महर्षि पतंजलि और उनके प्रसन्नता के सूत्र

मिनी सहाय //

जीवन में खुशी मिले, आनंद मिले, यह कौन नहीं चाहता। जीवन-शैली जैसी भी हो, कर्म जैसा भी हो, पर खुशी और आनंद की इच्छा तो सबकी रहती है। पर जीवन में खुशियां कैसे मिले? यह अक्सर बड़ा प्रश्न बन जाता है। वैदिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णन मिलता है कि हमारे जीवन में दु:ख क्यों होता है और किस विधि प्रसन्न रहा जा सकता है। ऋषि-मुनि सदियों से देश-काल के लिहाज से प्रसन्नता के सूत्र देने की कोशिश करते रहे हैं। लोभ, मोह, काम और क्रोध में फंसा मानव अमृत को त्याग कर विष पीता है। यह जानते हुए कि भौतिकतावाद दु:खों के मूल में है। वरना, आदमी भौतिक साधनों की प्रचूरता के बावजूद दु:खी क्यों रहता?

आधुनिक विज्ञान का निष्कर्ष है कि हैप्पी हार्मोन्स जैसे डोपामाइन, सेरोटोनिन, एंडोर्फिन और ऑक्सीटोसिन की प्रतिक्रियाओं की वजह से हमारी मानसिक स्थिति ऐसी हो जाती है कि हम कभी खुशी और कभी गम का अनुभव करने लगते हैं। पर इन हार्मोन्स की ऊर्जा का प्रवाह सही दिशा में हो इसके स्थायी उपाय वही हैं, जो वैदिक और यौगिक सूत्रों से हमें प्राप्त होते हैं। पर केवल बुद्धि-विलास से बात नहीं बनती। योग हमें विधियां देता है, जिन्हें अमल में लाकर जीवन को रूपांतरित कर पाना संभव होता है। इसलिए कहा गया है कि योग जीवन जीने की कला है और इसे हर किसी को अपने जीवन का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाना चाहिए।

यद्यपि योग की पूर्णता उसके अभ्यास पर निर्भर है। पर उसके दार्शनिक पक्ष को समझ लेने से योग के प्रति स्पष्ट दृष्टि मिल जाती है। इसलिए, पहले योग का दार्शनिक पक्ष। श्रीमद्भागवत् गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में कहा गया है – “समत्वं योग उच्चयते।” समत्व ही योग है। अर्थात हम सबके साथ एक समान व्यवहार करते हैं, सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं, प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं और हर परिस्थिति में सम-भाव रखते हैं, चाहे सुख हो या दु:ख हो, सर्दी हो या गर्मी तो समझिए जीवन योगमय है। दूसरा सूत्र है – “योग: कर्मशु कौशलम्।”(2/50) यानी कर्म की कुशलता भी योग है। यदि हम कार्यों को व्यक्तिगत फल की आकांक्षा किए बिना कुशलतापूर्वक करते हैं, जैसे देश की रक्षा के लिए सीमा पर सेना पूरी कुशलता से अपने कार्यों को करती है, तो यह भी योग है। कर्मयोग है।

अब योग के व्यावहारिक पक्ष को समझते हैं। महर्षि पतंजलि ने 400 ई.पूर्व योगसूत्रों की रचना की थी। उन्होंने प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही कहा है – “अथ योग अनुशासनम्।”(1/1) यानी योग-मार्ग पर आगे बढ़ना है तो हमें इस संकल्पना के साथ योगाभ्यास प्रारंभ करना होगा कि हमारा जीवन अनुशासित रहेगा। फिर अगले ही सूत्र में कहा गया है -“योगश्चितवृत्तिनिरोध:।”(1/2) चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यानी हमारे मानस पटल पर जो असंख्य निरर्थक विचार उभरते रहते हैं, उनसे मुक्ति पाए बिना योग-मार्ग में किसी उपलब्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

मतलब यह कि जीवन में अनुशासन लाकर यौगिक अभ्यासों की बदौलत चित्त वृत्तियों का  निरोध करके ही प्रसन्नता के सूत्रों को जीवन में उतारना संभव होगा। यदि हमारी ऐसी तैयारी है तो महर्षि पतंजलि बतलाते हैं –

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥

यानी जो चित्त प्रसादनम् के रूप में है, उसे अपना कर स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। पर इसके लिए किन प्रक्रियाओं से गुजरना होगा? महर्षि पतंजलि के मुताबिक, संसार में चार श्रेणियों के लोग होते हैं। पहली श्रेणी में वे हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं। दूसरे वे लोग हैं जो दुखी रहते हैं । तीसरी तरह के लोग वे हैं जो कुछ अच्छा काम कर रहे होते हैं। चौथी तरह के लोग उतने अच्छे काम नहीं या बुरे काम कर रहे होते हैं। महर्षि पतंजलि चारों श्रेणियों के लोगों के प्रति एक निश्चित प्रकार की भावना का अभ्यास करने का परामर्श देते हैं। वे कहते हैं कि सुखी मानव के प्रति मित्रता की भावना, दु:खी मानव के प्रति करुणा की भावना, पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता की भावना और पापात्मा के प्रति उपेक्षा की भावना रखनी चाहिए। ऐसा करने से चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध आदि मलों (विकारों) का नाश हो जाता है।

