वर दे, वीणावादिनी वर दे !

किशोर कुमार//

महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” की कालजयी कविता “वर दे, वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे…..” हमारी प्रार्थना बन चुकी है। सच कहिए तो हर भारतीय के मन में यही भाव होता है कि प्राचीन भारत का गौरव और वैभव फिर से लौटे और भारत फिर विश्व गुरू बन जाए। पर यह तो तभी संभव है जब हमारी राष्ट्रभक्ति, संकल्प-शक्ति और पराक्रम के साथ माता सरस्वती की कृपा भी होगी। इस कृपा के लिए बसंत पंचमी के मौके पर की गई प्रार्थना बुद्धि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों को सन्मार्ग दिखाने वाली साबित होगी।

इसलिए हम प्रार्थना करें कि हे परा और अपरा विद्या की स्वामिनी माता सरस्वती, आप इस धरा पर रश्मियां बिखेर कर  हमें इतनी शक्ति दीजिए कि हम निरंतर सीखने और सभी की भलाई के लिए अपनी समझ व ज्ञान के अनुप्रयोग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नवीनीकृत कर सकें। हमें वैदिक ग्रंथों और संत-महात्माओं से पता चलता है कि जब भी दैवी शक्तियां इस धरा पर अपनी ऊर्जा बिखेरती हैं, तो सुपात्रों का निर्माण होता है। सुमधुर सामूहिक धुन जागृत होते हैं। सभ्यता के श्रेष्ठतम तराने झंकृत होते हैं। इससे सामाजिक प्राणियों में सद्भावना आता है, सुसंस्कृत सभ्य समाज का निर्माण होता है। इससे जगत का कल्याण होता है! महान सरस्वती सभ्यता भी तो इन्हीं विशिष्ट गुणों के लिए याद की जाती है।

हे वाग्देवी, हमें ज्ञात है कि विशाल सरस्वती नदी आपकी ही एक रूप थी। चूंकि आप ज्ञान, संगीत और रचनात्मकता की देवी हैं, इस वजह से वह नदी सभी जीवों के लिए बेहद कल्याणकारी थी। हे विद्यारूपा मां, आपका नदी स्वरूप विलुप्त प्राय: हो जाने के कारण महान हड़प्पा सभ्यता का पतन हो गया। सनातन संस्कृति और मानवता को बड़ा नुकसान हुआ। हमें इस बात का भान है कि जिस तरह गंगा और अन्य महत्वपूर्ण नदियों के किनारे मौजूदा भारतीय सभ्यता का रची-बसी है, उसी तरह सरस्वती नदी के प्रभाव क्षेत्र में भी महान सिंधु-सरस्वती सभ्यता थी, जो शिक्षा-संस्कृति और धन संपदा के मामले में बेहद समृद्ध थी। तभी जो भी विदेशी आक्रांता हमें लूटने आते थे, यहां का वैभव देखकर यहीं जम जाते थे और हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर राजसत्ता पर काबिज हो जाते थे।

आधुनिक युग में प्राचीनकाल में वैभवशाली भारत की चर्चा मात्र से जले-भुने लोग नैरेटिव सेट करने में जुटे रहें कि सरस्वती नदी और सरस्वती सभ्यता की कथाएं काल्पनिक हैं। पर सत्य कहां पराजित होती है। अपके वाहन हंस की तरह इसरो और नासा के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों के आधार पर दूध और पानी का भेद कर दिया है। सप्रमाण बता दिया है कि आज का घग्गर-हकरा नदी कुछ और नहीं, बल्कि सरस्वती नदी के ही अवशेष हैं। वैसे, अपनी जड़ों से जुड़े लोगों को आपके अस्तित्व को लेकर कभी संशय न था। हमें तो प्रयागराज स्थित संगम में एक नाविक भी बताता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन-स्थल कौन-सा है। हे मां भारती! आपकी कृपा और अपने अल्प ज्ञान की बदौलत हम श्रुति और स्मृति के आधार पर वैदिक ज्ञान को काफी हद तक संरक्षित करते आए हैं। इसलिए सरस्वती नदी घाटी सभ्यता की बातें भी मौखिक परंपरा के रूप में संरक्षित है।

