रामभक्त महर्षि योगी और राम मुद्रा

किशोर कुमार //

भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक महर्षि महेश योगी अपनी विज्ञानसम्मत यौगिक क्रियाओं ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, यौगिक उड़ान आदि के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार संबधी उनके अनुराग से भी हम सब वाकिफ हैं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में महर्षि संस्थान अहर्निश उनकी शिक्षाओं को नईपीढ़ी तक पहुंचाने में जुटे रहते हैं। पर रामभक्त के रूप में उनकी चर्चा कम ही होती है। आज महर्षि जी की पुण्यतिथि है। उन्होंने 11 जनवरी 2008 को घोषणा की कि धरती पर उनका काम पूरा हो चुका है और 5 फरवरी 2008 को नीदरलैंड में अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया था। महर्षि जी का पुण्यस्मरण करते हुए इस लेख की शुरूआत उनके जीवन की उन पहलुओं से करते हैं, जिसकी चर्चा कम ही होती है।

यह सर्वविदित हैं कि महर्षि महेश योगी ने विश्व शांति राष्ट्र की घोषणा करके नीदरलैंड और अमेरिका के कुछ भागों में राम मुद्रा चलाई थी। उनकी संस्था ‘ग्लोबल कंट्री वर्ल्ड ऑफ पीस’ ने 2002 में इस मुद्रा को जारी किया तो नीदरलैंड सरकार ने इसे कानूनी मान्यता देने में जरा भी देऱी न की थी। इससे महर्षि योगी और राम भक्तों के प्रभाव का पता चलता है। नीदरलैंड के बाद अमेरिका के आयोवा स्थित महर्षि वैदिक सिटी में भी राम मुद्रा जारी किया गया था। इतना ही नहीं, अमेरिका के कोई 35 राज्यों में श्रीराम नाम वाले बॉड्स शुरू किए गए थे। खास बात यह है कि राम मुद्राएं आज भी चलन में है। अमेरिकन इंडियन जनजाति आयवे की बहुलता वाले आयोवा के लोगों को प्रभु श्रीराम से इतना प्रेम है कि उन्हें मुद्रा की सरकार मान्यता की भी परवाह नहीं रहती। वे स्थानीय स्तर पर खरीददारी और आपसी लेन-देन के लिए इसी मुद्रा का इस्तेमाल करते हैं। उन मुद्राओं में कई भाषाओं में राम और श्रीराम की तस्वीर के नीचे राजा राम – राम ब्रह्म परमाथ रूपा लिखा होता है।

महर्षि जी की श्रीराम में अटूट श्रद्धा का ही परिणाम था कि राम मुद्रा प्रचलन में लाने का उनका संकल्प पूरा हो सका था। वे अपने जीवन में भी श्रीराम के आदर्शों को आत्मसात करने की भरपूर कोशिश करते रहे। इस बात को एक प्रसंग से समझिए। महर्षि योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के प्रिय शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। इसलिए कि वे इसके लिए सुपात्र थे। महर्षि जी के तमाम गुरू भाइयों को भी लगता था कि अगला शंकराचार्य तो महर्षि योगी ही बनेंगे।

पर गुरू ब्रह्मानंद सरस्वती के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। वे महर्षि योगी की उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के वाकिफ थे और चाहते थे कि उनके जरिए वैदिक ज्ञान का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार हो। इसलिए जब अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करनी थी तो पहले महर्षि योगी को बुलाकर आदेश दे दिया कि तुम वैदिक शिक्षा का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार करो। मतलब साफ था कि महर्षि जी शंकराचार्य नहीं बनाए जाएंगे। इसलिए कि शकराचार्यों के लिए समुद्र लंघन वर्जित माना गया गया और गुरू के आदेश पूरा करने के लिए समुद्र लंघन करना ही होता। महर्षि जी जरा भी विचलित हुए बिना गुरू आदेश को अमल में लाने के लिए निकल पड़े थे पश्चिम की ओर। जरा गौर कीजिए। श्रीराम को वनवास भेजे जाने वाले प्रसंग से यह घटना कितनी मिलती-जुलती है। श्रीराम का राजतिलक होना था और मिल गया वनवास। श्रीराम खुशी-खुशी वनगमन कर गए थे। इस कथा के गूढ़ार्थ समझने पर हमारे जीवन को उन्नत बनाने वाले कई संदेश मिलते हैं। पर क्या हम सब उन संदेशों पर विचार भी कर पातें? महर्षि योगी अपने गुरू की इच्छा को पूरा करने के लिए ताउम्र जो कुछ कर पाए थे, उससे साबित होता है कि उन पर मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की शिक्षाओं व्यापक प्रभाव था।  

हालांकि शंकराचार्य न बनाए जाने पर महर्षि जी से ईर्श्या करने वालों को आलोचना करने का एक मौका मिल गया था। कई लोग महर्षि जी से कहते कि कुछ लोग आपकी निंदा कर रहे हैं। महर्षि जी कहते, निंदा करने वालों ने तो प्रभु श्रीराम को भी नहीं छोड़ा था। पर हाथी से सीखो। उसकी विशेषता क्या है? वह हाथ जोड़ने वालों से प्रसन्न होकर उसके पास ठहरता नहीं और भौंकने वाले कुत्तो की परवाह नहीं करता। इसलिए, उसकी चाल में मस्ती बनी रहती है। संत-स्वभाव भी ऐसा ही होना चाहिए। यदि हम तमोगुणी निंदकों की परवाह करने लगे तो शिष्य धर्म का पालन कैसे हो पाएगा? एक दूसरा प्रसंग भी है। महर्षि योगी को दुनिया भर में सिद्ध संत मान लिया गया था। उसके बाद अपने देश में सत्संग दे रहे थे तो एक व्यक्ति ने पूछ लिया, महर्षि जी, आपको संत क्यों कहा जाता है? महर्षि जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ, जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है। इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं। चूंकि पहले के सभी संतों का भी ऐसा ही संदेश रहा है, इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं।”

अविभाजित मध्य प्रदेश के राजिम शहर में 12 जनवरी 1918 को जन्मे महर्षि महेश योगी ऐसे आत्मज्ञानी संत थे, जिन्होंने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर काम किया था। भावातीत ध्यान योग (ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन) जैसी योग विधियां इसके सबूत हैं। अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देशों के अखबारों में उनकी यौगिक विधियों के प्रभाव बताने वाली खबरें स्थान पाती रहती हैं। महर्षि महेश योगी ने अपने जीवनकाल में वेदों में निहित ज्ञान का अनुभव करके अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इन शिक्षाओं के प्रचार के लिए संस्थाएं स्थापित की और उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया। यह सुखद है कि उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं को फैलाने का काम बिना किसी गतिरोध के जारी है। जगह-जगह महर्षि वेद पीठ की स्थापना करके वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। यह महर्षि जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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