रमुख शास्त्रीजी महाराज की दृष्टि उन पर गई। शांतिलाल जब दस साल के हुए तो उन्हें एक दिन शास्त्रीजी महाराज का पत्र मिला। उसमें लिखा था – साधु बनने के लिए आ जाओ। शांतिलाल ने भी बिना देर किए गृहत्याग दिया और शास्त्रीजी महाराज के हृदय के दुलारे बनकर संत परंपरा की अनमोल कड़ी में जुड़ गए थे।

प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियों की झांकी डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के संस्मरण से मिलती है। उन्होंने “आरोहण” में लिखा हैं कि 11 मार्च 2014 को प्रमुखस्वामी महाराज से मिला था। उसी रात में आदतन सोने से पहले एक पुस्तक पढ रहा था। तभी मेरा मन किसी उच्चावस्था में चला गया। तब मैं न तो सोया था, न जगा। उसी दौरान स्पष्ट संदेश मिलने लगे – ‘उठो, ओ प्रसन्न अजनबी। तुमने अपना लक्ष्य पा लिया है,’ मैंने एक आवाज़़ सुनी। ‘मैं कहाँ हूँ?’ मैंने पूछा। ‘स्वर्ग में।’ ‘और धरती?’ ‘वह तुम्हारे पीछे है।’ ‘मुझे यहाँ कौन लाया?’ ‘वही, जिससे तुम आज मिले।’ ‘आप कौन हैं?’ ‘मैं वही हूँ।’ ‘तो क्या आप प्रमुख स्वामीजी हैं? लेकिन आप बोलते हैं, वो तो आज नहीं बोले।’

‘पर वह मुस्कुराये तो।’ ‘क्यों?’ ‘ताकि हमारी दुनिया में मुस्कुराहट लाई जा सके। तुम ही वह धन्य व्यक्ति हो जिनके हाथों में मैं एक पवित्र किताब देना चाहता हूँ, जो दुनिया के लिए लिखी जाए।’ ‘कौन-सी किताब?’ ‘वह किताब, जो मानवता को शब्दों की भूलभुलैया से बाहर का रास्ता दिखा सके।’ ‘पर मैं ही क्यों?’ ‘सिर्फ़ तुम ही ऐसा कर सकते हो, क्योंकि तुम सही देखते हैं और सही बोलते हैं। तुम सिर्फ़ मुझे देखते हो और सिर्फ़ मेरी बात ही बोलते हो।’ ‘क्या व्यक्त करना है?’ ‘कि दुनिया की मुस्कुराहट खो गई है। इसने ख़ुद को ‘मैं’ और ‘मेरे’ की गाँठों में बन्द कर लिया है। दुनिया बन्दि‍शों और बाड़ों में बँट गई है। चारों तरफ ‘मैं’ के खम्भे खड़े हैं और हेठी लोगों को बाँट रही है। मानवता पीड़ित है और जार-जार हो चुकी है। कलाम, इन बाधाओं को तोड़ने और लोगों को जोड़ने के लिए लिखो, और ‘मैं’ द्वारा उत्पन्न किये गए हर बँटवारे को हटा दो। ऊपर उठो, ‘आरोहण’ लिखो।….और इस तरह “आरोहण” जैसा विशिष्ट पुस्तक हम सबके लिए उपलब्ध हो सका।

महात्मा गांधी ने अलबर्ट आइंस्टीन के बारे में कहा था – भविष्य की पीढ़ी शायद ही यह विश्वास करे कि हाड़-मांस से बना यह व्यक्ति क्या कभी धरती पर था भी? भविष्य में प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में भी ऐसी ही धारणा बन जाए, तो हैरानी न होगी। जन्मशताब्दी के मौके पर उस महान संत को सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति योग और रामायण के यौगिक संदेश

भारत के योगियों औऱ संत-महात्माओं ने श्रीराम की शिक्षाओं को दो अलग-अलग संदर्भों में देखा है। एक है भक्ति मार्ग और दूसरा है भक्ति योग। भारतीय चिंतन परंपरा में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। श्रीमद्भागवत के मुताबिक भक्ति मार्ग नवधा भक्ति है। इसके मुताबिक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन और वंदन ये छह विधियां हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति दिव्यता के स्रोत से जुड़ पाता है। अपने अराध्य के साथ आंतरिक संबंध विकसति करता है। इसका अनुभव सातवें और आठवें चरण में होता है और नवें चरण में पूर्ण आत्म-समर्पण सिद्ध होता है। भक्ति योग इससे बिल्कुल अलग है। इसके तहत भावनाओं का अवलोकन, दिशांतरण और परिष्कार किया जाता है।

प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण  के लिए आयोजित भूमिपूजन अनुष्ठान के बाद अपने संबोधन में मर्यादा पुरूषोत्तम राम से प्रेऱणा लेने संबंधी युवाओं से जो अपील की, उसे आध्यात्मिक आलोक में देखा जाए तो गहरे अर्थ हैं और वे भक्ति योग की बातें हैं। पिछली शताब्दी के महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती श्रीराम और रामायण के यौगिक संदेशों पर विस्तार से संदेश देते रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, राम का जीवन और रामायण की बातें पग-पग पर हमारे जीवन की विषमता और कटुता, युद्ध और भय, मृत्यु और जीवन के प्रति सतर्क करती रही हैं। रामायण का एक ही संदेश है – जागते रहो।

