पश्चिम में योग व अध्यात्म के पितामह परमहंस योगानंद के 100 साल

परमहंस योगानंद के पश्चिम में आगमन की 100 वीं वर्षगांठ पर उन्हें अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है। वे भारत के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। यही वजह है कि उनकी यश की गाथाएं सबकी जुबान पर हैं। अमेरिका में उनके द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के मौजूदा अध्यक्ष स्वामी चिदानंद अपने गुरू को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने पश्चिम को क्रियायोग के रूप में भारत की ऐसी अमूल्य निधि दी, जो स्वयं को जानने का प्राचीन विज्ञान है। यह मानव जाति के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण उपहारों में से एक है।

परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन पहुंंचे थे तो गर्मजोशी से हुआ था स्वागत।

अपने अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश से पश्चिमी जगत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को आलोकित करने वाले जगद्गुरू परमहंस योगानंद के अमेरिका की धरती पर कदम रखने के 100 साल पूरे हो गए। वे पहली बार सन् 1920 में 19 सितंबर को एक धर्म सभा में भाग लेने बोस्टन गए थे। वहां उनकी अलौकिक ऊर्जा इस तरह प्रवाहित हुई कि क्रियायोग के रथ पर सवार आध्यात्मिक आंदोलन कम समय में ही जनांदोलन बन गया था। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए किए गए इस ऐतिहासिक कार्य की वजह से वे अमर हो गए। उनकी प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी।

परमहंस योगानंद वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर धर्म और योग की शास्त्रसम्मत बातें करते थे। इसलिए ध्यान के योग विज्ञान, संतुलित जीवन की कला, सभी महान धर्मों में अंतर्निहित एकता जैसी उनकी बातें अकाट्य होती थीं। तभी श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण द्वारा बतलाए गए क्रियायोग की विराट शक्ति से अमेरिकी नागरिकों को परिचित कराने के मार्ग के अवरोध दूर होते चले गए थे। क्राइस्ट को मानने वाले कृष्ण को भी मान बैठे और परमहंस योगानंद योग व अध्यात्म के पितामह के तौर पर स्वीकार कर लिए गए।

 “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” 20वीं शताब्दी का एक ऐसा आध्यात्मिक आत्मकथा है, जो संतों, योगियों, विज्ञान व चमत्कार और मृत्यु व पुनरूत्थान के जगत् की एक अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाता है। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो अमेरिका सहित दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।  न्यूयार्क टाइम्स की खबर का शीर्षक था – एक अद्वितीय वृतांत। इंडिया जर्नल ने लिखा – “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” एक ऐसी पुस्तक है, जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है। शेफील्ड टेलीग्राफ ने लिखा – एक स्मारकीय कार्य। न्यूजवीक ने लिखा – एक दिलचस्प एवं स्पष्ट व्याख्यापूर्ण अध्ययन।

परमहंस योगानंद अपने गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परमगुरू के गुरू महावतारी बाबाजी की प्रेरणा से अमेरिका गए थे। उन्हें क्रियायोग का प्रचार करने को इसलिए कहा गया था, क्योंकि यह अशांत मन को शांति प्रदान करके उसे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम है। इस योग को अति प्राचीन पाशुपत महायोग का अंश माना जाता है। ऋषि-मुनि पाशुपत महायोग को गुप्त रखते थे और अपनी अंतर्यात्रा के लिए उपयोग करते थे। बाद में तंत्र के आधार पर विकसित पाशुपत योग को कुंडलिनी योग और राजयोग के आधार पर विकसित योग को क्रियायोग कहा गया। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने उसी क्रियायोग की दो बार चर्चा की है।

योगदा सत्संग सोसाइटी के 100 साल पूरे होने पर सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस योगानंद की याद में डाक टिकट जारी किया था।

क्रियायोग के बारे में अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में पहमहंस योगानंद ने कहा है कि इस लुप्तप्राय: प्रचीन विज्ञान को महावतारी बाबाजी ने प्रकट किया और अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को उपलब्ध कराया था। तब बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था – “19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग तुम्हारे माध्यम से विश्व को दे रहा हूं, उसे श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था। बाद में महर्षि पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।“ युक्तेश्वर गिरि कहा करते थे कि क्रियायोग एक ऐसी साधना है, जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ाई जा सकती है। बिहार योग के जनक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर ऊर्जा का क्षेत्र है. यह क्रियायोग का मूल दर्शन है। चिंता और परेशानियों के इस युग में मनुष्य की आध्यत्मिक प्रतिभा को जागृत करने की सबसे शक्तिशाली विधि है।

गोरखपुर का यह वही मकान है, जिसमें मुकुंद घोष का जन्म हुआ था, जो बाद में पूरी दुनिया में परमहंस योगानंद के नाम से मशहूर हुए थे। उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। तब उनके पिता भगवती चरण घोष रेलवे के पदाधिकारी के रूप में गोरखपुर में पदस्थापित थे और मुफ्तीपुर थाना क्षेत्र में शेख मोहम्मद अब्दुल हाजी के मकान में किराएदार थे। मौजूदा समय में वह मकान कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है।

परमहंस योगानंद को पता था कि धार्मिक भिन्नता के कारण अमेरिका में क्रियायोग का प्रचार करना औऱ अपनी बातें लोगों को मनवाना आसान न होगा। ऐसे में उन्होंने दो सूत्र पकड़े। पहला तो लोगों को समझाया कि ज्यादातर मामलों में गीता के संदेश औऱ बाइबल के संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। फिर युवाओं को समझाया कि वे एक ऐसा यौगिक उपाय जानते हैं, जो मानसिक अशांति से उबारने में कारगर है। वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी युवा मानसिक अशांति से बचने के लिए टैंक्वेलाइजर जैसी दवाओं के दास बनते जा रहे थे। परमहंस योगानंद कहते थे कि आध्यात्मिकता की सच्ची परिभाषा है शांति और अशांति की दवा भी यही है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी यौगिक उपाय के जरिए अशांति से उबारा था। क्राईस्ट ने भी शांति को ही अशांति का एकमात्र उपाय माना था। इसलिए हर व्यक्ति शांति का राजकुमार बनकर आत्म-संतुलन के सिंहासन पर बैठ सकता है और अपने कर्म-साम्राज्य का निर्देशन कर सकता है। यह शांति कुछ और नहीं, बल्कि क्रियायोग है, जिसकी शिक्षा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। विज्ञान की कसौटी पर कही गई ये बातें मानसिक समस्याओं से जूझते पश्चिम के लोगों को समझ में आई और क्रियायोग लोकप्रिय हो गया था।

परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर बीते साल भारत सरकार ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ने इस मौके पर कहा कि परमहंस योगानंद भारत के महान सपूत थे, जिन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान कायम की। लोगों को मानवता के प्रति वैश्विक रूप से जागरूक करने का काम तब किया, जब संचार के साधन भी सीमित थे। भारत को अपने इस महान सपूत पर गर्व है, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों के दिलों में एकता का संदेश भरा।’

परमहंस योगानंद का अमेरिका में सबसे पहला व्याख्यान “धर्म का विज्ञान” विषय पर हुआ था। उन्होंने एक तरफ जहां धर्म को परिभाषित किया तो दूसरी तरफ योग की व्यापकता की भी व्याख्या की। इसके साथ ही कहा कि धर्म का आधार वैज्ञानिक है और योगबल के जरिए धर्म मार्ग पर यात्रा करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा बाहर नहीं अपने भीतर है। वहां तक पहुंचने के यौगिक मार्ग हैं, उपाय हैं। मेडिटेशन का लाभ तभी मिलेगा जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पहले से बनाए गए आध्यात्मिक राजमार्ग पर चला जाएगा। इस काम में रश्म अदायगी से भी बात नहीं बनने वाली। वे कहते थे – यदि आप एक या दो डुबकियों में मोती प्राप्त नहीं कर पातें तो सागर को दोष न दें। अपनी डुबकी को दोष दें। पर ख्याल रखें कि ध्यान करना धर्म का सच्चा अभ्यास है।

परमहंस योगानंद ने 2017 में अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र के रांची शहर में योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापाना करके अपने आध्यात्मिक आंदोलन का श्रीगणेश किया था।

कैलिफोर्निया में आध्यात्मिक सभा हुई तो उन्होंने कृष्ण और क्राईस्ट के उपदेशों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया था – “बाइबल में कहा गया है कि मैं द्वार हूं। मेरे द्वारा यदि कोई मानव प्रवेश करता है तो वह उद्धार पाएगा। अंदर व बाहर आया-जाया करेगा। आहार प्राप्त करेगा। दूसरी तरफ भारतीय संत पहले से कहते रहे हैं कि सर्वप्रथम ईश्वर को जानो, फिर जो कुछ भी आप जानने की इच्छा करेंगे, वे आपके समक्ष प्रकट कर देंगे। यह सब उनका साम्राज्य है, यह उनकी ही ज्ञान है। योगशास्त्र कहता है कि भ्रूमध्य कूटस्थ केंद्र है, जो कि आध्यात्मिक नेत्र का स्थान है। केवल दिव्य चेतना में हम इस द्वार के पीछे विशुद्ध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।“ इन सभी बातों का सार एक ही है।

विज्ञान की भाषा में भ्रू-मध्य को पीनियल ग्रंथि का स्थान कहा जाता है। इस ग्रंथि से मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। पीनियल ग्रंथि आध्यात्मिक यात्रा के लिहाज से बड़े काम की है। पीनियल ग्रंथि पर ध्यान की अवस्था में होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इस दौरान पीनियल ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होने लगता है तो मानसिक उथल-पुथल कम जाता है। योग विज्ञान में इस स्थान को आज्ञा चक्र और तीसरा नेत्र का स्थान कहते हैं। इसे जागृत करने की कई यौगिक उपाय हैं। उनमें एक है शांभवी मुद्रा। शिव संहिता के मुताबिक शंकर भगवान ने पार्वती को त्रिनेत्र जागृत करने के लिए यह विधि बताई थी। इसलिए इसे महामुद्रा कहते हैं। क्रियायोग से संपूर्ण चक्र क्रियाशील होते हैं तो इसके अद्भुत नतीजे मिलते हैं। ऐसी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत बातें पश्मिम के लोगों को समझते देर न लगी थी।

परमहंस योगाानंद और उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परम गुरू के गुरू महावतार बाबा जी।

पश्चिम के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिको, दर्शन शास्त्रियों और अन्य आध्यात्मिक लेखकों की पुस्तकें भी इस बात की गवाह हैं कि परमहंस योगानंद अपने मिशन में पूरी तरह कामयाब हुए थे। तभी उनकी मान्यताओं को आधार बनाकर शोध किए जा रहे हैं। उन शोधों के परिणामों के आधार पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं। ऐसी असरदार है उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा। सर जॉन मार्क्स टेंप्लेटन और रॉबर्ट एल हर्मन की पुस्तक है – “ईज गॉड द ओनली रियलिटी – साइंस प्वाइंट्स डीपर मीनिंग ऑफ यूनिवर्स?” उसमें कहा गया है कि यद्यपि विज्ञान और धर्म में विरोधाभास दिखता है। पर दोनों एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। यदि ईश्वराभिमुख कार्य होगा, जो कि होगा, तो चौंकाने वाले रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है।

यह सुखद है कि पश्चिमी दुनिया में आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरू परमहंस योगानंद और उनकी शिक्षाओं पर बीते तीन सालों से लगातार अंतर्राष्ट्रीय फलक पर चर्चा हो रही है। इसके कारण उनके कालजयी आध्यात्मिक संदेश नई पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। पर आध्यात्मिक राजमार्ग पर चलने के लिए इतने से बात बनने वाली नहीं। परमहंस जी सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के विस्तार की योजनाओं के बारे में शिष्यों को बताते हुए कहा था – “याद रखो, मंदिर मधु का छाता है, लेकिन ईश्वर ही मधु है। लोगों को आध्यात्मिक सत्य के विषय में बता कर ही संतुष्ट न रहो। उन्हें दिखलाओ कि वे स्वयं किस प्रकार ईश्वरीय अनुभूति पा सकते हैं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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