भगवान नित्यानंद : गणेशपुरी के सिद्धयोगी

सिद्धयोग परंपरा के प्रेरणास्रोत, बीसवीं सदी के महान योगी गणेशपुरी के भगवान नित्यानंद में शक्तिपात दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति के भीतर निष्क्रिय पड़ी दिव्य शक्ति को जगाने की क्षमता थी। वे अपने योग्य शिष्यों को शक्तिपात के जरिए कोलोकोपकार के लिए सहज ही सिद्ध बना देते थे। पर यह वैसा शक्तिपात नहीं था, जैसा कि आजकल ढोंगी बाबा पांच-पांच सौ रूपए में शक्तिपात करने का दावा करते रहते हैं। भगवान नित्यानंद अक्सर कहते थे कि जिस पर सिद्ध की कृपा होती है, वह भी सिद्ध हो जाता है। वास्तव में, गुरु कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि ईश्वरीय कृपा की दिव्य शक्ति है। इसलिए, वह स्वयं भगवान होता है और साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए आध्यात्मिक गुरु का रूप धारण करता है।

दुनिया भर में मशहूर सिद्धयोग परंपरा के महासमाधिलीन दो महान संतों भगवान नित्यानंद और उनके पट्ट शिष्य स्वामी मुक्तानंद को श्रद्धांजलि स्वरूप यह लेख प्रस्तुत है। अगस्त का महीना सिद्धयोग परंपरा के अनुयायियों के लिए खास होता है। इसी महीने में भगवान नित्यानंद का महासमाधि दिवस (8 अगस्त) होता है। स्वामी मुक्तानंद को अपने गुरू से शक्तिपात के जरिए सिद्धियां भी इसी महीने यानी 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुई थीं। वैसे भी जिस तरह स्वामी मुक्तानंद की आध्यात्मिक यात्रा की चर्चा भगवान नित्यानंद के बिना अधूरी रह जाती है, वैसे ही उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को ठीक तरह से समझने के लिए भी स्वामी मुक्तानंद के प्रसंगों का उल्लेख बेहतर होता है।

भगवान नित्यानंद की यौगिक अनुभूतियों पर आधारित सिद्धयोग के प्रवर्तक स्वामी मुक्तानंद ने आत्मकथा में अपने गुरू की शक्तियों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है – “भगवान नित्यानंद भक्तों को अपने घरों में ही बैकुंठानुभूति करा देते थे। वे महापुरूष कृपामात्र से भक्त को योगी बनाते थे और कठिन साधना के बिना साधक को भक्तिसुख का पुजारी बनाते थे। कृपामात्र से ज्ञान-दृष्टि करा देते थे। प्रपंच में ही ब्रह्म दिखाते थे। नर-नारियों को परस्पर देवो भव: का मंत्र पढ़ाते थे। वे एक महान सिद्धलोक के वासी थे। पूर्ण सिद्ध थे। उनमें ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का संपूर्ण समन्वय था।“ सच है कि अपने गुरू के बारे में स्वामी मुक्तानंद ने जो कुछ कहा, उसके एक दो नहीं, बल्कि हजारों उदाहरण मिलते हैं।

एक प्रसंग तो भगवान नित्यानंद के व्यक्तिगत जीवन से ही जुड़ा हुआ है। पर पहले उनकी शैशवावस्था से लेकर आध्यात्मिक यात्रा की शुरूआत के दिनों की बात। उसी में अंतर्निहित है वह प्रसंग भी। कथा है कि सन् 1897 में एक तूफानी रात थी। सबको अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। पेशे से वकील पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले ईश्वर अय्यर के घर काम करने वाली उन्नियाम्मा भी पूरी रफ्तार से घर चली जा रही थी। पर बीच रास्ते में घने जंगलों के पास अचानक उसके पांव थम गए। एक नवजात शिशु जमीन पर पड़ा था और कोबरा सांप फन फैलाए उसकी रखवाली कर रहा है। उन्नियाम्मा का वात्सल्य भाव जग गया। उधर, ऐसा लगा मानो सांप को उन्नियाम्मा की ही प्रतीक्षा थी। वह पीछ मुड़ा और जंगलों में विलीन हो गया। उन्नियाम्मा उस शिशु को सीने से लगाए घर पहुंच गई। उसका नाम रखा रमण और अपने बच्चों के साथ उसकी भी परवरिश करने लगी थी।