हे वेदमाता! पुरातत्वविदों की खुदाई से पता चल चुका है कि उस काल में भी योग विद्या बेहद समृद्ध और सर्वग्राह्य थी। विभिन्न योग मुद्राओं वाली टेराकोटा मूर्तियां इस बात की गवाही दे रही हैं। यह आपकी महिमा का ही प्रतिफल था। आपकी मुद्राओं से मानव जीवन को धन्य बनाने के संदेश मिलते हैं। आपका कमल रूपी आसन में ज्ञान मुद्रा में होना संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक है। योगी बताते हैं कि ज्ञान मुद्रा बुद्धिमत्ता, स्मरण-शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि कराने वाली है। हमारे जीवन की जितनी भी क्रियाएं और विचार हैं, उनका सृजनात्मक नाद रूप ही इस जगत में सर्वत्र है। दोनों हाथों से वीणा धारण करना इसी बात का प्रतीक है। पुस्तक सर्वज्ञानमय स्वरूप का प्रतीक है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी की स्तुति में कोई चौहत्तर श्लोक हैं। उनसे पता चलता है कि सरस्वती नदी को बुद्धि, विवेक और अंतर्ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता था।

हे शास्त्ररूपिणी! हमें वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि आप प्रकृति को वाणी देने के लिए वसंत पंचमी के दिन अवतरित हुई और विविध रूप धारण करके सबका कल्याण करती रहीं। हम क्षमाप्रार्थी हैं कि अपनी ही कमजोरियों के कारण अपनी गौरवशाली संस्कृति से कटते गए और गोस्वामी तुलसीदास उक्ति “सकल पदारथ एहि जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं… को चरितार्थ करते रहे। पर हे मां, हमें सुबुद्धि दीजिए कि अब सर जॉन रिसले जैसों की दाल गलने न पाए। वह कहता था कि भारत की जातीय व्यवस्था भारतीयों को उनकी जड़ों से जुड़ने नहीं देगी। उसने इसी भावना से भारत में पहली बार सन् 1872 में जाति आधारित जनगणना करवाई थी। इसका परिणाम हुआ कि हम बिखर गए और उपनिवेशवादी बलशाली हो गए। आपकी शिक्षाओं से हमें इस बात का अहसास हो चला है कि आत्मभाव ही ऐसे विध्वंसक प्रयासों की काट है। और यह योग विद्या से प्राप्त होगा।

हे परम चेतना संपन्न माता सरस्वती! आपके हाथों की अक्षमाला (रूद्राक्ष) की महत्ता ही इतनी है कि ऋषियों ने अक्षमालिकोपनिषद् तक की रचना कर दी थी। इस उपनिषद् में भगवान कार्तिकेय प्रजापति को बतलाते हैं कि अक्षरमाला का प्रत्येक अक्ष (मनका) में दैवीय गुण हैं। पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि की दैवी शक्तियाँ इस अक्षमाला में समाहित हैं। समस्त विद्याओं और कलाओं का स्रोत भी यही अक्षमाला है। इन कथनों का सार यह कि ब्रह्मांड के समस्त ज्ञान-विज्ञान का स्रोत अक्षमाला ही है। 

हे हंसवाहिनी मां! आपके तेज का ही प्रतिफल है कि आपकी छाया में होने के कारण हंस भी प्रखर बुद्धि का स्वामी बन गया। तभी उसके पैंतालीस उपदेशात्मक श्लोकों वाली हंस गीता की रचना हो पाई थी, जो हमें यम-नियम सहित सर्वग्राह्य योग विद्या से परिचय कराती है। हे मां, आपका उज्जवल रंग ही प्रकाशमान ब्रह्म है। हमें योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित कीजिए। ताकि हममें नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जमाने की बुद्धि प्रकाशित हो सके। आपकी यह कृपा ही भारत के गौरव की पुर्नस्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)         

बात संतमत और संतों की

एस.के.राय /

इस धरती पर अनेकानेक संत अवतरित हुए और जनमानस के बीच ब्रह्मज्ञान से संबंधित अनुभव साझा किए। वे न तो अपना कोई साम्राज्य स्थापित करने आए थे, न ही धर्म। सच तो यह है कि संतों का एक ही प्रयोजन होता है और वह होता है-पीड़ित मानवता के कष्टों का निवारण और उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए सत्प्रेरित करते रहना। संत भी इन्सान ही होते हैं, इसलिये उनकी भाषा, उनका रहन सहन आम इंसान आसानी से ग्रहण कर सकता हैं, अपना सकता हैं।

ऋग्वेद, छान्दोग्योपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद् में सत् शब्द का प्रयोग परमात्मा और संत के लिए हुआ है। संत शब्द श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामचरितमानस, महाभारत आदि सद्ग्रंथों में मिलते हैं। इन्हीं संतों को सद्ग्रंथों में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, ऋषि, मुनि आदि भी कहा गया है। संत शब्द का प्रयोग प्रायः सदाचारी पवित्रात्मा महापुरुषों के लिए किया गया है। वस्तुतः संत उनको कहा गया है, जो अंतस्साधना के द्वारा जड़-चेतन की ग्रंथि को खोलकर सभी संशयों को निर्मूल नाश कर परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ हों।

संत शब्द संस्कृत के सन् शब्द में अस् धातु की संधि से बना हुआ सत् रूप हो गया है। जिसका अर्थ सदा एकरस रहनेवाला  होता है। सभी परमात्म- प्राप्त महापुरुषों का, शरीर की नश्वरता, माया की असत्यता, जीव की नित्यता, ईश्वर की शाश्वतता आदि विषयक विचार एक समान मिले रहने के कारण ही कहा गया कि सभी संतों का एक ही मत है। वही एक मत संतमत है।

जबसे इस धराधाम पर संतों का प्रादुर्भाव हुआ, तब से संत मत है। इसीलिए संतमत को परम प्राचीन मत कहा गया है। संतमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। किसी भी देश या जाति के परमात्म-प्राप्त महापुरुषों का विचार संतमत है।भगवान ऋषभदेवजी महाराज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, आचार्य शंकर, मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज, गोरखनाथजी महाराज, स्वामी रामानंदजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत भीखा साहब, संत पलटू साहब, संत जगजीवन साहब, संत दरिया साहब, संत शिवनारायण स्वामी, संत नामदेवजी महाराज, समर्थ रामदासजी महाराज, गोस्वामी  तुलसीदासजी महाराज आदि जितने महापुरुष हो गये; इन सभी महापुरुष ने देश-काल के अनुसार संसार के लोगों को अपना-अपना उपदेश दिये।

यही उपदेश उनके पीछे किसी विशेष कारणवश इन्हीं महापुरुषों के शिष्यों द्वारा अलग-अलग पंथ, संप्रदाय और मत के रूप में स्थापित होते हैं। जैसे, जैन मत, बौद्ध मत, नाथ पंथ, रामानंदी पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, दरिया पंथ, शिवरामी पंथ आदि। स्वामी रामानन्द जी के शिष्य कबीरदास जी का संतमत में अच्छा ख़ासा दखल दिखता है। संतों की कड़ी में सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं, जिनका उपदेश है कि शरीर के अंदर ही परमात्मा का वजूद है व उनकी साक्षात अनुभूति हम साधना के माध्यम से कर सकते हैं। यद्यपि कि यह बात अनेक संतों ने की कही है ।

अपने इस अलौकिक अनुभव को कबीर साहब ने एक शबद के माध्यम से जनमानस से साझा किया है। यह शबद बतीस दोहे में अंकित है, जिसमें बहुत विस्तार से शरीर और उसके सात चक्रों का वर्णन किया गया है। उसी शबद की सात पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ।

कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥

काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।

माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥

आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।

अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥

सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है॥

संतमत का यह बेहतरीन शबद अंड, पिंड और ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को परत दर परत खोल कर रख देता है।  शरीर के भिन्न-भिन्न चक्रों में देवताओं का निवास और उनकी महिमा का अद्भुत वर्णन दिखता है। संत मत इस बात का दावा करता है कि यह संत का अनुभव है। संतमत में यह बताया जाता है कि कबीर साहब के जिस शबद की चर्चा  हमलोगों ने कल किया है, वह कबीर साहब का अपना अनुभव है।

शबद का शीर्षक है “ कर नैनो  दीदार महल में प्यारा है “। इसका शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि ऐ साधक ! साधना में लग जाओ और अपने इस शरीर के अंदर ही परमात्मा का दर्शन कर लो।साधक के लिये इस शबद में दो दोहे वर्णित है जिनका अनुपालन अनिवार्य है।

“काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।

मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥

धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।

कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥

हमारे  शरीर के पैर के तलवे से सहस्त्रार तक के भाग में जो कुछ भी स्थित है, वह बहुमूल्य है और मनुष्य को मिला एक अनमोल ख़ज़ाना है।यही अंड, पिंड और ब्रह्माण्ड हमारे यात्रा के मार्ग हैं। हमें अंड से निकलकर ब्रह्म और परब्रह्म के आगे जाकर अनामी, अगम लोक की यात्रा इसी शरीर के माध्यम से ही करनी है।यह ऐसी यात्रा है जिसके आदि और अंत का कोई अता पता नहीं ।नौ द्वारों वाले इस शरीर ( दो आँखें, दो नाक , दो कान , एक मुँह, एक मल द्वार और एक मूत्र द्वार ) का दसवाँ द्वार दोनों आँखों के पीछे स्थित है जिसे तीसरा तिल भी कहते हैं।

रूहानी सफ़र तीसरे तिल से प्रारम्भ होता है और सहस्त्रार तक का रास्ता तय करना होता है। सुषुम्ना नाड़ी इस यात्रा का मुख्य माध्यम है।शरीर के अंदर जो सात चक्र हैं उनका विवरण इस शबद में इस प्रकार अंकित है।

मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।

देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥

स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥

नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा।

हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥

द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।

सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥

षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥

ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।

निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥

कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।

सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥

इस प्रकार उपर के सात दोहे में शरीर के सात चक्रों एवं उनके रंग, उस चक्र के देवता और वहाँ का पूरा वृत्तांत बताया है।

मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र या नाभि चक्र ,  अनाहत चक्र  , विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र  का वर्णन है। यहीं से रूहानी सफ़र शुरू कर सहस्त्रार तक पहुँचने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

कबीर साहब ने इसी शबद के दोहा 10 से दोहा 32 तक में इस मार्ग को जनमानस को प्रस्तुत किया है। कहते हैं कि इस मार्ग पर चलनेवाले साधक पहले चींटी चाल से , फिर मकड़ी चाल से तत्पश्चात् मीन ( मछली ) चाल से और फिर विहंगम चाल से चलने लगते हैं, संत मत ऐसा दावा करता है।

शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ।।32॥

सतगुरू की अनिवार्यता बताते हुए साधक से प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा से मिले इस शरीर का भरपूर उपयोग करते हुए अंड और पिंड को लाँघकर ब्रह्माण्ड में जाने का यत्न करें।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : विषमताओं से मुक्ति का आधार है योग-मार्ग

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं। इस साल इस दिवस का थीम है – ब्रेक द बायस। यानी समाजिक विषमताओं और पूर्वाग्रहों के कुप्रभावों से मुक्त होने का संकल्प। ताकि लैंगिक भेदभाव मिटे और समानता का अधिकार मिल सके। आध्यात्मिक उत्थान की कसौटी भी यही है, जहां नर और नारी के भेद मिट जाते हैं। वैदिक ग्रंथों में कहा भी गया है कि मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न ही उसकी आकांक्षा। बल्कि आत्मा मूल स्वरूप है, जो न नर है, न नारी। लिंग की दृष्टि से आत्मा का निर्धारण हो ही नहीं सकता। वैदिक काल में इस बात की समझ का ही नतीजा है कि वैदिक ग्रंथों में महिला-पुरूषों में व्यापक समानता के उदाहरण भरे पड़े हैं। ऋषिकाओं को ऋषियों से कमतर आंकना मुश्किल जान पड़ता है।

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। स्पष्ट है कि अलग-अलग काल खंडों में योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही।

वैदिककालीन अनेक ऋषिकाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ करती थीं। पुरानी बातों को जाने दीजिए। जगत्गुरू शंकराचार्य और पूर्व मीमांसा दर्शन के बड़े प्रसिद्ध आचार्य मंडन मिश्र की पत्नी भारती के बीच हुए शास्त्रार्थ को ही ले लीजिए। शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र हार गए तो भारती ने जगत्गुरू शंकराचार्य को चुनौती दे दी थी। उन्हें निरूत्तर कर दिया था। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू ने योग की गूढ़ विद्या परकाय प्रवेश विधि से राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश करके उनकी पत्नी से पत्नी से ज्ञान प्राप्त किया था। फिर भारती से शास्त्रार्थ करना संभव हो सका था।

योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

जगत्गुरू शंकराचार्य महिला शक्ति की महत्ता जानते थे। लिहाजा उनके द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग बंद कर दिए गए। आम महिलाओं के शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी योगाभ्यास को लेकर अनेक भ्रांतियां उत्पन्न की गईं। वैसे, बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविवास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। कुछ और संन्यासिनियों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। पर उन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए।  

पर बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां बदलने लगीं। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थी। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक विशेष तौर से महिला योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टी कृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। वरना वह तो पूर्वेतत्तर यूरोपीय देश लातविया मूल की थी और उनका जन्म 1899 में हुआ था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के उत्थान के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। वे समग्र शिक्षा पर काफी जोर देती हैं। यह समय की मांग भी है। लड़कियां औपचारिक शिक्षा ग्रहण करके डिग्रीधारी भर न बनें, बल्कि व्यावसायिक शिक्षा भी ग्रहण करके सबल और सक्षम बनें। जीवन में योग, अध्यात्म और भक्ति का समन्वय जरूरी है। पर ध्यान रहना चाहिए कि मृत्युलोक में हमारी उपस्थिति कर्मयोग यानी निष्काम कर्म के लिए है।

श्रीमद्भगवतगीता से लेकर योगमातिष्ठ तक में कहा गया है कि प्रभु की नित्य विद्यमानता के प्रति निरंतर जागरूक बने रहकर उसके प्रति अपने सब कर्मों को समर्पित कर दो और बिना अहंकार और विषय-वासनामय कामनाओं के यज्ञ भाव से कर्म करो। यही कर्मयोग है। इसके लिए योग का आश्रय लेना होता है। तभी चेतना का विस्तार होता है और जागरूकता अधिकाधिक सूक्ष्म होती है। फिर तो प्रतिकूल परिस्थितियां भी वरदान में बदली जा सकती है। ऋषिकाओं और आधुनिक युग की संन्यासिनियों के जीवन से भी हमें ऐसी ही प्रेरणा मिलती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कर्मयोग का आश्रय लेने का संकल्प लिया जाना चाहिए। यही मार्ग सामाजिक विषमताओं और पूर्वाग्रहों से मुक्ति दिलाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

स्वामी चिन्मयानन्द हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने देश भर में भ्रमण करते हुए देखा कि लोगों में किस तरह धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हुई हैं। उन्होंने उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, चिन्मय मिशन आंदोलन के प्रेरणा-स्रोत और वैदिक ज्ञान को जनमानस तक पहुंचाने वाले स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती को उनके निर्वाण दिवस पर नमन। वेदांत दर्शन के इस महान प्रवक्ता ने सन् 1993 में 3 अगस्त को अमेरिका की धरती पर भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर अपने जीवनकाल में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। इस लेख में श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए प्रसंगो की चर्चा करने की कोशिश है। पहले बात बिहार योग विद्यालय से जुड़े एक प्रसंग से।

सन् 1993 के नवंबर माह में बिहार के मुंगेर में विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसमें स्वामी चिन्मयानंद को अनिवार्य रूप से भाग लेना था। उनकी दिली इच्छा थी। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि मुंगेर में हर बीस वर्ष पर आयोजित होने वाला विश्व योग सम्मेलन अद्वितीय होता है। इसलिए देश-विदेश के आध्यात्मिक नेताओं को इसमें भाग लेने की सहज इच्छा रहती है। पर स्वामी चिन्मयानंद के लिए दूसरा कारण भी कम महत्व का नहीं था। विश्व योग सम्मेलन का आयोजक बिहार योग विद्यालय था और इसके संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती उनके प्रिय गुरू भाई थे।

कालचक्र ऐसा घूमा, परिस्थितियां ऐसी बनी कि वे विश्व योग सम्मेलन में भाग न ले सके थे। सम्मेलन से दो-ढ़ाई महीने पहले ही भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर विश्व योग सम्मेलन में उनकी सूक्ष्म उपस्थिति शिद्दत से महसूस की गई थी। स्मारिका के लिए भेजे गए उनके संदेश ने सबका ध्यान आकृष्ट किया। साथ ही यह भी पता चला कि उनके मन में अपने गुरू भाई के लिए सम्मान कितना था और यूं ही नहीं था। उन्होंने लिखा था – “परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती आधुनिक युग के महर्षि पतंजलि हैं।“

स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती स्वामी सत्यानंद सरस्वती से उम्र में बड़े थे। उनका जन्म 8 मई 1916 को केरल राज्य के एरनाकुलम में हुआ था, जबकि स्वामी सत्यानंद का जन्म 24 दिसम्बर 1923 को अल्मोड़ा में हुआ था। गुरू आश्रम में दोनों ने एक तरह की शिक्षा पाई थी। पर गुरू की प्रेरणा से स्वामी सत्यानंद योग के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे। वहीं स्वामी चिन्मयानंद वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुट गए थे।

स्वामी चिन्मयानंद जी में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने।

उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई।

इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए थे।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ।

एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। एक बार ज्ञान यज्ञ के दौरान बत्ती बुझ गई थी। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी है, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

वेद, पुराण, विज्ञान और टाइम मशीन

विज्ञान के इस युग में क्या ऐसा समय आएगा कि हमारे पास ऐसी टाइम मशीन होगी कि हम अपनी उम्र घटाने-बढ़ाने में सक्षम होंगे। पौराणिक कथाओं के पात्रों की तरह तीनों लोकों की यात्रा कर सकेंगे और अतीत और भविष्य को देख पाने में सक्षम हो पाएंगे? ये सवाल बेतुके जान पड़ते हैं। पर अध्ययन और महापुरूषों के साथ सत्संग से मेरी धारणा बदलती जा रही है। लगता है कि ब्रह्मांड में जो चीजें घटित हो रही हैं, वे हमारे जीवन में आज न कल साकार जरूर होंगी। आखिर प्राचीन ऋषि-मुनियों की तरह हम भी तरंगों के जरिए बातचीत कर पाएंगे, मोबाइल फोन या वायरलेस के वजूद में आने से पहले ऐसा किसने सोचा था?

हर्बर्ट जॉर्ज वेल्स का बहुचर्चित उपन्यास “द टाइम मशीन” जब पढ़ा था तो यही समझ पाया था कि टाइम मशीन, उससे अंतरिक्ष की रोमांचक यात्रा, एक ही व्यक्ति के कई-कई युगों तक जिंदा रहने की बात आदि लेखक की कल्पना मात्र है। ऐसे में लेखक को उसकी अद्भुत कल्पना-शक्ति के लिए दाद ही दी जा सकती थी।

