मित्रता दिवस और नाता पूर्व जन्मों का

मित्रता दिवस पर सभी मित्रों को बधाई। हम सब में सात्विक गुणों की अभिवृद्धि हो और पिछले जन्मों की मित्रता के विकास करने की भी दृष्टि मिले, यही कामना है।

किशोर कुमार

पूर्व जन्म की बात बचपन से सुनता था। जब पूज्य गुरू के संपर्क में आया तो पूर्व जन्म औऱ संचित कर्मों के बारे में थोड़ी समझ बनी। पर मन में यह सवाल हमेशा बना रहता था कि जब पुनर्जन्म होता है तो पूर्व जन्मों के स्नेहीजनों की पहचान किस तरह हो सकती है?

एक बार ट्रेन से यात्रा कर रहा था। त्योहार होने के कारण भीड़ काफी थी। ट्रेन खुलते ही पास ही खड़े एक युवा ने पूछा कि क्या वे थोड़ी देर मेरे बर्थ पर बैठ सकते हैं। इसे महज संयोग ही कहिए कि उस युवक को देखकर मेरे मन में सहज भी भाव प्रकट हो चुका था कि उसे अपनी सीट पर बैठ जाने को कह देना चाहिए। जाहिर है कि मैंने तुरंत ही हां में सिर हिला दिया। हम तुरंत ही काफी घुल-मिल गए। लगा था मानों वर्षों का नाता है। यह सुखद है कि ट्रेन में बना वह नाता आज बीस साल बाद बेहद प्रगाढ़ हो चुका है। कमाल यह कि हम न एक जाति के हैं औऱ न एक धर्म के हैं।

श्रीगुरू जी से इस घटना का जिक्र किया तो उनका उत्तर था कि पूर्व जन्मों का प्रेमपूर्ण नाता चुंबकीय प्रभाव पैदा करता है। यदि हम सजग हैं और सात्विक गुणों की अधिकता है तो पूर्व जन्मों के संबंधों का अहसास सहज हो जाता है और उसे विकसित करना आसान होता है।

हिंदू और इसाई सहित कई धर्मों में पूर्व जन्मों के पक्ष में शास्त्रसम्मत तरीके से तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान भी ऐसे अनेक तर्कों से सहमत दिखता है। सच तो यह है कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला या आर्ट ऑफ लिविंग पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि मानव अपनी अवचेतन शक्तियों को जागृत करके न केवल अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास कर सकता है, बल्कि सामान्य जन योगमय जीवन जी कर स्मरण शक्ति बढ़ा सकते हैं, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदमय बना सकते हैं।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे।  आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। तभी पूर्व जन्म के बेहतर गुणों का विकास हो पाएगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि जन्म-जनमांतर के कर्म जीवन में किस तरह फलित होते हैं। सत्संग के दौरान स्वामी जी से ही किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए पिछले जन्म के बेहतर गुणों का विकास करना होता है।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि जन्म-जनमांतर के बेहतर कर्मों में सफलता के सूत्र छिपे हुए हैं। उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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