सुखी मनुष्यों को देख कर उनके प्रति मित्रता की भावना रखने से राग तथा ईर्ष्या आदि मलों की निवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में, हम जब मित्र की खुशी में अपनी खुशी तलाश लेते हैं तो मानसिक प्रतिक्रियाएं बदल जाती हैं और हैप्पी हार्मोन अपना काम करने लगता है। इसलिए, जब हमारा मित्र कोई ट्राफी जीतता है और उसकी खुशी को हम अपनी खुशी मानते हैं, तो स्वत: ही हमारे मन से ईर्ष्या आदि विकार दूर हो जाते हैं। हमें अपार हर्ष का अनुभव होने लगता है।

दु:खी मनुष्यों के साथ करुणा या दया की भावना रखने से घृणा रुपी मल (विकार) की निवृत्ति होती है। इसलिए कि ऐसी भावना उपजते ही अपने दिल से जानिए, पराए दिल का हाल वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। नतीजतन, हम सहज ही सहयोग में खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार की करुणामयी भावना से घृणा की भावना से निवृत्ति मिल जाती है और हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। पुण्यात्माओं के संपर्क में आते ही हमारे भीतर उनके प्रति श्रद्धा उपजता है। धर्मानुकूल व्यवहार होने लगता है। यानी सत्व गुणों की प्रधानता बढ़ जाती है। इससे असूया (दूसरों पर दोषारोपण) रुपी विकारों का नाश हो जाता है।

पापी मनुष्य की उपेक्षा करने से द्वेष तथा बदला लेने की चेष्टा आदि विकारों का नाश हो जाता है। ऐसी अवस्था तब उपन्न होती है, जब पापी व्यक्ति हमारा किसी प्रकार से अपमान करता है और हमारे मन में विचार आता है कि वह व्यक्ति अपना ही हानि कर रहा है। ऐसे में मैं उसके प्रति द्वेष या घृणा करके स्वयं को क्यों दूषित करूं। ऐसा विचार आते ही चित्त शुद्ध होता है और मन प्रसन्न हो जाता है।

मेरे विचार से वर्तमान समय में प्रथम और चतुर्थ श्रेणी के अभ्यासों आवश्यकता सबसे अधिक है, क्योंकि दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा और पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता का भाव तो सामान्य रूप से उपजता ही है। पर दूसरों की खुशी से खुश होना और पापियों के साथ प्रतिशोध की भावना से विमुख होना प्राय: मुश्किल होता है। इसलिए, महर्षि पतंजलि की प्रसन्नता के इन दो सूत्रों को आत्मसात किए जाने की जरूरत पहले की तुलना में कहीं ज्यादा है।

(लेखिका योगाचार्य हैं)

कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भावातीत स्वरूप वाली महान संत आनंदमयी मां

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी की महान योगिनी श्री आनंदमयी मां विंध्याचल स्थित अपने आश्रम में थीं। मिर्जापुर के जिलाधिकारी उनके दर्शन के लिए आश्रम पहुंचे तो मां ने उन्हें आश्रम के अहाते की एक जगह दिखाते हुए कहा, इस भूमि के गर्भ में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां सदियों से गड़ी हैं। अब उनका दम घुटने लगा है। आप उस स्थल की खुदाई करवा कर उन्हें निकालने का प्रबंध कर दें। यह बात सन् 1955 की है। जिलाधिकारी नृसिंह चटर्जी ने मां के इस आग्रह को किसी दैवी आदेश की तरह लिया और हैरानी की बात यह रही कि लंबे समय तक चली खुदाई के बाद लगभग दो सौ मूर्तियां मिल गई थीं। यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी।

कोई दो दशकों तक मां की साधना का मुख्य केंद्र काशी रहा। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए जगह की तलाश की जा रही थी। पर बात बन नहीं पा रही थी। सन् 1942 में मां अपनी शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि, जिन्हें सभी दीदी थे, के साथ बनारस रेलवे स्टेशन के प्रतिक्षालय में बैठी थीं। तभी उनकी नजर बनारस के मानचित्र पर गई। वह एक स्थान पर उंगली रखकर कहा, देखो दीदी, यह रहा तुम्हारा आश्रम। वह स्थान अस्सी और भदैनी के बीच था। मां के शिष्य उस स्थल पर गए तो ऐसा लगा मानो जमीन का मालिक इंतजार में ही था कि वहां कितनी जल्दी मां का आश्रम बन जाए। 

मां एक बार कानपुर से लखनऊ कार से जा रहीं थीं। उन्नाव के पास एक गांव से गाड़ी गुजर रही थी तो मां सहसा बोल पड़ीं – “कितना सुन्दर गांव है, कितना सुन्दर पेड़ हैं।” मां की शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि ने यह सुनते ही गाड़ी रूकवा दी। फिर वहां पहुंची जहां सुंदर पेड़ थे। दरअसल, तालाब के किनारे दो छोटे-छोटे नीम व बट के पेड़ थे। मां ने गाड़ी से उतर कर पेड़ों का खूब आदर किया। बोली, “अच्छा तुम लोग इस शरीर को ले आए।” गाड़ी से फलों की टोकरी व माला मंगवाई। मालाएं वृक्षों पर अपने हाथों से सजा दीं और फल बांट दिए। स्थानीय लोगों से कहा, इन वृक्षों की पूजा करना। भला होग

मां ने बचपन से लेकर समाधि तक ऐसी लीलाएं इतनी की कि उनकी गिनती ही न रह गई। वह ऐसी लीलाएं क्यों करती थीं? महान संत तो चमत्कारों के पीछे भागते ही नहीं। फिर मां आजीवन ऐसा क्यों करती रहीं? उत्तर मिलता है कि भगवान का चरित्र उजागर करने, भगवान का संदेश फैलाने का उनका यही तरीका था। आधुनिक विज्ञान नए-नए अनुसंधान करके अवचेतन मन की शक्तियों पर प्रकाश डालते रहता है। पर मां की हर लीला में मानव चेतना के विकास के लिए, मानव के कल्याण के लिए कोई न कोई संदेश होता था। वह कहती थीं कि व्यक्ति अपने गुण-कर्म के आधार पर उन शक्तियों को यथा संभव जागृत करके जीवन को धन्य बना सकता है। मां के आचरण में साधुता, प्रज्ञा में ज्ञान की चमक और भाव के स्तर पर भक्ति थी। वे बतलाती थी कि पुनर्जन्म होता है। यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है।  इसलिए जीवन में सत्व गुण की प्रधानता रहे, यह बहुत जरूरी है।

मां की शक्तियां भी उनके पूर्व जन्मों के सत्कर्मों का ही प्रतिफल था। इसलिए कि इस जन्म में तो उनके न कोई गुरू थे और न ही उन्होंने कहीं योग और अध्यात्म की शिक्षा ली थी। औपचारिक शिक्षा भी न थी। पर, बचपन से ही भक्तियोग के रस टपकने लगे थे। ढाई साल की उम्र में ननिहाल में थीं और वहां मां के साथ कीर्तन में गईं तो वहां शरीर शिथिल होकर लुढक गया था। पर किसी के लिए भी समझना मुश्किल था कि यह कीर्तन का प्रभाव है। समय बीतता गया और दैवीय शक्तियां स्फुटित होती गईं। मां को बचपन से नाम संकीर्तन खूब भाता था। आध्यात्मिक अनुभवों से इसकी वैज्ञानिकता भी समझ में आ गई। लिहाजा चैतन्य महाप्रभु कि तरह उन्होंने संकीर्तन को ही भवगत् संदेश बांटने का जरिया बनाया था।

रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। वे फिर कलियुग गुण-धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं, सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से और द्वापर में पूजा करने से जो फल मिलता है, वैसा ही फल कलियुग में नाम संकीर्त्तन, जप से मिलता है। मां कहती थीं कि यदि किसी में सत्व गुण की प्रधानता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध भी सहयोग में है तो ऐसा व्यक्ति कलियुग में भी सतयुग या अन्य युगों जैसा बेहतर फल प्राप्त कर सकता है। पर आम लोगों के लिए तो “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा…।“ इसलिए कीर्तन करो, नाम के जप और कीर्तन से ही सब कुछ होता है।

मां कहतीं, ‘स्मरण रक्खो, स्मरण रक्खो, भगवान् का नाम सर्वदा स्मरण करते-करते इस संसार रूपी कारागार के दिन कट जाएंगे। स्वयं तो अच्छे होने की चेष्टा करना ही, जो जहाँ हो, उसे भी बुला लेना, जिसके कर्म के साथ धर्म का संबंध नहीं है; उसको ईश्वर का नाम (भजन) करने के लिए निरंतर विनती करो। जो उसको (भगवान् को) जिस किसी विशुद्ध-भाव से पाने को चेष्टा कर रहा है, उसको उसी भाव से आलिंगन करो, और जिसने उसकी महिमा को जान लिया है उसके सत्संग से अपने जीवन को कृतार्थ करो।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेख है, कागभुसुंडि जी की कथा है और आधुनिक युग के संत भी वैज्ञानिक आधार पर कहते रहे हैं कि हम अपनी यात्रा इस जन्म में जहां खत्म करते हैं, अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने का कोई समय नहीं होता। जब जागे, तभी सबेरा। क्षय शरीर का होता है, आत्मा अमर है। मां यह बात सबसे कहती थीं। लगभग पांच दशकों तक देश के कोने-कोने में हरि-स्मरण, हरि-संकीर्तन का अलख जगाकर भक्ति की गंगा प्रवाहित करने वाली मां के पास उनके समकालीन साधु-संतों से लेकर राजनीति और दूसरे क्षेत्र के दिग्गजों का आना-जाना लगा रहता था। मां भी नन्हीं बच्ची की तरह सभी आत्मज्ञानी संतों के दर्शन के लिए जाया करती थीं।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” में वर्णन किया हुआ है – मैं पहली बार आनन्दमयी माँ से मिला था तो मसझते देर न लगी कि भीड़ में होते हुए भी वे समाधि की एक उच्च अवस्था में थीं। अपने बाह्य नारी रूप का उन्हें कोई भान नहीं था। उन्हें केवल अपने परिवर्तनातीत आत्म-स्वरूप का भान था। उस अवस्था में वे ईश्वर के एक अन्य भक्त से आनन्द के साथ मिल रही थीं। उनकी यात्रा में देरी होते देख मैं जल्दी ही निकल लेना चाहता था। पर वह बोल पड़ीं, “बाबा! मैं कई युगों बाद इस जन्म* में आपसे पहली बार मिल रही हूँ! इतनी जल्दी तो मत जाइए!” योगानंद जी दरअसल अपनी भतीजा अमिया बोस के आग्रह पर मां से मिलने गए थे। अमिया ने उनसे कहा था – “निर्मला देवी यानी मां के दर्शन किए बिना कृपया भारत से मत जाइए। उनमें अत्यंत तीव्र भक्तिभाव है; सब तरफ वे आनन्दमयी माँ के नाम से विख्यात हैं। मैं उनसे मिली हूँ। अभी हाल ही में वे मेरे छोटे- से नगर जमशेदपुर पधारी थीं। एक शिष्य के अनुरोध पर आनन्दमयी माँ एक मरणासन्न मनुष्य के घर गईं। वे उसकी शय्या के पास खड़ी हो गयींउनके हाथ ने जैसे ही उसके माथे का स्पर्श किया, उसकी घर्र-घर्र बन्द हो गई। उसकी बीमारी तत्क्षण गायब हो गई। वह भी देखकर आनन्दित और विस्मित हो गया कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका था।”

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर मां के दैवीय स्वरूप में चर्चा करते थे। उन्हें परमहंस की उपाधि मां ने ही दी थी। डा० अलेक्जेंडर लिपस्की परमहंस स्वामी योगानन्द की पुस्तक ‘योगी कथामृत’ पढकर मां की ओर आकर्षित हुए थे। वाराणसी में १९६५ में मां से मिले तो उनके ही होकर रह गए। उन्होंने लिखा कि उनका अनुभव था कि मस्तिष्क की अन्तरतम परतों में भी मां का सहज प्रवेश है। मां की तुलना उन्होंने वृहत आध्यात्मिक चुम्बक से की है, जिसके सामने से अपने को अलग कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अपने को एकदम अनपढ़ कहने वाली मा आनन्दमयी के मुख से बड़े बड़े विद्वानों द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर इतनी सहजता, सरलता एवं दृढ़ता से सुनने को मिले कि आश्चर्य हुआ। मां के श्रीमुख से ‘हे भगवान्. और सत्यं ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म का कीर्तन उन्हें ईश्वर के प्रेम और आनन्द का उच्छवास प्रतीत हुआ और यह कहने को लिपस्की विवश हो गये कि ‘पृथ्वी में अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यहीं है, यहीं है।

आम लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े संतों को भी मां परमात्मा की अवतार जैसी लगती थीं। महर्षि दयानंद सरस्वती से रहा न गया। उन्होंने मां से पूछ लिया था, मां तुम कौन हो? कोई कहता है तुम अवतार हो, कोई कहता है तुम आवेश हो, कोई कहता है साधक या बद्ध जीव हो, मुझे यथार्थतः जानने की इच्छा है तुम कौन हो? मां ने कहा, “बाबा, तुम मुझे क्या समझते हो? तुम जो समझते हो मैं वही हूं।” इस उत्तर को ऐसे समझिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। इस तरह महर्षि दयानंद जी को मां के उत्तर में ही मां के स्वरूप का वास्तविक परिचय मिल गया था। जीवन पर्यंत प्रेम, परोपकार और भक्ति का संदेश देकर लोगों का जीवन धन्य बनाने वाली महान योगिनी को महासमाधि दिवस (27 अगस्त) पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महर्षि अरविंद : स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी

किशोर कुमार //

श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही पलायनवादी कैसे हो गए? अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में क्यों बैठ गए? एक सच्चा योगी के लिए इस तरह पलायन उचित है? आपने तो श्रीमद्भगवतगीता का सुंदर भाष्य लिखा है। क्या आपको स्मरण नहीं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पलायन न करने की शिक्षा दी थी? क्या आपको लगता हैं कि अब करने के लिए कुछ नहीं बचा? श्री अरविंद ने जवाब में बस इतना ही कहा था, “मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है।“

इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद देश के हालात बदले, परिस्थितियां बदलीं। देश आजाद हुआ और वह अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। दूसरी तरफ श्री अरविंद की 150वीं जयंती पर देश भर में न जाने कितने ही आयोजन हुए। स्वतंत्रता संग्राम और योग व अध्यात्म के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया गया। समय का पहिया घूमता गया और अब हम फिर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस और श्री अरविंद की जयंती मनाने के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी के मन में सहज सवाल हो सकता है कि श्री अरविंद ने ऐसा क्या किया था जो स्वाधीनता संग्राम में उनकी सीधी भागीदारी से बढ़कर था? वैसे, आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही सवाल करेंगी और इस पर चिंतन-मनन आध्यात्मिक आंदोलन को गति देकर प्रकारांतर से देश की सेवा करना होगा।

ओशो जब अपने शिष्यों को बता रहे थे कि धर्म और अध्यात्म से किस तरह राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, तो किसी शिष्य ने श्री अरविंद को लेकर सवाल कर दिया। वही सवाल पूछा जो हर पीढ़ी के लिए नया सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। ओशो प्रत्युत्तर में कहा था कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे। भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसके बारे में कोई लिखता भी नहीं।

सच है कि महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य स्थूल प्रयासों के पीछे सूक्ष्म प्रयास भी कार्यरत था। महर्षि अरविंद के योगदान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसलिए कि आत्मिक जागृति व उत्थान के बिना पूर्ण रूप से राष्ट्र की सेवा लगभग असंभव हो जाता है। निःस्वार्थ, सद्भावना और सकारात्मक ऊर्जा रखने वाले जितने भी अग्रणी और महान सेनानियों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि इन सबके पीछे अध्यात्म की शक्ति ही काम कर रही थी। महर्षि अरविंद ने भी अपने आध्यात्मिक बल से स्वतंत्रता संग्राम को प्राणवान बनाया था। स्वयं महर्षि अरविंद ने कहा था कि यह पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा।

जब देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो गया, तो महर्षि अरविंद ने उस दिन संदेश दिया था- ‘…अगस्त 15, 1947, स्वतंत्र भारत का जन्मदिन और दैवीय इच्छा से यह मेरा जन्मदिन भी है। आज देश स्वतंत्र जरूर हुआ है, पर भारतीयों को आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी बाकी है, जो कि भारत की एकता, अखण्डता, पुनरुत्थान और मानव सभ्यता की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। भविष्य में पूरी दुनिया भारत के आध्यात्मिक उपहार से पोषित हो सके तो बड़ी बात होगी। मानव की चेतना के जागरण और उसके आंतरिक विकास से ही सार्वभौमिक विकास संभव है। मैं आशा करता हूँ कि भारत आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा! वन्दे मातरम्।‘

हम जानते हैं कि अपने देश में हजार से ज्यादा वर्षों तक आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे है। पर उनके बीच कोई समन्वय नहीं बन पाया। महर्षि अरविंद कहते थे कि दरअसल, साधु-संतों ने वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति को लक्ष्य मान लिया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का संबंध-विच्छेद कर लिया। इसकी तात्कालिक वजह थी। उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा, जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाए रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा।

पर जब परिस्थितियां बदली, तब तक वे भूल चुके थे कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है। इसलिए अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, इस पूर्णता का प्रयोजन इसमें था कि इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाए तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें। खैर, यह सुखद है कि हमने महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती ऐसे समय में मनाई, जब दुनिया के कोने-कोने में भारतीय योग और अध्यात्म का डंका सुनाई देने लगा था। विभिन्न स्तरों पर विज्ञानसम्मत तरीके से वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। पर चिंताजनक बात यह है कि साधनाओं में योग-समन्वय का घोर अभाव दिखता है। कोई हठयोग में जुटा हुआ है तो जीवन से राजयोग गायब है। यही हाल बाकी योग पद्धतियों के मामलों में भी है। हालात ऐसे ही रहे तो आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हो जाएगी, जिसकी चिंता महर्षि अरविंद सदैव किया करते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सतत यौगिक व आध्यात्मिक साधना की दिव्य ऊर्जा के सूक्ष्म प्रभाव, असंख्य बलिदानों और निष्काम योगदानों से हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। पर इस बाह्य स्वराज से संतुष्ट हो जाने का कोई औचित्य नहीं। आंतरिक स्वराज का स्वप्न अभी अधूरा है और जैसा कि श्री अरविंद कहते थे कि पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा। इसलिए समन्वित योग साधना समय की जरूरत है। इसके बल पर ही भारत दुनिया भर के लिए आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा और यही महर्षि अरविंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कैवल्यधाम योग संस्थान के 100 साल

किशोर कुमार //

गौरवशाली अतीत वाले योग व वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान कैवल्यधाम में अभी से जश्न का माहौल है। यह संस्थान अपनी स्थापना के एक सौ साल पूरे करने जा रहा है। महाराष्ट्र के लोनावाला में सन् 1924 में कोई 180 एकड़ में स्थापित कैवल्यधाम के शताब्दी समारोह को यादगार बनाने के लिए बड़े पैमान पर तैयारियां की जा रही हैं। गौरवशाली इतिहास वाले इस योग व वैज्ञानिक अनुसंधान के शताब्दी समारोह के लिए विशेष लोगो जारी किया जा चुका है। दूरदर्शन ने हाल ही इस संस्थान के एक सौ साल के इतिहास को समेटता हुआ एक वृत्तचित्र तैयार किया है, जिसे रिलीज किया जा चुका है।  

शताब्दी समारोह के दौरान 365 दिन यानी साल भर वैश्विक स्तर पर 150 शहरों में 650 से अधिक कार्यक्रमों के आयोजन किए जाने हैं। देश में आयोजित भारत योग माला कार्यक्रम के लिए स्थलों का चयन इस तरह किया जाना है ताकि भारत का मानचित्र बन जाए। ‘योग म्यूजियम ऑन व्हील्स’ सभी कार्यक्रम स्थलों को कवर करते हुए कोई बारह हजार किमी की यात्रा तय करेगा। इससे कैवल्यधाम के एक सौ वर्षों की योग परंपरा की झांकी मिलेगी। शताब्दी समारोह के दौरान लोग देखेंगे कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग विधियों पर शोध करके यौगिक चिकित्सा का अलख जगाने वाले स्वामी कुवलयानंद की ज्ञान-गंगा का प्रवाह किस किस मजबूती से जारी है।

स्वामी कुवल्यानंद ने जब योग-मार्ग पर यात्रा शुरू की थी तो योग जब साधु-संतों तक ही सीमित था और गृहस्थों के बीच उसको लेकर नाना प्रकार की भ्रांतियां थीं। पर जब उन्होंने आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साबित कर दिया कि यह विश्वसनीय विज्ञान है तो देश-विदेश के लोग बरबस ही उस ओर आकृष्ट हुए। एक तरफ महात्मा गांधी ने उनकी योग विद्या का लाभ लिया तो दूसरी तरफ मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर देश-विदेश की कई हस्तियां स्वामी कुवलयानंद के कैवल्यधाम आश्रम पहुंच गईं थीं।

स्वामी कुवल्यानंद आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। उन्होंने इन प्रयोगों के लिए खुद की प्रयोगशाला बनाई। प्रयोग सफल होने लगे तो अपनी संस्था कैवल्यधाम के लिए अधिकारपूर्वक सूत्र-वाक्य लिखा – “कैवल्यधाम, जहां योग परंपरा और विज्ञान का मिलन होता है।“ वाकई, उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं।

स्वामी कुवलयानंद ने सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किया था। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे। रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर काम करने वाले प्रथम वैज्ञानिक डॉ॰ जगदीश चन्द्र बसु ने स्वामी कुवलयानंद के यौगिक अनुसंधानों को देखकर कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि आप सही रास्ते पर हैं।“ मौजूदा समय में इस अनुसंधान केंद्र को भारत सरकार के वैज्ञानिक संगठनों से लेकर विश्व विद्यालायों तक से संबद्धता प्राप्त है। मौजूदा समय में केंद्रीय आयुष मंत्रालय का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है। इनके अलावा भी अनेक सरकारी गैर सरकारी एजेंसियों के साथ यौगिक अनुसंधान की परियोजनाएं इस परिसर में चलती रहती हैं।

योग अनुसंधान के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में कैवल्यधाम में अनेक अनूठे कार्य किए गए। अप्रतीम व्यक्तित्व के धनी रहे योगमार्ग के उन्नायक महायोगी गोरखनाथ द्वारा विरचित ग्रंथों में एक सौ श्लोकों वाला गोरक्षशतकम् हठयोग का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। गोरक्षनाथ ने गोरक्षशतकम् के लिए जितने भी श्लोक लिखे, हस्तलिखित थे और विखरे पड़े थे। कई बार तो प्रमाणित करना भी मुश्किल होता था कि उनके नाम से प्रचलित श्लोक वाकई प्रमाणिक हैं भी या नहीं। स्वामी कुवल्यानंद ने अपने सहयोगियों की मदद से एक सौ श्लोक संग्रहित किया और उनकी भाषा व दर्शन के आधार पर माना कि वे गोरक्षनाथ द्वारा विरचित ही होने चाहिए। हैरान करने वाली बात यह रही कि चुने गए सौ श्लोक ही सौ श्लोकों वाली गोरक्षशतक के हस्तलेख में भी पाए गए थे। इस एकमात्र हस्तलेख को ‘इंडिया ऑफिस लायब्ररी’, लन्दन से हासिल किया गया था।