तभी एक दिन विज्ञान के शिक्षक ने भौतिकशास्त्र पढाते हुए समझाया कि कुछ ब्रह्मांडीय किरणें प्रकाश की गति से चलती हैं। उन्हें एक आकाशगंगा पार करने में कुछ क्षण लगते हैं। लेकिन पृथ्वी के समय के हिसाब से ये दसियों हजार वर्ष हुए। मन में मंथन फिर शुरू हो गया। मुझे लगा था कि भौतिकशास्त्र की दृष्टि से यह भले सत्य है। पर गुरू जी भी कहते हैं कि उनकी जानकारी में दुनिया में अभी तक ऐसी कोई टाइम मशीन नहीं बनी, जिससे हम अतीत या भविष्य में पहुंच सकें। लिहाजा “द टाइम मशीन” के मामले में पुरानी धारणा बन रह गई।

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक पूज्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी के संपर्क में आया तो वे कई बार वेद-पुराण और अन्य प्राचीन शास्त्रों के प्रसंगों की चर्चा करते और तथ्यों से साबित कर देतें कि ये बातें किस तरह विज्ञानसम्मत हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक सनतकुमार, नारद, अश्विन कुमार आदि कई हिन्दू देवता टाइम ट्रैवल करते थे। भारतीय धर्मग्रंथों में टाइम मशीन की कल्पना की गई है।

मिसाल के तौर पर रेवत नामक राजा ब्रह्मा के पास मिलने ब्रह्मलोक गए और जब वह धरती पर पुन: लौटे तो यहां एक चार युग बीत चुके थे। कुछ ऋषि और मुनि सतयुग में भी थे, त्रेता में भी थे और द्वापर में भी। इसका यह मतलब कि क्या वे टाइम ट्रैवल करके पुन: धरती पर समय समय पर लौट आते थे। पौराणिक कथाओं से यह भी पता चलता है कि पृथ्वी पर ऐसे कई साधु-संत हुए हैं, जो आंख बंद कर अतीत और भविष्य में झांक लेते थे।

अल्बर्ट आइंस्टीन के पहले यह माना जाता था कि समय निरपेक्ष और सार्वभौम है। अर्थात सभी के लिए समान है। यानी यदि धरती पर दस बज रहे हैं तो मंगल ग्रह पर भी दस ही बज रहे होंगे। पर आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार ऐसा नहीं है। समय की धारणा अलग-अलग है। कुछ समय बाद ट्रेन में यात्रा करते हुए एक सहयात्री की पुस्तक पढने का मौका मिला था, जो आइंस्टीन पर था। उसमें आइंस्टीन ने कहा है कि दो घटनाओं के बीच का मापा गया समय इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें देखने वाला किस गति से जा रहा है।

मान लीजिए की दो जुड़वां भाई हैं- राम और श्याम। राम अत्यंत तीव्र गति के अंतरिक्ष यान से किसी ग्रह पर जाता है और कुछ समय बाद पृथ्वी पर लौट आता है जबकि श्याम घर पर ही रहता है। राम के लिए यह सफर हो सकता है एक वर्ष का रहा हो, लेकिन जब वह पृथ्वी पर लौटता है तो दस साल बीत चुके होते हैं। उसका भाई श्याम अब नौ वर्ष बड़ा हो चुका है, जबकि दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था। यानी राम दस साल भविष्य में पहुंच गया है। अब वहां पहुंचकर वह वहीं से धरती पर चल रही घटना को देखता है तो वह अतीत को देख रहा होता है।

इन तमाम प्रसंगों के बाद मुझे लगता है कि यदि आधुनिक युग में ऐसी टाइम मशीन का आविष्कार हो गया तो क्रांति हो जाएगी। मानव जहां खुद की उम्र बढ़ाने में सक्षम होगा वहीं वह भविष्य को बदलना भी सीख जाएगा। जाहिर है कि इतिहास फिर से लिखा जाएगा। इस दिशा में काम तेजी से किया जा रहा है। कुछ समय पहले ही  रूस के वैज्ञानिकों ने क्वॉन्टम कंप्यूटर के जरिए टाइम रिवर्सल का डेमोंस्ट्रेशन दिया है।

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