नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

फिर छा गया महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान

किशोर कुमार //

महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति दुनिया भर में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते।
भावातीत ध्यान का एक विहंगम दृश्य।

विश्वव्यापी आध्यात्मिक पुनरूत्थान आंदोलन की बदौलत मानसिक शांति और आनंदमय जीवन का दीप जलाने वाले महर्षि महेश योगी का बहुचर्चित भावातीत ध्यान या ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन एक बार फिर सुर्खियों में है। कोरोना महामारी के कारण मानसिक अशांति औऱ अवसाद से ग्रसित लोगों के लिए ध्यान की यह अनोखी और आजमायी हुई विधि संजीवनी का काम कर रही है। पश्चिमी देशों में पचास और साठ के दशक में ही बेहद लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी यह विधि भारत के लोग भी अपना रहे हैं। महर्षि योगी के ब्रह्मलीन हुए एक युग बीत चुका है। पर भावातीत ध्यान की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि 126 देशों में बड़ी संख्या में प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं। इन देशों में 44 यूरोपीय देश, 29 अमेरिकी देश, 34 मध्य पूर्व के देश और 19 एशियाई देश शामिल हैं।

मानव के शारीरिक और मानसिक अवस्थाओ को ध्यान में रखकर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर अब तक कोई तीन दर्जन से ज्यादा देशों की ढ़ाई सौ प्रयोगशालाओं में सात सौ से ज्यादा अनुसंधान किए जा चुके हैं। कमाल यह कि सभी अनुसंधानों के परिणाम इस ध्यान विधि के पक्ष में रहे और अनेक रहस्यों का खुलासा हुआ था। इसलिए कोरोना महामारी की वजह से संकटग्रस्त लोगों को बार-बार परीक्षित इस ध्यान विधि को अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई। हृदय रोगियों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर बीते साल ही अमेरिका की तीन प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया गया था। उसका परिणाम साइंस डायरेक्ट ने अपने अक्तूबर वाले अंक में विस्तार से प्रकाशित किया था। उस परीक्षण के प्रभाव को एक लाइन में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि हृदय रोगियों के लिए रामबाण है भावातीत ध्यान।

किसी ने पूछ लिया, उन्हें संत क्यों कहा जाता है? उनका जवाब था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है. इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं. चूंकि पहले सभी संतों का यही संदेश रहा है इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं.”

अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने सन् 2013 में 55 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले उच्च रक्तचाप के मरीजों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों का अध्ययन कराया था। अध्ययन का विषय था – “रक्तचाप को नियंत्रित रखने के लिए दवाओं और आहार से परे वैकल्पिक दृष्टिकोण।” इससे पता चला कि उच्च रक्तचाप से होने की मौतों में 30 फीसदी की कमी आ गई थी। इसके पहले अमेरिका स्थित क्लीवलौंड क्लिनिक में सन् 2009 में कॉलेज के छात्रों पर शोध किया गया तो पता चला कि इस ध्यान पद्धति से तनाव, रक्तचाप और क्रोध कम गया था। पर्यावरण असंतुलन और अन्य कारणों से छोटे बच्चे भी तनावग्रस्त रहने लगे हैं। वैदिक परंपरा के मुताबिक दस साल से कम उम्र के बच्चों को ध्यान न करने की सलाह दी जाती है। इसलिए 13-14 साल के तनावग्रस्त बच्चों पर भावातीत ध्यान का प्रभाव देखा गया। कक्षाओं में छात्रों की ग्रहणशीलता में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो गई थी।   

फोर्ब्स पत्रिका में भी इस ध्यान पद्धति को कवरेज मिला है। उसके मुताबिक, “इस ध्यान पद्धति को सीखना और दक्ष होना बेहद आसान है। परिणाम तुरंत ही मिलने लगते हैं। सप्ताह या महीनों इंतजार करने की जरूरत नहीं। कुछ दिनों या घंटों में फर्क महसूस होने लगता है। यह साधना अधितम बीस मिनटों की होती है और इसे दिन में दो बार करने की सलाह दी जाती है।“ इसे मंत्र योग और जप योग का मिलजुला रूप कहा जा सकता है। पर ओम या कोई खास मंत्र जपने की बाध्यता नहीं होती है। भावातीत ध्यान मंत्रयोग और कर्मयोग के मिश्रण से तैयार ऐसी ध्यान विधि है, जो साधकों को कर्म से नाता रखते हुए भी मन के पार ले जाने में सक्षम है। ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन में ध्यान की अन्य विधियों की तरह  श्वास या जप पर ध्यान केंद्रित नहीं करना होता है, बल्कि किसी भी विचार से परे मन को आरामदायक स्थिति में ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

नीदरलैंड स्थित महर्षि महेश योगी का आश्रम

आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहला जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरा, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरा है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। बस, इसे अनुभव करने की जरूरत है और इसी के लिए ही है भावातीत ध्यान विधि।

महर्षि महेश योगी ने ‘राम’ नाम की एक मुद्रा भी चलाई थी जिसे नीदरलैंड्स ने साल 2003 में क़ानूनी मान्यता दी थी। इस मुद्रा को महर्षि की संस्था ‘ग्लोबल कंट्री ऑफ़ वर्ल्ड पीस’ ने साल 2002 के अक्टूबर में जारी किया गया था.

मैंने इस लेख के लिए अनेक शोध पत्रों का अध्ययन किया। मंत्रों का मानव शरीर पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। मंत्रयोग और कर्मयोग का अध्ययन तो अनवरत करता ही हूं। इन सबके आधार पर कहने की स्थिति बनी कि यह साधना वाकई कमाल का असर दिखाती होगी। मैं इन बातों को विस्तार दूंगा। उसके पहले कुछ रोचक तथ्य। महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति सारे जहॉं में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते। यही वजह है कि स्वामी जयेंद्र सरस्वती के कारण यह नियम भंग हुआ था तो इसका काफी विरोध हुआ था।

मशहूर ब्रितानी रॉक बैंड बीटल्स के कलाकार 1968 में महर्षि के ऋषिकेश आश्रम में आध्यात्मिक एकांतवास के लिए लंबे समय तक ठहरे। कई गीतों की रचना भी की।

महर्षि योगी अपने गुरू से भावनात्मक रूप से इस तरह जुड़े थे कि जब ब्रहमलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती को बनारस के दशाश्वमेघ घाट पर जल समाधि दी जा रही थी तो वे इसे सहन न कर पाए थे और गंगा में छलांग लगा दी थी। उन्हें किसी तरह बचाया गया था। महर्षि के जीवन में अपने गुरू का मानों ऐसा शक्तिपात हुआ था कि ध्यान की उनकी प्रभावशाली विधि और अन्य यौगिक क्रियाओं को लेकर पूरी दुनिया में अकल्पनीय दीवानगी छा गई थी। इसकी एक तात्कालिक वजह भी थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक ब्रह्मलीन परमहंस सत्यानंद सरस्वती अपने से आठ से बड़े उस वैज्ञानिक संत के बारे में कहा करते थे कि उन्होंने अपनी शक्तिशाली ध्यान विधि से पश्चिमी देशों को तब अवगत कराया था, जब लाखों नवयुवक मादक द्रव्यों का व्यसन छोड़कर चेतना और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के मार्ग की तलाश में थे।

ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती, जो महेश योगी के गुरू और ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य थे।

महर्षि महेश योगी ने ऐसे युवकों के लिए भावातीत ध्यान प्रस्तुत किया तो युवा सरल साधाना विधि के कारण आकर्षित हो गए थे। पर कुछ लोगों के दिमाग में क्यों और कैसे वाले तर्क-वितर्क चलने लगे थे। उन्हें भरोसा न हुआ कि मंत्रों की इतनी शक्ति होगी कि वह आदमी की चेतना के विभिन्न स्तरों पर प्रभावशाली तरीके से काम करेगा। तब महर्षि ने विज्ञान से अपनी बातों की पुष्टि कराने की ठानी थी। जब वैज्ञानिक नतीजे पक्ष में आने लगे तो भावातीत ध्यान के लिए पश्चिमी जगत की दीवानगी अखबारों की सुर्खियां बनने लगी थी। लोगों को समझ में आ गया था कि भावातीत ध्यान से न केवल तात्कालिक समस्या का समाधान होगा, बल्कि उच्च चेतना के विकास में भी इसकी अह्म भूमिका होगी। नतीजे भी इसी इसी के अनुरूप मिलते गए थे। इस दृष्टांत से समझा जा सकता है कि कोरोनाकाल में भावातीत ध्यान को फिर से पंख क्यो लग गए हैं।