उस शिशु पर जब ईश्वर अय्यर की नजर गई तो वहीं ठहर गई। उन्हें इस बात का अहसास पहले से था कि जिस शिशु की रखवाली कोबरा सांप कर रहा हो, वह कोई सामान्य बालक नहीं हो सकता। उन्होंने उसे अपने पास रखकर शिक्षा दिलाने का फैसला किया। इसमें वे सफल भी रहे। वही रमण अपनी उच्च आध्यात्मिक साधनाओं के बाद भगवान नित्यानंद के रूप में मशहूर हुए। नित्यानंद नाम के साथ भी एक प्रसंग जुड़ा हुआ है। रमण उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वर अय्यर के साथ तीर्थयात्रा पर थे। पहाड़ों में अचानक रमण की आध्यात्मिक शक्तियां जागृत हो गईं। मन बदल गया। घर न लौटन की जिद पर अड़ गए। ईश्वर अय्यर रमण से अलग रहने की सोच भी नहीं सकते थे। पर रमण की तीब्र इच्छा को ध्यान में रखकर वे अकेले ही घर लौट गए। रमण ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे जब कभी याद करेंगे, वह उनके पास प्रस्तुत हो जाएगा।

थोड़े समय बाद ईश्वर अय्यर बीमार पड़े। भरोसा न रहा कि जीवित रह पाएंगे। ऐसे में रमण की एक झलक पाने तीब्र इच्छा हुई और चमत्कार हो गया। रमण उपस्थित हो गए। ईश्वर अय्यर सूर्य के उपासक थे। वे रमण की शक्ति भांप गए थे। लिहाजा अंतिम क्षण में साक्षात सूर्य के दर्शन कराने की इच्छा व्यक्त की। रमण ने तुरंत उनका कमरा अंदर से बंद कर लिया। बाहर खड़े लोगों ने अनुभव किया कि ईश्वर अय्यर का कमरा अकल्पनीय प्रकाश से भरा हुआ है। दरअसल, साक्षात् सूर्य अपने भक्त ईश्वर अय्यर को दर्शन दे रहे थे। अंतिम इच्छा पूरी होने के बाद अय्यर के मुंह से सहसा निकल गया – “तुमने मुझे ब्रह्मानंद दिया है। आज से तुम्हारा नाम नित्यानंद है।“

भगवान नित्यानंद और उनके शिष्य स्वामी मुक्तानंद का भले भौतिक शरीर नहीं हैं। पर उनकी अलौकिक शक्तियों, उनकी सूक्ष्म ऊर्जा के प्रवाह को मुंबई से कोई 80 किमी दूर ठाणे जिले के गणेशपुरी स्थित सिद्धपीठ जाने वाले या रहने वाले शिद्दत से महसूस करते हैं। यही स्थल दोनों संतों की तपोभूमि है। भगवान नित्यानंद ने इसी स्थान पर शक्तिपात करके स्वामी मुक्तानंद को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। मौजूदा समय में गुरूमाई चिद्विलासानंद पीठाधीश्वर हैं। सिद्ध गुरूओं से प्रदत्त आध्यत्मिक शक्तियां भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सिद्धयोग परंपरा को पल्लवित-पुष्पित करने में मददगार है। सच तो यह है कि भक्ति, श्रद्धा और प्रेम ने गणेशपुरी को धरती पर स्वर्ग बना दिया है। सिद्धयोग स्वामी मुक्तानंद द्वारा स्थापित एक आध्यात्मिक मार्ग है। इस मार्ग में पराशक्तिमयी श्रीकुंडलिनी महाविद्या को सिद्धविद्या कहा जाता है और साधक सिद्ध विद्यार्थी कहलाते हैं। सिद्धपीठ में दी गई कुंडलिनी दीक्षा शांभवी दीक्षा कहलाती है। हंस गायत्री व हंस प्रणव इसके जपमंत्र हैं। प्राण-अपान द्वारा हंसानुसंधान ही इस मार्ग का प्राणायाम है।

निसंदेह भगवान नित्यानंद उच्चकोटि के अवधूत थे। भक्तगण उन्हें बाबा कहकर पुकारते थे। ईश्वर अय्यर के देवलोक गमन के बाद और गणेशपुरी में साधना प्रारंभ करने से पहले सन् 1920 से लेकर सात वर्षों तक उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में साधना की थी। इस दौरान अक्सर मौन रहते थे। वे न सत्संग करते थे और न ही कुछ लिखते-पढ़ते थे। पर कभी-कभी ध्यान की अवस्था में अपने भक्तों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कुछ बोल जाते थे। उनकी एक शिष्या थीं साध्वी तुलसी अम्मा। उन्हें इसी मौके का इंतजार होता था। बाबा जैसे ही कुछ बोलते, तुलसी अम्मा उसे कन्नड भाषा में लिपिबद्ध कर लेती थीं। यह संकलन “चिदाकाश गीता” नाम से मशहूर हुआ। उसमें वेदांत दर्शन का सार है। भाषा सरल है। जैसे, बारिश को माया और छाते के हैंडल को चित्त बताकर दोनों ही गूढ़ बातों की सहज व्याख्या कर दी गई है। मान्यता है कि सिद्धयोग परंपरा के दोनों समाधिस्थ गुरू आज भी अपने भक्तों पर सदैव चिरशांति औऱ नित्यतृप्ति प्रदान करते रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives