नवरात्रि

शक्ति की आराधना और मंत्रयोग

किशोर कुमार

नवरात्रि और दुर्गापूजा का समय है। इसलिए इस बार आदि शक्ति माता की आकृति, प्रकृति और गुणों के आलोक में मंत्र-योग की बात। हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? इस सवाल का विश्लेषण से पहले कुछ वेदसम्मत बातें। क्षीरसागर में सहस्त्र फणों वाले शेषनाग के शरीर रुपी शय्या पर शयन करते भगवान विष्णु को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर आते ही अकेलापन खलने लगा। मन में भाव आया – “एकोहं बहुस्याम।” यानी एक से अनेक हो जाऊं। तब भगवान विष्णु ने शक्ति का आह्वान किया। तभी उनके नाभि कमल से ब्रह्मा पैदा हो सके थे। यानी सृष्टि का आरंभ आदि शक्ति से हुआ। पुराणों में कथा है कि देव दानवों से पराजित होते गए तो प्रजापति से रक्षा की गुहार लगाई। प्रजापति ने सभी तैंतीस कोटि देवताओं की सभा करके उनसे अपनी शक्ति व तेज का एक अंश देने को कहा। ये शक्तियां महाशक्ति बन गईं और तेज सूर्य से भी ज्यादा बलवान। इससे ही शक्तिस्वरूपा दुर्गा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने आसुरी शक्तियों का संहार किया।

मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती में श्लोक है – “या देवी सर्व भूतेषु, शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम:।” यानी देवी दुर्गा, जो सभी जीवों में ऊर्जा के रूप में मौजूद हैं और सभी जीवों का कल्याण करने वाली हैं, उन्हें बारंबार नमस्कार है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शक्ति, जिसे देवी, भगवती या और कुछ भी कहा जाए, के तीन स्वरूप होते हैं – हितकारी, विनाशकारी औऱ सृजनकारी। अब हमारी आराधना के तरीकों पर निर्भर है कि उनसे शक्ति या देवी के कौन-से स्वरूप जागृत हो जाएंगे। इसी संदर्भ में एक कथा है। देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछ लिया कि विभिन्न देवताओं के लिए कौन-सी साधना अभीष्ट है? जबाव में शिवजी ने अनेक मार्ग बतलाए और कहा – “किसी भी मार्ग से लक्ष्य तक पहुंच सकती हो।“ पर वर्तमान युग में आम आदमी के लिए मार्ग का चयन करना क्या आसान है? स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि देवी को शाक्य तंत्र के अंतर्गत माना जाता है और तंत्र के अंतर्गत सभी पूजाओं का वर्गीकरण किया हुआ है। मंत्र, क्रिया औऱ उपचार के पहलुओं को विशुद्ध होना चाहिए। इसलिए कि ये प्रक्रियाएं मस्तिष्क, भावना औऱ चित्त को प्रभावित करती हैं। फास्ट फूड की तरह फल मिलने लगता है। पर थोड़ी भी लापरवाही से चित्त पर नकारात्मक प्रभाव होता है।

नवरात्रि के समय में दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती में हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं। “देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

कोरोना महामारी का असर फिलहाल कम जरूर है। पर उसकी मार उनलोगों पर भी है, जो संक्रमित नहीं हुए थे। नतीजतन, मानसिक बीमारियों का असर हर तरफ दिखता है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदि शक्ति की मंत्रो से आराधना का मानसिक स्तर पर व्यापक असर होना है। स्पेन के वैज्ञानिको ने बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस निरंजनानंद सरस्वती के मार्ग-दर्शन में मंत्रों के प्रभाव पर अध्ययन किया था। उसके प्रभाव चौंकाने वाले थे। अनेक उत्तेजित लोगों की उत्तेजना शांत हो गई थी, सजगता का विकास हुआ और चेतना का विस्तार हुआ। यह तो एक उदाहरण है। देश-विदेश में कम से कम दो सौ से ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययनों से मंत्रों के प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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