कैवल्यधाम परंपरा के अग्रणी योगी ओमप्रकाश तिवारी ने भी स्वामी कुवल्यानंद की परंपरा को बनाए रखा है। उदाहरण के तौर पर, हठयोग मंजरी हठयोग के अभ्यासों का सांगोपांग वर्णन करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे ब्रह्मज्ञान विद्यार्थी ने लिखा था। पर कसरती स्टाइल के योग के जमाने में यह अनूठा ग्रंथ बाजार से गायब हो गया। कैवल्यधाम ने इसके पुर्नप्रकाशन का बीड़ा उठाया और यह ग्रंथ फिर से योग साधकों के लिए सुलभ हो गया। कैवल्यधाम ने वसिष्ठसंहिता के योगकांड पर भी काफी काम किया है। ताकि वह संपूर्णता में पाठकों को सुलभ हो सके। दरअसल, स्वामी कुवल्यानंद इस विचार के थे कि योग से सम्बन्धित कोई भी जानकारी प्राप्त हो तो उसे आम लोगों तक पहुंचाना अपना कर्तव्य समझना चाहिए।

अंत में एक मजेदार प्रसंग। पंडित जवाहरलाल नेहरू कैवल्यधाम आश्रम गए तो उन्हें पता चला कि स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके हैं। पंडित नेहरू बेहद चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेश न चले जाएं। लिहाजा, उन्होंने स्वामी कुवलयानंद को पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया और आश्रम छोड़ने से पहले आगंतुक रजिस्टर में लिख दिया कि यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा। पर आजादी के दीवाने कुवलयानंद विदेशी संस्थानों के मोहपाश में कहां फंसने वाले थे। वे जीवन पर्यंत भारत भूमि पर रहकर ही योग को समृद्ध करते रहे। योग विज्ञान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के कारण उनका नाम अमर हो गया और उनका कैवल्यधाम मानव जाति के लिए वरदान साबित हो रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

चौंकिए मत, यह योगनिद्रा का कमाल है!

किशोर कुमार //

महर्षि पतंजलि ने जिस अष्टांग योग से दुनिया का परिचय कराया था, जिसका पांचवां अंग है प्रत्याहार। प्रत्याहार यानी इंद्रियों पर संयम। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी प्रत्याहार से आज की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक शक्तिशाली विधि विकसित की थी, जिसे आज हम “योगनिद्रा” के रूप में जानते हैं। आज का विषय वही योगनिद्रा है और इसकी एक खास वजह भी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 13-14 जुलाई को फ्रांस में थे। भारतीय मूल के लोग स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री मोदी से मिलने खिंचे चले गए थे। उनमें एक उत्साही युवक ने प्रधानमंत्री से पूछ लिया – आप हर रोज बीस घंटे काम करते हैं, इसका राज क्या है? लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के दौरान जाहिर है कि प्रधानमंत्री के पास इतना वक्त नहीं रहा होगा कि वे खड़े होकर उस यौगिक क्रिया के बारे में बतलाते, जिनकी बदौलत वे तीन-चार घंटे सो कर भी तरोताजा बने रहते हैं। इसलिए वे उस युवक का हाथ थपथपाते हुए आगे बढ़ गए थे। पर भारत के कुछ बुद्धिजीवियों को यह बात नागवार गुजरी। आखिर मोदी निरूत्तर क्यों हो गए? शायद तीन-चार घंटे ही नींद लेने वाली बात सही नहीं है।

कुछ साल पहले डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो उनकी पुत्री इवांका ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था, जैसा कि फ्रांस में किया गया। उन्होंने ट्वीट करके पूछा था कि इतने ऊर्जावान होने का राज क्या है? प्रत्युत्तर में मोदी ने कहा था कि बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा निर्देशित “योगनिद्रा” का नियमित अभ्यास करता हूं। तब इवांका ट्रंप ने कहा था कि वे भी इस योगविधि का अभ्यास करेंगी। इस संवाद को जानने-समझने के बाद  कहना होगा कि या तो विरोध करने के लिए बाल की खाल निकाली जा रही है या फिर योगनिद्रा की शक्ति पर ही संशय है।          

