महामृत्युंजय मंत्र : हंगामा है क्यों बरपा?

 किशोर कुमार //

दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल के एक चिकित्सक ने महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति से न्यूरो चिकित्सा करने का दावा क्या किया, भारतीय चिकित्सा जगत में इस मंत्र के चमत्कारिक प्रभावों के पक्ष-विपक्ष में बवंडर उठा हुआ है। बड़े-बड़े प्रगतिशील विद्वानों ने हाय-तौबा मचा रखी है। उन्हें लगता है कि यह हिन्दुत्ववादियों के भीतर की कुंठा और छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने वाली बात हैं, जबकि कई विकसित देशों में हुए शोधों से साबित हो चुका है कि मंत्रों से जीवन की दशा बदल जाती है। बीमारियां ठीक होती हैं। मन का बेहतर प्रबंधन होता है।

मंत्रों की शक्ति जानने के लिए आज भी दुनिया भर में प्रयोग किए जा रहे हैं। अनेक प्रयोगों में नतीजे आशा के अनुरूप हैं। यानी साबित हुआ है कि मंत्रों के जरिए ऐसी ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो मनुष्य के जीवन के विकारों और विकृतियों को दूरृ करने में सक्षम है। इसलिए कि मनुष्य के सूक्ष्म व्यक्तित्व पर मंत्रों का असर होता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुकी इस बात की विस्तार से चर्चा से पहले राममनोहर लोहिया अस्पताल की बात।  

हाल ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल में गंभीर ब्रेन इंजरी के मरीजों का वैदिक मंत्रों खासतौर से महामृत्युंजन मंत्र से इलाज किया गया। यह काम केंद्र सरकार की ओर से प्रायोजित एक शोध के तहत किया गया है। न्यूरो सर्जरी विभाग के वरिठ शोध फेलो डॉ अशोक कुमार ने मंत्र शक्ति से चिकित्सा का अध्ययन को करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) से सहयोग मांगा था। परिषद ने उनके प्रस्ताव को मान लिया और मामूली धन की व्यवस्था भी कर दी। डॉ. कुमार का दावा है कि अब तक हुए शोधों के नतीजे उम्मीदों से बढ़कर हैं।

डॉ. कुमार कहते हैं कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि लंका पहुंचने के लिए सेतु बनाने से पहले भगवान राम ने महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया था। प्राचीन काल में सैनिक जब घायल हो जाते थे जो उन्हें ठीक करने के लिए इस मंत्र का जाप किया जाता था। दरअसल प्रार्थना से आध्यात्मिक स्पंदन पैदा होती है, जिससे मानसिक तनाव कम होता है। साथ ही साइटोकिन्स कम होता है, जिससे गंभीर दिमागी चोट वाले रोगियों को अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है।

डॉ. कुमार बताते हैं कि अक्टूबर 2016 से अप्रैल 2019 के बीच 40 मरीजों की दो श्रेणियां बनाकर इलाज किया गया। एक समूह के लिए इन्टर्सेसरी प्रार्थना की गई, जबकि दूसरे को प्राप्त उपचार जारी रखा गया। फिर इन दोनों समूहों के नतीजों का अध्ययन किया गया। देखा गया कि जिन मरीजों के लिए इन्टर्सेसरी प्रार्थना वाला उपचार किया गया था, उनके परिणाम बेहतर निकले।

स्पेन की राजधानी मैड्रिड में कुछ साल पहले महामृत्युंजय मंत्र के प्रभावों को लेकर बड़ा शोध हुआ था। इसका संचालन टेलीकांफ्रेंसिंग के जरिए परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने किया था। वह नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों में से एक हैं, योग-शक्ति से फ्रिक्वेंसी भेजकर दूरस्थ मानव के उपचार पर काम कर रहे हैं। उन्होंने एक हॉल में एक हजार लोगों को बैठाया और महामृत्युंजय मंत्र का जप करने का निर्देश दिया। दूसरी ओर दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को निर्देश दिया कि वे पांच सौ क्वांटम मशीनों से मंत्रों की फ्रिक्वेंसी को मानिटर करें। मंत्रोच्चारण के प्रभाव से मशीनों में कंपन शुरू हो गया। वैज्ञानिकों की आंखें खुली रह गईं जब उन्होंने देखा कि मंत्र की शक्ति से फ्रिक्वेंसी का विशाल फील्ड तैयार हो चुका है। वैज्ञानिकों का कहना था – “महामृत्युंजय मंत्र का प्रभाव ऐसा है मानों पूरे मैड्रिड शहर के ऊपर एक बड़ा-सा छाता खोल दिया गया हो।“