मंत्रो पर अब तक जितने भी वैज्ञानिक शोध हुए हैं, उनसे यही पता चला है कि हर शब्द, हर ध्वनि का एक रूप होता है, एक तरंग होती है। इसलिए जब मंत्रों का उच्चारण करते हैं और उसे दोहराते हैं तो उससे जो स्पंदन उत्पन्न होता है। इससे विचार, बुद्धि, भावना और उत्तेजना पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान के समय मन अंतर्मुखी होता है तो संचित विचार बाहर निकलता है और चेतना में शुद्धता आती है। फिर ध्यान के जरिए मन को एकाग्र करना आसान हो जाता है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो शरीर के मुख्य चक्र भी जागृत होते हैं। महर्षि महेश योगी का कहते थे कि ध्यान लोगों  को अकर्मण्य, नहीं बल्कि बेहतर दृष्टिकोण के साथ क्रियाशील बनाता है। इसलिए उन्होंने भावातीत ध्यान साधकों के लिए कर्म को साधना का अनिवार्य हिस्सा बनाया था।  

भारत के प्रत्येक जिले में और फिर विकास खण्डों में महर्षि वेद पीठ की स्थापना की जायेगी। इन पीठों में वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को अत्यन्त सरलता से एवं शुद्धता से उपलब्ध कराया जायेगा। वैदिक वांगमय में सुखी जीवन के लिये विभिन्न क्षेत्रों के सिद्धाँत व प्रयोग दिये गये हैं, इसका उपयोग मनुष्य को हर दृष्टि से सुखी बना सकता है।

ब्रह्मचारी गिरीश, महर्षि योगी संस्थानों के चेयरमैन

महर्षि महेश योगी के आध्यात्मिक उतराधिकारी ब्रह्मचारी गिरीश के मुताबिक, ‘‘भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता आती है। बुद्धि तीक्ष्ण व समझदारी गहरी होती है, भावनात्मक संतुलन होता है और तंत्रिका-तंत्र को गहन विश्राम मिलने के कारण तनाव दूर होता है, स्नायु मण्डल की शुद्धि होती है।“ शोधों और ध्यान साधकों के व्यक्तिगत अनुभवों से भी इस बात की बार-बार पुष्टि हुई है। कोरोना महामारी के कारण शारीरिक और मानसिक समस्याएं झेलते लोग यूं ही इस ध्यान विधि के लिए दीवाने नहीं हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग पत्रकारिता का उषाकाल

गुरू पूर्णिमा के मौके पर “उषाकाल” बेवसाइट आप सबके समक्ष औपचारिक रूप से प्रस्तुत करते हुए खुशी हो रही है। यह योग पत्रकारिता का “उषाकाल” है। योग विज्ञान और वैज्ञानिक आध्यात्मवाद की बातें पत्रकारीय दृष्टिकोण से परख कर योगाभ्यासियों के साथ साझा करने का छोटा-सा प्रयास है। बेशक, नई किस्म की पत्रकारिता है। पर आधुनिक युग की जरूरतों के अनुरूप है।

ऐसी पत्रकारिता की आवश्यकता शिद्दत से महसूस की जा रही थी। यह निर्विवाद है कि आज की अनेक समस्याओं की जड़ में व्यक्तिगत और सामाजिक असंतुलन है। समाज विज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों से लेकर वैज्ञानिक संतों तक ने इस विषय पर खूब अध्ययन किया। इनके निष्कर्षों से वैज्ञानिक संतों के इस विचार को बल मिला कि कोई दर्शन या विचारधारा इस असंतुलन को दूर करने में सक्षम नहीं है। इस समस्या से मुक्ति का कोई कारगर मंत्र है तो वह योग और अध्यात्म ही है।

जाहिर है कि योग और अध्यात्म की महत्ता को प्रकारांतर से दुनिया भर में स्वीकार किया जा रहा है। इसके वैज्ञानिक पहलुओं पर निरंतर अध्ययन किया जा रहा है। परिणामस्वरूप वैसी बातें प्रमाणिक रूप से सामने में आ रही हैं, जिनका उल्लेख वेद, तंत्र और योग शास्त्रों में है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत भी अपनी साधनाओं के अनुभवों के आधार पर  शास्त्रों में उल्लिखित बातों को सत्य ठहराते रहे हैं। पर उनकी बातों को आमतौर पर तभी स्वीकार्यता मिलती है, जब आधुनिक विज्ञान कहता है कि हां, बात सही है। उदाहरण के तौर पर योग की शांभवी मुद्रा तंत्र कि विषय है। शंकर-पार्वती संवाद के रूप में तंत्र शास्त्र में उसका उल्लेख है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में शांभवी मुद्रा के प्रभावों का अध्ययन किया गया तो उसके नतीजे शिव-पार्वती संवाद में बताए गए लाभों के अनुरूप निकले।

योग की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा का अभाव सर्वत्र है। एसोचैम के मुताबिक मांग की तुलना में तीन लाख योग शिक्षक व प्रशिक्षक कम हैं। कुशल योग शिक्षकों की कमी योग के नीम हकीम पूरी करते दिखते हैं। दूसरी ओर योग के बड़े कारोबारी मैदान में हैं, जो करोड़ों की लागत से योगा स्टूडियो बनाकर योग और अध्यात्म को उत्पाद बनाए बैठे हैं। ऐसे में योग के नाम पर कुछ भी परोस देने की प्रवृत्ति आम है। इसके कुपरिणाम भी सामने आते रहते हैं। इन सबके बीच दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि योगशास्त्र और परंपरागत योग मेनस्ट्रीम मीडिया का प्रिय विषय नहीं है।

आधुनिक यौगिक एवं तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, “वेद का पुत्र तंत्र है और तंत्र का पुत्र योग है। तंत्र एक महान विद्या है।“ पर गलत दिशा मिल जाने से उसका हश्र हम सबके सामने है। इससे समाज ने काफी खोया। योग का हश्र भी अपने पिता (तंत्र) की तरह ही न हो जाए, इसके लिए पूरी गंभीरता से पत्रकारीय हस्तक्षेप की जरूरत है। मैं लंबे समय से इस बात का पक्षधर हूं कि योग विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान गंभीर किस्म की पत्रकारिता का अनिवार्य विषय होना चाहिए। इस प्रेरणा के पीछे ठोस वजह है। पत्रकारिता तो लंबे समय से कर रहा था। योग पत्रकारिता की बात कभी नहीं सूझी थी। पर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संपर्क में गया और परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से दीक्षा ली तो देखते-देखते सोचने का तरीका बदल गया। लेखन की दिशा बदल गई। पहले “उषाकाल” स्तंभ और अब उषाकाल डॉट कॉम उसी की परिणति है।

मैं आज खास मौके पर अपने परम गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती (महासमाधिलीन) और पूज्य गुरू स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की चरणों को शत्-शत् नमन करता हूं, जिनकी सूक्ष्म शक्ति हमेशा कुछ नया करने को प्रेरित करती रहती है। उन तमाम गुरूओं का वंदन है, जो धर्मों की सीमाओं से परे योग-शक्ति की बदौलत मानव कल्याण में जुटे हुए हैं। शब्द की शक्ति प्रदान करने वाले मेरे जीजा जी, मेरे प्रारंभिक गुरू, शिक्षाविद् व साहित्यकार दिवंगत रवीन्द्र करूण और पत्रकारिता के जरिए सेवा का पाठ पढ़ाने वाले पिता तुल्य यशस्वी पत्रकार दिवंगत सतीशचंद्र को सादर प्रणाम। उनका प्रेम दोषरहित, भेदरहित और अभिलाषारहित था। इससे निर्मित संस्कार की जीवन में बड़ी भूमिका है। मेरी पत्नी ममता श्रीवास्तव के गुजरे आठ साल बीत चुके हैं। पर ऐसा महसूस होता है कि आसपास ही हैं और इस मार्ग पर आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही हैं।

भारतीय पुलिस सेवा के वरीय अधिकारी रहे और अपनी कलात्मक सोच व प्रभावशाली संप्रेषण की बदौलत रचनात्मक कार्यों में जुटे श्री उदय सहाय का विशेष तौर से आभार। मित्र के तौर पर उनका प्रोत्साहन कई स्तरों पर है। पर इस बेवसाइट की परिकल्पना को मूर्त रूप देने में उनकी मुख्य भूमिका रही।

योग विज्ञान के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पहलुओं को ध्यान में रखकर लेखन और पत्रकारिता हेतु प्रेरित करने के लिए आप सभी का तहेदिल से आभार। उम्मीद है कि पूर्ववत सहयोग मिलता रहेगा।      

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