भक्ति योग और रामायण के यौगिक संदेश

भारत के योगियों औऱ संत-महात्माओं ने श्रीराम की शिक्षाओं को दो अलग-अलग संदर्भों में देखा है। एक है भक्ति मार्ग और दूसरा है भक्ति योग। भारतीय चिंतन परंपरा में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। श्रीमद्भागवत के मुताबिक भक्ति मार्ग नवधा भक्ति है। इसके मुताबिक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन और वंदन ये छह विधियां हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति दिव्यता के स्रोत से जुड़ पाता है। अपने अराध्य के साथ आंतरिक संबंध विकसति करता है। इसका अनुभव सातवें और आठवें चरण में होता है और नवें चरण में पूर्ण आत्म-समर्पण सिद्ध होता है। भक्ति योग इससे बिल्कुल अलग है। इसके तहत भावनाओं का अवलोकन, दिशांतरण और परिष्कार किया जाता है।

प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण  के लिए आयोजित भूमिपूजन अनुष्ठान के बाद अपने संबोधन में मर्यादा पुरूषोत्तम राम से प्रेऱणा लेने संबंधी युवाओं से जो अपील की, उसे आध्यात्मिक आलोक में देखा जाए तो गहरे अर्थ हैं और वे भक्ति योग की बातें हैं। पिछली शताब्दी के महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती श्रीराम और रामायण के यौगिक संदेशों पर विस्तार से संदेश देते रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, राम का जीवन और रामायण की बातें पग-पग पर हमारे जीवन की विषमता और कटुता, युद्ध और भय, मृत्यु और जीवन के प्रति सतर्क करती रही हैं। रामायण का एक ही संदेश है – जागते रहो।

संकेतों को पकड़े तो समझना आसान होगा कि हमारे अंदर जो आत्मा, आत्म-स्फूर्ति और आत्म-शक्ति है, वही राम है। सीता बुद्धि और शास्त्रोक्त ज्ञान एवं तर्कशीलता की प्रतीक हैं। रावण के दस सिर जीव की दस इंद्रियों के प्रतीक हैं। रावण का निवास जिस तरह सोने की लंका में था, हमारी आत्मा भी भौतिक शरीर में सूक्ष्म रूप से उसी तरह रहती है। असंख्य रानियों के बावजूद रावण में पर स्त्री की कामना बनी रहती थी। यह इस बात का द्योतक है कि इंद्रियों की भोग-तृप्ति की कोई सीमा नहीं है। मेघनाद मन है और सतर्कता और ब्रह्मचर्य लक्ष्मण हैं।

अयोध्या को आत्म-निकेतन कहना चाहिए। श्रीराम अध्योध्या से निकल कर जिस तरह वनगमन करते हैं, उसी तरह आत्मा अपने आत्म-निकेतन से निकल कर संसार वन में भटकती है। इस संसार वन में हमारे अंदर के तुच्छ विचार, तामसी प्रवृत्तियां ही खरदूषण और मरीच की तरह हम पर आक्रमण करती है। श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण को गुफा में भेजकर इन राक्षसों को अकेले ही मारा था। इस प्रसंग से सीख मिलती है कि हमें आपात् स्थिति में तर्क-वितर्क में फंसकर आत्मबल का सहारा लेना चाहिए। रावण इंद्रियों का प्रतीक है तो मारीच इच्छा का प्रतीक है। तभी मारीच रावण के बहकावे में आ जाता है।

राम सीता के वियोग में वन में शोकाकुल होकर भटकते हैं। इसका संदेश यह है कि जब आत्मा का ज्ञान और बुद्धि से संपर्क टूट जाता है तो आत्मा जगह-जगह ठोकरें खाती फिरती है। ऐसे में आत्मा को सत्संग और भक्ति का सहारा लेना होता है। समुद्र में सेतुबंध सत्संग का औऱ हनुमान का साथ भक्ति का प्रतीक है। इंद्रियों की पराजय का अनूठा उदाहरण रावण के दरबार में देखने को मिलता है, जब अंगद रावण को चुनौती देते हैं कि दरबार को कोई उसका पैर उठा दे तो राम पराजय मान लेंगे। पर अंगद के पांव शक्तिशाली रावण सहित कोई न उठा पाया। मतलब यह कि अंगद के आत्मबल के आगे दुष्प्रवृत्तियों (राक्षसों) की अगुआई करने वाली इंद्रियां (रावण) तक पराजित हो जाती हैं।

रावण का भाई कुंभकर्ण आलस्य और शोषण का प्रतीक है। आलस्य के नाश के लिए आत्मबल की जरूरत होती है। श्रीराम के आत्मबल से कुंभकर्ण मारा जाता है। उधर रावण का पुत्र मेघनाद मन की दूषित भावनाओं और कुटिलता का प्रतीक है। ये दोनों ही बातें इतनी बलशाली होती हैं कि कई बार सतर्कता और साधना को भी मात दे देती हैं। तभी मेघनाद का वाण लक्ष्मण को लग जाता है। तब ब्रह्मचर्य का तेज और संयम का चमत्कार दिखता है। हनुमान जी अपनी इन शक्तियों से मन की कुटिलताओं को पराजित कर देते हैं।

रावण इंद्रियों का प्रतीक है और आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि दमन करके इंद्रियों का नाश आसान नहीं है। तभी जब-जब रावण के सिर काटे जाते थे, वे उभर आते थे। खून की एक-एक बूंद से रावण उत्पन्न हो जाता था। ऐसे ही समय में आते हैं विभीषण, जो सद्विवेक और सद्वृत्तियों के प्रतीक हैं। इंद्रियों के बोझ से दबी सद्वृत्तियों का साक्षात्कार आत्मबल औऱ आत्म-दृढ़ता से होता है तो दुष्प्रवृत्तियों के विनाश का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसलिए श्रीराम रावण की नाभि से जैसे ही अमृत रूपी वासना और लिप्सा को खींचते हैं, रावण का अंत हो जाता है। इस तरह हमें ज्ञात होता है कि इंद्रियों और दुष्प्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न की गईं बाधाओं को किस तरह कुचल कर आत्मा के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

श्रीराम के जीवन पर आधारित रामायण में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनसे हमें आदर्श जीवन जीने के संदेश मिलते हैं। श्रीराम के मजूबत यौगिक संदेशों का असर ही है कि गांव-गांव में जिन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं है, वे भी रामायण की चौपाइयां बेधड़क बोलते हैं और उसके मायने भी बताते हैं। पांडवानी लोक गायिकों और गायिकाओं के मामले में भी यही बात लागू है। उनके बीच रामायण बेहद लोकप्रिय है, जबकि उनमें से ज्यादातर पढ़ना-लिखना नहीं जानतें। श्री राम के आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं।   

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, भक्ति योग के तहत श्रीराम के यौगिक मार्म का अनुसरण करने से हृदय की प्रतिभाओं का विकास होता है। स्वयं को इस मार्ग पर स्थापित कर लेने के बाद भावनाएं अंतरात्मा की खोज में दिशांतरित हो जाती हैं। ऐसे में जब अंतरात्मा से साक्षात्कार होगा तो समझ में आ जाएगा कि जीवात्मा परमात्मा का ही प्रतिबिंब है और यही भक्ति की परिणति है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

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