स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है। इस प्रयोग से कोई साठ साल पहले यौगिक शोधों के लिए मशहूर महाराष्ट्र के योगी स्वामी कुवल्यानंद और बिहार के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “महामृत्युंजय मंत्र की साधना से असाध्य रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।“  दुनिया का पहला योग विश्व विद्यालय के परमाचार्य रहे पद्मविभूषण स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “मैं अनेक साधकों को जानता हूं, जो मंत्रों की शक्ति से आरामदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।“   

अपने देश में अगले तीस सालों में अल्जाइमर्स के रोगियों की संख्या में तीन गुणा इजाफा होने की आशंका है। तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद कारगर इलाज संभव नहीं हो सका है। योग और मंत्रों की शक्ति नई राह दिखा रही है। ऐसे में वैज्ञानिक तथ्यों को धर्म की चाशनी में लपेट कर राजनीति करना उचित नहीं। इसका खामियाजा हम पहले ही भुगत चुके हैं। सदियों पुराने ज्ञान को मिट्टी में मिला चुके हैं। अब वही ज्ञान पश्चिमी देशों में विज्ञान की कसौटी पर सही साबित हो रहा है। फिर भी भारत की भूमि पर उसे मान्यता न मिले, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

महर्षि रमण के बहाने ध्यान साधना की बात

इंग्लैंड के खोजी पत्रकार पॉल ब्रंटन पूर्वी जगत की आध्यात्मिक परंपराओं की खोज करते हुए रमणाश्रम पहुंच गए और महर्षि रमण की आडंबर रहित आध्यात्मिक शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि वहीं ठहर गए। उनकी खोजी पत्रकारिता की अंतिम परिणति आध्यात्मिक जिज्ञासु के रूप मे हो गई। उन्होंने स्वदेश लौटकर पुस्तक लिखी – ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया। उससे पश्चिमी दुनिया को महर्षि रमण की ध्यान साधना से उत्पन्न अलौकिक ऊर्जा और आध्यात्मिक शक्ति के अद्भुत परिणामों का पता चला। साथ ही अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बौनेपन का अहसास भी हुआ। फिर तो वहां वैज्ञानिक अध्यात्म का नया अध्याय शुरू हो गया था। 

अमेरिका के ओहायो प्रांत के सिनसिनाटी हवाई अड्डे पर बोर्डिंग पास लेने और लगेज देने के लिए कतार लगी हुई थी। एक सज्जन कतार की परवाह किए बिना काउंटर पर पहुंच गए। ड्यूटी पर तैनात महिला कर्मचारी ने कतार से आने का आग्रह किया तो सज्जन आपे से बाहर हो गए। छूटते ही सवाल किया – आपको पता है कि मै कौन हूं? इसका जबाव देने के बदले महिला ने माइक से उद्घोषणा कर दी कि एक सज्जन मेरे काउंटर पर हैं। उन्हें नहीं पता कि वे कौन हैं। क्या कोई उनकी मदद कर सकता है? सद्गुरू जग्गी वासुदेव ने महर्षि रमण के प्रसंग में ही यह वाकया सुनाया था। पहली नजर में यह व्यंग्य लग सकता है। पर यह थी उच्चकोटि की आध्यात्मिक बात।

सच है कि हम में से ज्यादातर लोगों को अपने बारे में पता ही नहीं होता। अज्ञानता और अहंकारपूर्ण व्यवहार हमें यह जानने का अवसर नहीं देता। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारी इंद्रियां बाहर सब कुछ तलाश रही होती हैं। हमारा मन इंद्रियों का दास बना रहता है और बुद्धि-विवेक को दूर-दूर तक फटकने नहीं देता। पर संचित कर्मों की वजह से या किसी अन्य वजह से जब खुद से सवाल हो जाता है कि “मैं हूं कौन” तो आदमी महर्षि रमण तक बन जाता है। ऐसा न भी तो अलग जीवन-दृष्टि मिल ही जाती है। हवाई अड्डे की घटना में इस बात की झलक मिलती है। अहंकार का असर देखिए कि यात्री को पता नहीं था कि वे हैं कौन। दूसरी तरफ वह महिला थी, जो “मैं कौन हूं” का गूढ़ार्थ समझ रही थी। पता चला कि वह 20वीं शताब्दी भारत के महानतम योगी महर्षि रमण से बेहद प्रभावित थी।

आज महर्षि रमण की चर्चा बेमौके नहीं है। पूरी दुनिया में विश्व महायुद्ध के कुपरिणामों से भी गहरा घाव देने वाली कोविड-19 महामारी की वजह से जनता त्राहित्राहि कर रही है। संकट से उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। आम से खास लोग तक अवसदग्रस्त हैं। योगी से वैज्ञानिक तक एक ही बात कह रहे हैं कि ध्यान का सहारा लो, मेडिटेशन करो। ऐसे में महर्षि रमण की चर्चा न हो, ऐसा हो नहीं सकता। उन पर चर्चा के लिए एक अनुपम अवसर दूसरे कारण से भी है। तमिलनाडु में तिरुवन्नामलाई स्थित अरूणाचला पर्वत के उस महान योगी का समाधि दिवस आज ही है। अपनी प्रबल ध्यान साधना की बदौलत प्रत्यक्ष तौर पर बिन गुरू आत्मज्ञान पाकर “मैं कौन हूं” का उत्तर अपने भीतर से प्राप्त करने वाले उस महान योगी को उनके समाधि दिवस पर शत्-शत् नमन। रमणाश्रम में समाधि दिवस को आराधना दिवस के रूप में हर वर्ष वैशाख महीने में तेरहवें दिन मनाया जाता है| इस बार 20 अप्रैल यानी आज यह तिथि पड़ी है। 

कहावत है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। यह महर्षि रमण पर किशोरावस्था में परिलक्षित होने लगी थी। पर युवावस्था में पहुंचने से पहले ही उनके जीवन में ऐसी घटना घटित हुई कि असंभव क्रांति हो गई। अरूणाचला पर्वत पर ऐसा ध्यान लगा कि पता ही न चला कि उनके शरीर के साथ जीव-जंतु और कीड़े-मकोड़े कैसा व्यवहार कर रहे हैं। इस साधाना से “मैं कौन हूं” का जबाव मिला तो उनके ज्ञान का प्रकाश सर्वत्र फैला गया। उन्हें लोगों को प्रभावित करने के लिए न मार्केटिंग करनी पड़ी, न चमत्कार दिखाना पड़ा। पश्चिमी देशों में क्रियायोग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद महर्षि रमण से बेहद प्रभावित थे। उन्होंने एक बार महर्षि से सवाल पूछ लिया – “क्या योग पीड़ा हरण के लिए एंटीडॉट्स की तरह काम करता है?”  महर्षि का सीधा सरल उत्तर था – “यह पीड़ा से उबारने में मदद करता है।“   

इंग्लैंड के खोजी पत्रकार पॉल ब्रंटन पूर्वी जगत की आध्यात्मिक परंपराओं की खोज करते हुए रमणाश्रम पहुंच गए और महर्षि रमण की आडंबर रहित आध्यात्मिक शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि वहीं ठहर गए। उनकी खोजी पत्रकारिता की अंतिम परिणति आध्यात्मिक जिज्ञासु के रूप मे हो गई। उन्होंने स्वदेश लौटकर पुस्तक लिखी – ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया। उससे पश्चिमी दुनिया को महर्षि रमण की ध्यान साधना से उत्पन्न अलौकिक ऊर्जा और आध्यात्मिक शक्ति के अद्भुत परिणामों का पता चला। साथ ही अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बौनेपन का अहसास भी हुआ। फिर तो वहां वैज्ञानिक अध्यात्म का नया अध्याय शुरू हो गया था। 

बहरहाल, आज एक अवसर है, जब इस बात पर मंथन होना चाहिए कि पूरी दुनिया में जिस ध्यान या मेडिटेशन की बात हो रही है, उसका अभिप्राय क्या उसी ध्यान से है, जो आदमी तो आत्मज्ञान तक दिला देता है या कुछ और है। इस सवाल का उत्तर पाने से पहले योग की कुछ अन्य बुनियादी बातों की चर्चा जरूरी होगी। बिहार में दुनिया का पहला योग विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आम आदमी के जीवन को उत्तम बनाने के लिहाज से योग को मुख्यत: तीन भागों में बांटा है – शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। योग के शारीरिक पक्ष का संबंध हठयोग से, मानसिक पक्ष का संबंध राजयोग से और आध्यात्मिक पक्ष का संबंध क्रियायोग से है। योगशास्त्रों में योग की उच्चत्तर अवस्था तक पहुंचने के लिए क्रमिक साधना के मार्ग बतलाए गए हैं।

पर आधुनिक युग में महर्षि रमण और संन्यास परंपरा के कई योगियों ने अपनी प्रबल ध्यान साधना की बदौलत पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई किए बिना डाक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली थी। महर्षि रमण दूसरों को भी ध्यान साधना की शिक्षा ही देते थे। एक वाकया गौरतलब है। उनके भक्त केआर नांबियार ने सपना देखा – “गोवा से आए एक साधक श्रीधर पद्मासन पर बैठे प्राणायाम कर रहे हैं। महर्षि रमण वहां आते हैं और कहते हैं – सांस रोकने की इस कालाबाजी से कोई लाभ नहीं होना है। मैंने आत्म-चिंतन का जो मार्ग बतलाया था, वही सरल और उपयुक्त है।“ सुबह होने पर श्री नांबियार ने यह बात श्रीधर को बताई तो श्रीधर चौंक गए। कहा, मैं यही बात गुरूजी से पूछने वाला था। यानी प्रश्न करने से पहले उन्हें उत्तर मिल चुका था। महर्षि रमण गृहस्थ लोगों से कहते थे कि सांसारिक कर्तव्यों का त्याग किए बिना भी रोज दो घंटे तक ध्यान साधना की जाए तो जीवन आनंदमय हो जाएगा।

आज जब सर्वत्र ध्यान या मेडिटेशन की बात चल रही है तो निश्चित रूप से उसका अभिप्राय उस ध्यान से नहीं हो सकता, जो हमें आत्मज्ञान दिलाता है या जीवन-दृष्टि बदलता है। सच तो यह है कि सामान्य दिनों में भी हम ध्यान मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए ही करते हैं। पर मौजूदा समय में वैसी साधना भी मुश्किल ही है। हमें कोई ऐसा उपाय चाहिए कि मानसिक उथल-पुथल कम जाए। सोचने-समझने की शक्ति मिल जाए। यानी मन के शिथिलीकरण की जरूरत है। इसके लिए “योगनिद्रा” उपयुक्त है। प्रत्याहार की क्रिया और ध्यान की पहली सीढ़ी। वही सध भी पाएगा। ध्यान की उच्चतर अवस्था प्राप्त हो जाए तो सोने पे सुहागा। वैसे, मौका मिले तो केद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के फिल्म डिविजन और सीनेएफएक्स प्रोडक्शन द्वारा महर्षि रमण पर बनाई गई फिल्में देखनी चाहिए। प्रेरक हैं। बेहतरीन जीवन-दृष्टि मिलेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अपने जीवन रूपी बगीचे के माली बनिए

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती //

आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत तथा इस शताव्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के उत्तराधिकारी और विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय व विश्व योगपीठ के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया, आज के युग में हमारे जीवन में योग की क्या प्रासंगिकता है?” उस दिन स्वामी जी के सत्संग का यही विषय हो गया। वह एक दृष्टांत के माध्यम से योग की प्रासंगिकता पर बड़ी बातें कह गए। यहां प्रस्तुत है स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के उद्बोधन पर आधारित यह आलेख, जिसे प्रस्तुत किया है वरिष्ठ पत्रकार किशोर कुमार ने। 

एक माली के पास एक छोटा-सा जमीन का टुकड़ा है। भूमि बंजर है। वह उसे एक सुंदर बगीचे में तब्दील करना चाहता है। क्या करना होगा? क्या केवल बीज बो कर माली की यह आशा फलीभूत होगी कि एक दिन ये बीज पौधे की शक्ल लेंगे और उन पर फल-फूल लगेंगे? या फिर उसको पहले भूमि को तैयार करना होगा, मोथे निकालने होंगे, कंकड़-पत्थर निकालने होंगे, भूमि को जोतना होगा और जब भूमि तैयार हो जाए तब बीच बोने होंगे तथा उसकी देखभाल तब तक करनी होगी, जब तक कि उसमें फल-फूल न लगने लग जाए? जब एक माली अपनी पसंद का बगीचा बनाने के लिए इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजर सकता है, तो हम बागवानी की इस विचारधारा को अपने जीवन में क्यों नहीं उतार सकतें?

यदि आप अपने जीवन रूपी बगीचे के माली बन जाएं तो आपके जीवन की प्रसुप्त क्षमताएँ अपने आप जागृत होने लगेंगी। इसलिए कि सारी क्षमताएं हमारे भीतर हैं। उन्हें प्रकट होने के उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा है। हमें अपने आप को यह अवसर प्रदान करना है। हमलोग अपने जीवन में जो भाग-दौड़ करते हैं, उसका प्रयोजन क्या रहता है? यही न कि हमें समृद्धि मिले, हम अधिक सुरक्षित हों, हम समाज में और नाम कमा सकें, समाज के उत्थान और निर्माण में एक सकारात्मक भूमिका निभा सकें आदि आदि। मनुष्य का जो भी प्रयास, जो भी कर्म होता है, उसके पीछे यही उद्देश्य होता है – नाम, यश, प्रसन्नता, सुख-संपत्ति, समृद्धि और शांति। जन्म से मृत्यु तक हम इन्हीं की कामना करते हैं। पर इसके कारण हम लोगों की जो मानसिकता बन जाती है, वही हमलोगों के मनोविकास में बाधक सिद्ध होती है।

मनुष्य का मनोविकास योग का आधार है। मनोविकास की प्रक्रिया की शिक्षा हमें योग में प्राप्त होती है। इस प्रक्रिया का संबंध हमारे व्यावहारिक, सामाजिक और भौतिक जीवन के साथ है। हमें अपने मन को एक खेत के रूप में देखना होगा, जहां हम काम कर सकते हैं। योग शुरू से ही यह कहता आया है कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यह हमारी शरीर रूपी गाड़ी का इंजन है। जिस प्रकार एक कार इंजन के बिना नहीं चल सकती, उसकी प्रकार यदि इस जीवन का मार्ग-दर्शक मन न हो तो यह जीवन बेकार हो जाता है। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार मन की क्षमताओं को व्यवस्थित करना तथा उनका विकास योग का लक्ष्य हो जाता है। यदि मन को केंद्रित, प्रेरित और एकाग्र न किया जाए और उसे सकारात्मक न बनाया जाए तो वह नकारात्मक जालों में फंस जाता है।  

इसलिए जीवन रूपी बगीचे से घास-फूस को निकालना ही योग की प्रक्रिया है। योग की शुरूआत इसी से होती है। यदि आप योग शास्त्रों को देखें तो पाएँगे कि योग का अभ्यास आसन या ध्यान से शुरू नहीं होता। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में स्पष्ट रूप से इसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं – ‘यम-नियम से शुरू करो और फिर आसन तथा प्राणायाम का अभ्यास करो और अंत में ध्यान का अभ्यास।‘ स्पष्ट है कि मानसिक परिर्तन तब शुरू होता है, जब आप यम और नियम का अभ्यास शुरू करते हैं। जब आप आसन का अभ्यास शुरू करते हैं तो स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। प्राणायाम का अभ्यास करते हैं तो प्राण-शक्ति उत्पन्न होती है। प्रत्याहार के अभ्यास से मन को नियंत्रण में लाया जाता है। धारणा के अभ्यास से मन को केंद्रित तथा एकाग्रचित्त किया जाता है। पर मन की मूल प्रकृति को बदलने के लिए, मूल स्वभाव को बदलने के लिए, मन के मोथे को उखाड़ने के लिए हमें यम और नियम के अभ्यास से शुरूआत करनी होती है।

एक सरल तरीके से हम इसकी शुरूआत कर सकते हैं। रोज रात को सोने से पहले अपनी दिनचर्या का अवलोकन कर लीजिए। यथा, सबेरे उठे तो पहले क्या किया, पहले किसकी चेहरा देखा, पहले कौन-सा काम किया, किससे क्या बात की, अखबार में क्या पढ़ा, नाश्ते में क्या खाया, किस चीज ने हमको अधिक प्रभावित किया, किस चीज को अनदेखा किया आदि? मतलब अपनी दिनचर्या के प्रत्येक क्षण को पुन: अपने मानस-पटल पर एक बार देखिए और विचार कीजिए कि अगर यह परिस्थिति, यह व्यक्ति, यह अवसर या यह घटना फिर घटती है तो इसका सामना और भी अच्छे तरीके से कैसे कर सकते हैं।

एक-दो महीने तक रोज ऐसा करते हैं तो पाएंगे कि आपके विचार-व्यवहार और प्रतिक्रियाओं में अंतर आ गया है। इसी को योग कहते हैं। आप जो अहले सुबह टेलीविजन के सामने बैठकर जो करते हैं, वह योग नहीं है। असली योग तो वह है जो आपने रात को सोते समय किया। इसलिए कि योग शरीर विज्ञान नहीं है। यह जीवन विज्ञान है और जीवन में उत्तमता प्राप्त करने का एक तरीका है। यह मत सोचना कि ध्यान लगाने और आसन को ही योग कहते हैं या मन में अच्छे विचारों के उठने को ही योग कहते हैं। नहीं, ये सब योग के अलग-अलग अंग हो सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे शरीर कितने ही तंत्र-तंत्रिकाओं से बना हुआ है और हम उनमें से किसी को भी कम और ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं कह सकतें। यदि किसी का पेट खराब है तो वह अंग उसके लिए महत्वपूर्ण हो जाता है।

यदि हम योग को जीवन विज्ञान के रूप में देखते हैं तो आसन योग का दसवां भाग है। योग का पांच प्रतिशत प्राणायाम है। इस प्रकार योग असीम विज्ञान है, जो व्यक्ति के हर स्तर को प्रभावित करता है। हमारे गुरूजी स्वामी सत्यानंद जी कहते रहे हैं-“दुनिया में किसी भी चीज का सरल समाधान नहीं है। अनेक संभावनाएं होती हैं। इनमें से एक का चयन करना पड़ता है।“ जाहिर है कि वे संभावनाएं हमारे लिए उपयुक्त और अनुरूप होनी चाहिए। इनकी खोज करने के लिए हमें सजग रहना पड़ता है। यह सजगता हम ध्यान के द्वारा ही ला सकते हैं और हम जो बता रहे हैं वह ध्यान की सरल प्रक्रिया है। यह वह ध्यान नहीं है जो आपको मोक्ष की तरफ ले जाए। यह वह ध्यान है जो आपको अपने प्रति सजग बना दे, क्योंकि ध्यान की शुरूआत तो अपने प्रति सजग बनने से ही होती है।

आप स्वाभाविक परिस्थितियों में काम करते हुए आत्म-निरीक्षण कर सकते हैं। यह आपके योग की शुरूआत होगी। यह आपको जीवन के सकारात्मक गुणों की ओर ले जाएगी। इसलिए शुरू में ही  मैंने कहा कि “माली” बनो। इसलिए कि आपको सही बीज बोने हैं और उसकी रक्षा करनी है। आपको निश्चय, विश्वास तथा आंतरिक क्षमता के साथ अपने ढंग से जीवन जीने के लिए अपने भीतर साहस का विकास करना होगा। योग इसके लिए हमें अवसर उपलब्ध कराता है। यदि आप योग को समझ सकते हैं और अपनी दिनचर्या में इसको अपनाते हैं तो आपके व्यक्तित्व में अवश्य रूपांतरण होगा।  

मन और योग साधना

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती //

योगी की दृष्टि में सौ फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। यह ठीक है कि बीमारियों में परिस्थिति, परिवेश और प्रदूषण सबका योगदान होता है। पर यह कुप्रभाव भी तब होता है जब मन कमजोर पड़ जाए। मधुमेह रोग नहीं है। यह तो चिकित्सकों द्वारा दिया गया नाम है। हमलोगों के भीतर जन्म से ही काम, क्रोध, ईर्ष्या, राग, व्देष, मोह, लोभ आदि है। रोग यही हैं। हमारे जीवन के साथ इनका जैसे-जैसे विकास होता है, मन की अवस्था बिगड़ती है। मन दुर्बल हो जाता है।

शास्त्रों में लिखा है कि जन्म, व्याधि, जरा और मृत्यु जीवन के शाश्वत सत्य हैं। आदमी जन्म लेता है। उसके बाद उसे जिस सत्य का सामना करना पड़ता है वह है व्याधि। फिर जरा यानी बुढ़ापा आता है। अंत में मृत्यु। इन अवस्थाओं में व्याधि शब्द व्यापक है। इसलिए कि व्याधि केवल मधुमेह, दमा या कैंसर नहीं है। व्याधि जन्म से उत्पन्न भी होती है, जिसे हम मन से उत्पन्न व्याधि या बीमारी कहते हैं। 

मन विकारों से भरा हुआ है। ये जीवन को प्रभावित करते हैं, जीवन को संकीर्ण बनाते हैं और प्रतिभा को कुंठित करते हैं। नतीजतन बौद्धिक, आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति धीमी गति से होती है। पर योग बताता है कि संयम से मन के स्वभाव को कैसे बदला जा सकता है। संयम एक परिष्कृत व्यक्तित्व, एक सुलझे हुए व्यक्तित्व की पहचान है। जिसके जीवन में संयम की आधारशिला पड़ गई, उसके विचार, व्यवहार और कर्म धर्मानुकूल होते हैं।

साफ है कि जीवन से संबंधित व्याधि या मनोरोग का निदान संयम से ही संभव है। योगसूत्र में भी पहली बात कही जाती है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध: । यानी चित्त वृत्ति का निरोध। ताकि मनोरोग को समाप्त किया जा सके। इसके बाद दृष्टा की अवस्था प्राप्त होती है और स्वयं का ज्ञान होता है। यह जीवन की ऐसी अवस्था है, जिसमें आदमी अपने को संतुलित, संयत और सत्व में स्थापित कर पाता है। जब तक मनुष्य संतुलित नहीं होता, खुद का दृष्टा नहीं होता, संयमी नहीं होता, खुद का नियंता नहीं होता, योगाभ्यासी नहीं होता, स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं करता। स्वास्थ्य की परिभाषा है – अपने में स्थिर होना।  “तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्।“  यह योग की परिभाषा है।

व्याधि के बाद की अवस्था है जरा, बुढ़ापा। हम सभी जानते हैं कि आमतौर पर बुढ़ापे में किस दौर से गुजरना पड़ता है। बुढापे में तो कोई अंग ठीक से काम नहीं करता। तब हमें युवावस्था के उत्साह के बाद दु:ख का अनुभव होता है। पर योग की उल्टी रीति है। योग कहता है कि दु:ख को संयम के माध्यम से आनंद में बदल दो। चाहे इसके लिए जो भी मार्ग अपनाना पड़े। तब कोई कर्म मार्ग को अपनाता है तो कोई सेवा मार्ग को। कोई ज्ञान मार्ग को अपनाता है तो कोई ध्यान मार्ग को। 

तात्पर्य यह कि अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा जो भी प्रयास होता है, वह हमारे भौतिक जीवन को परिवर्तित करने के लिए होता है। अगर दु:ख है तो उसके बदले सुख, अगर विषाद है तो उसके बदले आशा। यदि अशांति है तो उसके बदले शांति। इस प्रयास को हम योग साधना कहते हैं। और अंत में, अपने आप में स्थित होना। यह जीवन में पूर्णता और उपलब्धि की निशानी है। जब मनुष्य अपने आप में स्थित हो पाता है तो उसके जीवन में योग सिद्ध होता है।  

(परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य हैं।

उच्च रक्तचाप के पालनहार हैं? योग-निद्रा है न !

यदि आप गलत जीवन शैली की वजह से उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन के शिकार हो चुके हैं तो कुछ कीजिए न कीजिए, योग्य प्रशिक्षक की देखरेख में उज्जायी प्राणायाम और योग निद्रा योग का अभ्यास नियमित रूप से जरूर कीजिए। अंग्रेजी दवाएं भले इस बीमारी से छुटकारा दिलाने में नाकाम हो

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