उठो पार्थ! कायर मत बनो

किशोर कुमार //

दुनिया भर में फैले सनातन धर्म के अनुयायी इस बार ज्यादा ही उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। वैसे तो गीता जयंती 3 दिसंबर को है। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 19 नवंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। महान विद्वानों द्वारा गीता का सार सुनने-समझने के लिए देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। इनके आलावा भी देश-विदेश में गीता जयंती की जोरदार तैयारियां हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों पर दुनिया भर में किए गए विज्ञान जगत खासा उत्साहित है।  तभी कुशल प्रबंधकों की फौज खड़ी करने में भी गीता-ज्ञान ही सर्वाधिक उपयुक्त माना जा रहा है। आखिर श्रीमद्भगवतगीता इतना महत्वपूर्ण क्यों है? क्यों इसकी स्वीकार्यता दिनोंदिन क्यों बढ़ती जा रही है?

इन मूल प्रश्नों पर विचार करने से पहले श्रीमद्भगवद्गीता से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

अब आते हैं मूल प्रश्नों पर। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दुनिया के सबसे अधिक अवसादग्रस्त व्यक्ति हैं। हर तीन में से एक व्यक्ति अवसादग्रस्त है। छोटे-छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं हैं। इस मामले में विकासशील से लेकर विकसित देशों तक के हालात एक जैसे हैं। कारण अनेक हैं। पर परिणाम एक ही। जाहिर है कि इसका कुप्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। ऐसे में गीता-ज्ञान अचूक समाधान दिलाने में कारगर सिद्ध हो रहा है। विभिन्न स्तरों पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से भी इस बात की पुष्टि होती है। यह धारणा तेजी से बलवती होती जा रही है कि अवसादग्रस्त युवाओं को अवसाद से मुक्ति दिलाकर कर्म के लिए प्रेरित करने का दूसरा कोई सशक्त उपाय नहीं है।

स्वामी विवेकानंद समय रहते भांप गए थे कि आधुनिक युग की जीवन-शैली युवाओं को अवसादग्रस्त करेगी और इसका कुप्रभाव राष्ट्रों की समृद्धि पर होगा। इसलिए उन्होंने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर जोरदार भाषण दिया था। उन्होंने कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

पर इस अवस्था को प्राप्त कैसे किया जाए? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग और कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। “गीता-दर्शन” गीता भाष्य का एक बेहतरीन पुस्तक है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पट्शिष्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने लिखा है। उसमें वे कहते हैं – गीता मनोविज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ है। आज के संसार में अगर लोग पीड़ित हैं तो मन से ही पीड़ित हैं। पीड़ा का एक ही कारण है कि अपने आप से समझौता नहीं कर पा रहे हैं। परिस्थिति और वातावरण से जब समझौता नहीं होता तब दुख की उत्पत्ति होती है। और विषाद की अवस्था में क्या होता है? मन काम नहीं करता, विवेक काम नहीं करता, मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इसलिए श्रीकृष्ण को विषादग्रस्त अर्जुन को सबसे पहले सांख्य योग के बारे में समझाना पड़ा। उसका भाव यह हैं कि मन यानी अंत:करण की इन अवस्थाओं के परे जाकर मन के वास्तविक स्वरूप को समझो कि वह है क्या। तभी तुम मन का स्वामी बन पाओगे। और तब जो कर्म होगा, उससे तीन चीजों की प्राप्ति होगी – विजय, विभूति और श्री।

जाहिर है कि यह योग की बात हो गई। श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय भी योगशास्त्र ही है। पर महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग है से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश हैं कि बुद्धि को अव्यग्र, स्थिर या शांत रखकर आसक्ति को छोड़ दें। पर कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़े। योगस्थ होकर कर्मों का आचरण करें। महाभारत की कथा के मुताबिक युद्ध में द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग यानी साधना या युक्ति है और यह भी कहते हैं कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंघ आदि राजाओं को योग से ही मारा था।

योगी तो सदैव श्रीमद्भगवतगीता को जीवन का विज्ञान मानते रहे हैं। अब भौतिक विज्ञानी भी गीता की शक्ति पहचानने लगे हैं। तभी मौजूदा समय में भी सबको स्वामी विवेकानंद की अपील की प्रासंगिकता समझ में आ रही है। जब देश विविध समस्याओं से जूझ रहा है, राष्ट्रों के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में युवा भारत अवसादग्रस्त रहे, यह भला किसे स्वीकार्य होगा? उसे जगाना होगा। ताकि योग बल से हृदय की तुच्छ दुर्बलता का परित्याग कराया जा सके। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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