बात संतमत और संतों की

एस.के.राय /

इस धरती पर अनेकानेक संत अवतरित हुए और जनमानस के बीच ब्रह्मज्ञान से संबंधित अनुभव साझा किए। वे न तो अपना कोई साम्राज्य स्थापित करने आए थे, न ही धर्म। सच तो यह है कि संतों का एक ही प्रयोजन होता है और वह होता है-पीड़ित मानवता के कष्टों का निवारण और उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए सत्प्रेरित करते रहना। संत भी इन्सान ही होते हैं, इसलिये उनकी भाषा, उनका रहन सहन आम इंसान आसानी से ग्रहण कर सकता हैं, अपना सकता हैं।

ऋग्वेद, छान्दोग्योपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद् में सत् शब्द का प्रयोग परमात्मा और संत के लिए हुआ है। संत शब्द श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामचरितमानस, महाभारत आदि सद्ग्रंथों में मिलते हैं। इन्हीं संतों को सद्ग्रंथों में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, ऋषि, मुनि आदि भी कहा गया है। संत शब्द का प्रयोग प्रायः सदाचारी पवित्रात्मा महापुरुषों के लिए किया गया है। वस्तुतः संत उनको कहा गया है, जो अंतस्साधना के द्वारा जड़-चेतन की ग्रंथि को खोलकर सभी संशयों को निर्मूल नाश कर परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ हों।

संत शब्द संस्कृत के सन् शब्द में अस् धातु की संधि से बना हुआ सत् रूप हो गया है। जिसका अर्थ सदा एकरस रहनेवाला  होता है। सभी परमात्म- प्राप्त महापुरुषों का, शरीर की नश्वरता, माया की असत्यता, जीव की नित्यता, ईश्वर की शाश्वतता आदि विषयक विचार एक समान मिले रहने के कारण ही कहा गया कि सभी संतों का एक ही मत है। वही एक मत संतमत है।

जबसे इस धराधाम पर संतों का प्रादुर्भाव हुआ, तब से संत मत है। इसीलिए संतमत को परम प्राचीन मत कहा गया है। संतमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। किसी भी देश या जाति के परमात्म-प्राप्त महापुरुषों का विचार संतमत है।भगवान ऋषभदेवजी महाराज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, आचार्य शंकर, मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज, गोरखनाथजी महाराज, स्वामी रामानंदजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत भीखा साहब, संत पलटू साहब, संत जगजीवन साहब, संत दरिया साहब, संत शिवनारायण स्वामी, संत नामदेवजी महाराज, समर्थ रामदासजी महाराज, गोस्वामी  तुलसीदासजी महाराज आदि जितने महापुरुष हो गये; इन सभी महापुरुष ने देश-काल के अनुसार संसार के लोगों को अपना-अपना उपदेश दिये।

यही उपदेश उनके पीछे किसी विशेष कारणवश इन्हीं महापुरुषों के शिष्यों द्वारा अलग-अलग पंथ, संप्रदाय और मत के रूप में स्थापित होते हैं। जैसे, जैन मत, बौद्ध मत, नाथ पंथ, रामानंदी पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, दरिया पंथ, शिवरामी पंथ आदि। स्वामी रामानन्द जी के शिष्य कबीरदास जी का संतमत में अच्छा ख़ासा दखल दिखता है। संतों की कड़ी में सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं, जिनका उपदेश है कि शरीर के अंदर ही परमात्मा का वजूद है व उनकी साक्षात अनुभूति हम साधना के माध्यम से कर सकते हैं। यद्यपि कि यह बात अनेक संतों ने की कही है ।

अपने इस अलौकिक अनुभव को कबीर साहब ने एक शबद के माध्यम से जनमानस से साझा किया है। यह शबद बतीस दोहे में अंकित है, जिसमें बहुत विस्तार से शरीर और उसके सात चक्रों का वर्णन किया गया है। उसी शबद की सात पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ।

कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥

काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।

माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥

आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।

अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥

सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है॥

संतमत का यह बेहतरीन शबद अंड, पिंड और ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को परत दर परत खोल कर रख देता है।  शरीर के भिन्न-भिन्न चक्रों में देवताओं का निवास और उनकी महिमा का अद्भुत वर्णन दिखता है। संत मत इस बात का दावा करता है कि यह संत का अनुभव है। संतमत में यह बताया जाता है कि कबीर साहब के जिस शबद की चर्चा  हमलोगों ने कल किया है, वह कबीर साहब का अपना अनुभव है।

शबद का शीर्षक है “ कर नैनो  दीदार महल में प्यारा है “। इसका शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि ऐ साधक ! साधना में लग जाओ और अपने इस शरीर के अंदर ही परमात्मा का दर्शन कर लो।साधक के लिये इस शबद में दो दोहे वर्णित है जिनका अनुपालन अनिवार्य है।

“काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।

मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥

धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।

कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥

हमारे  शरीर के पैर के तलवे से सहस्त्रार तक के भाग में जो कुछ भी स्थित है, वह बहुमूल्य है और मनुष्य को मिला एक अनमोल ख़ज़ाना है।यही अंड, पिंड और ब्रह्माण्ड हमारे यात्रा के मार्ग हैं। हमें अंड से निकलकर ब्रह्म और परब्रह्म के आगे जाकर अनामी, अगम लोक की यात्रा इसी शरीर के माध्यम से ही करनी है।यह ऐसी यात्रा है जिसके आदि और अंत का कोई अता पता नहीं ।नौ द्वारों वाले इस शरीर ( दो आँखें, दो नाक , दो कान , एक मुँह, एक मल द्वार और एक मूत्र द्वार ) का दसवाँ द्वार दोनों आँखों के पीछे स्थित है जिसे तीसरा तिल भी कहते हैं।

रूहानी सफ़र तीसरे तिल से प्रारम्भ होता है और सहस्त्रार तक का रास्ता तय करना होता है। सुषुम्ना नाड़ी इस यात्रा का मुख्य माध्यम है।शरीर के अंदर जो सात चक्र हैं उनका विवरण इस शबद में इस प्रकार अंकित है।

मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।

देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥

स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥

नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा।

हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥

द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।

सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥

षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥

ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।

निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥

कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।

सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥

इस प्रकार उपर के सात दोहे में शरीर के सात चक्रों एवं उनके रंग, उस चक्र के देवता और वहाँ का पूरा वृत्तांत बताया है।

मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र या नाभि चक्र ,  अनाहत चक्र  , विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र  का वर्णन है। यहीं से रूहानी सफ़र शुरू कर सहस्त्रार तक पहुँचने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

कबीर साहब ने इसी शबद के दोहा 10 से दोहा 32 तक में इस मार्ग को जनमानस को प्रस्तुत किया है। कहते हैं कि इस मार्ग पर चलनेवाले साधक पहले चींटी चाल से , फिर मकड़ी चाल से तत्पश्चात् मीन ( मछली ) चाल से और फिर विहंगम चाल से चलने लगते हैं, संत मत ऐसा दावा करता है।

शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ।।32॥

सतगुरू की अनिवार्यता बताते हुए साधक से प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा से मिले इस शरीर का भरपूर उपयोग करते हुए अंड और पिंड को लाँघकर ब्रह्माण्ड में जाने का यत्न करें।

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