संकेतों को पकड़े तो समझना आसान होगा कि हमारे अंदर जो आत्मा, आत्म-स्फूर्ति और आत्म-शक्ति है, वही राम है। सीता बुद्धि और शास्त्रोक्त ज्ञान एवं तर्कशीलता की प्रतीक हैं। रावण के दस सिर जीव की दस इंद्रियों के प्रतीक हैं। रावण का निवास जिस तरह सोने की लंका में था, हमारी आत्मा भी भौतिक शरीर में सूक्ष्म रूप से उसी तरह रहती है। असंख्य रानियों के बावजूद रावण में पर स्त्री की कामना बनी रहती थी। यह इस बात का द्योतक है कि इंद्रियों की भोग-तृप्ति की कोई सीमा नहीं है। मेघनाद मन है और सतर्कता और ब्रह्मचर्य लक्ष्मण हैं।

अयोध्या को आत्म-निकेतन कहना चाहिए। श्रीराम अध्योध्या से निकल कर जिस तरह वनगमन करते हैं, उसी तरह आत्मा अपने आत्म-निकेतन से निकल कर संसार वन में भटकती है। इस संसार वन में हमारे अंदर के तुच्छ विचार, तामसी प्रवृत्तियां ही खरदूषण और मरीच की तरह हम पर आक्रमण करती है। श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण को गुफा में भेजकर इन राक्षसों को अकेले ही मारा था। इस प्रसंग से सीख मिलती है कि हमें आपात् स्थिति में तर्क-वितर्क में फंसकर आत्मबल का सहारा लेना चाहिए। रावण इंद्रियों का प्रतीक है तो मारीच इच्छा का प्रतीक है। तभी मारीच रावण के बहकावे में आ जाता है।

राम सीता के वियोग में वन में शोकाकुल होकर भटकते हैं। इसका संदेश यह है कि जब आत्मा का ज्ञान और बुद्धि से संपर्क टूट जाता है तो आत्मा जगह-जगह ठोकरें खाती फिरती है। ऐसे में आत्मा को सत्संग और भक्ति का सहारा लेना होता है। समुद्र में सेतुबंध सत्संग का औऱ हनुमान का साथ भक्ति का प्रतीक है। इंद्रियों की पराजय का अनूठा उदाहरण रावण के दरबार में देखने को मिलता है, जब अंगद रावण को चुनौती देते हैं कि दरबार को कोई उसका पैर उठा दे तो राम पराजय मान लेंगे। पर अंगद के पांव शक्तिशाली रावण सहित कोई न उठा पाया। मतलब यह कि अंगद के आत्मबल के आगे दुष्प्रवृत्तियों (राक्षसों) की अगुआई करने वाली इंद्रियां (रावण) तक पराजित हो जाती हैं।

रावण का भाई कुंभकर्ण आलस्य और शोषण का प्रतीक है। आलस्य के नाश के लिए आत्मबल की जरूरत होती है। श्रीराम के आत्मबल से कुंभकर्ण मारा जाता है। उधर रावण का पुत्र मेघनाद मन की दूषित भावनाओं और कुटिलता का प्रतीक है। ये दोनों ही बातें इतनी बलशाली होती हैं कि कई बार सतर्कता और साधना को भी मात दे देती हैं। तभी मेघनाद का वाण लक्ष्मण को लग जाता है। तब ब्रह्मचर्य का तेज और संयम का चमत्कार दिखता है। हनुमान जी अपनी इन शक्तियों से मन की कुटिलताओं को पराजित कर देते हैं।

रावण इंद्रियों का प्रतीक है और आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि दमन करके इंद्रियों का नाश आसान नहीं है। तभी जब-जब रावण के सिर काटे जाते थे, वे उभर आते थे। खून की एक-एक बूंद से रावण उत्पन्न हो जाता था। ऐसे ही समय में आते हैं विभीषण, जो सद्विवेक और सद्वृत्तियों के प्रतीक हैं। इंद्रियों के बोझ से दबी सद्वृत्तियों का साक्षात्कार आत्मबल औऱ आत्म-दृढ़ता से होता है तो दुष्प्रवृत्तियों के विनाश का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसलिए श्रीराम रावण की नाभि से जैसे ही अमृत रूपी वासना और लिप्सा को खींचते हैं, रावण का अंत हो जाता है। इस तरह हमें ज्ञात होता है कि इंद्रियों और दुष्प्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न की गईं बाधाओं को किस तरह कुचल कर आत्मा के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

श्रीराम के जीवन पर आधारित रामायण में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनसे हमें आदर्श जीवन जीने के संदेश मिलते हैं। श्रीराम के मजूबत यौगिक संदेशों का असर ही है कि गांव-गांव में जिन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं है, वे भी रामायण की चौपाइयां बेधड़क बोलते हैं और उसके मायने भी बताते हैं। पांडवानी लोक गायिकों और गायिकाओं के मामले में भी यही बात लागू है। उनके बीच रामायण बेहद लोकप्रिय है, जबकि उनमें से ज्यादातर पढ़ना-लिखना नहीं जानतें। श्री राम के आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं।   

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, भक्ति योग के तहत श्रीराम के यौगिक मार्म का अनुसरण करने से हृदय की प्रतिभाओं का विकास होता है। स्वयं को इस मार्ग पर स्थापित कर लेने के बाद भावनाएं अंतरात्मा की खोज में दिशांतरित हो जाती हैं। ऐसे में जब अंतरात्मा से साक्षात्कार होगा तो समझ में आ जाएगा कि जीवात्मा परमात्मा का ही प्रतिबिंब है और यही भक्ति की परिणति है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

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