बीसवीं सदी के महान योगी श्रीअरविंद कहते थे – बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि एक अवरोध है। यानी बुद्धि की भी सीमाएं हैं। तभी कई विज्ञानसम्मत बातें भी चमत्कार प्रतीत होने लगती हैं। ओशो रेल से जुड़े एक रोचक प्रसंग सुनाते थे – इंग्लैंड में जब पहली बार भाप इंजन से ट्रेन चलने वाली थी तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। भला भाप से इतना वजनी इंजन कैसे चल सकती है और यदि चल गई तो रूकेगी कैसे? इसलिए पहली रेलयात्रा के लिए कोई राजी नहीं हुआ। अंत में मृत्युदंड की सजा पाए बारह कैदियों को पहली रेलयात्रा के लिए तैयार किया गया। कैदी भी यह सोचकर तैयार हो गए कि एक दिन तो मरना ही है। वास्तव में तो कोई खतरा था नहीं। पर अज्ञान के कारण रेलयात्रा खतरनाक प्रतीत होने लगी थी।

हालांकि योगनिद्रा कोई नई योगविद्या तो है नहीं। दुनिया भर की एक हजार से ज्यादा प्रयोगशालाओं में शोध किया जा चुका है। सच तो यह है कि योगनिद्रा प्रत्याहार की एक ऐसी विधि है, जिसके लाभों की फेहरिस्त लंबी हैं। एक लाभ तो यही है कि पांच-छह घंटे सोने जितना शारीरिक-मानसिक आराम नहीं मिलता, उससे ज्यादा आराम ढाई-तीन घंटों की योगनिद्रा में मिल जाता है। इसलिए कि योगनिद्रा के दौरान व्यक्ति की स्थिति जागृत और स्वप्न के बीच वाली होती है। योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर पहली बार वर्षों पहले जापान में शोध किया गया था। शोधकर्त्ता डॉ हिरोशी मोटोयामा ने देखा था कि योगनिद्रा के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। इससे योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। इस वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक प्रत्याहार में इतनी शक्ति है कि इड़ा और पिंगला नाड़ियों को अवरूद्ध कर मस्तिष्क से उनका संबंध विच्छेद किया जा सकता है। इस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राय: सुषुप्तावस्था में रहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करना आसान हो जाता है। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। शोधों से पता चला है कि मनुष्य जब निद्रित रहता है, उस समय उसका मन बहुत ग्रहणशील रहता है। इसके अतिरिक्त उसकी श्रवण, दृष्टि और ज्ञान की शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि स्थूल इन्द्रियों का बन्धन नहीं रहता। यह ज्ञान अर्जन के लिए आदर्श स्थिति होती है। साथ ही स्नायविक, मानसिक और भावनात्मक तनावों मुक्ति मिल जाती है, जो अनेक बीमारियों की वजह बनी होती हैं।

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आपबीती सुनाई थी कि योगनिद्रा जीवन को किस तरह रूपांतरित कर देती है। वर्षों पहले की बात है। स्वामी जी इंग्लैंड में थे और उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। लंदन विश्वविद्यालय में बायोफीडबैक विषय पर शोध पूर्व संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। उसमें योग विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार रखने के लिए बिहार योग विद्यालय को निमंत्रण था। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लंदन में थे ही तो चले गए अपने संस्थान का प्रतिनिधित्व करने। पहले तो अन्य वक्ताओं ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पर वक्तव्य पूरा हुआ तो सभी दंग रह गए थे। इसलिए कि जिस विषय पर अभी शोध होना था, स्वामी जी उसके परिणामों की बात कर गए थे। चिकित्सा वैज्ञानिकों से रहा न गया। पूछ लिया – आपको इस विषय की इतनी गहन जानकारी कैसे हुई? पता चला कि स्वामी जी ने तो मंच से उतना ही कहा था, जितना उन्हें सपने में उनके गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने बतलाया था। यह चमत्कार कैसे हुआ? स्वामी निरंजन कहते हैं कि यह योगनिद्रा का परिणाम है। दरअसल, उन्होंने अपने गुरू से सारी शिक्षाएं योगनिद्रा में ही पाई थी।     

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि पूरे मनोयोग से और नियमित प्रत्याहार की शक्तिशाली साधना करने वाले किस तरह रूपांतरित हो जाते हैं। मौजूदा बड़े राजनेताओं में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी घोषित तौर से प्रत्याहार की साधना करते हैं। तभी वे दोनों चौबीस घंटो में बमुश्किल तीन-चार घंटे ही नींद लेकर भी ऊर्जावान व संयमित बने रहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

पाचन प्रक्रिया का द्वार खोलता योग

किशोर कुमार //

पुरानी कहावत है – ताड़ से गिरे, खजूर पर अटके। भारत कोविड-19 से तो बहुत हद तक मुक्ति पा चुका हैं। पर उसका आफ्टर इफेक्ट कहर बरपा रहा है। कोराना महामारी के शिकार हुए लोग अब हृदय रोग, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रोग, फेफड़े की समस्या आदि से दो-चार हो रहे हैं। बीते दो वर्षों में विभिन्न स्तरों में किए गए अध्ययनों से ये तथ्य सामने आए हैं। इनमें पेट की समस्या ज्यादा ही विकट है।

चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स (जठरांत्र विकार), हाइपोथायरायडिज्म, पिट्यूटरी ग्रंथि में विकार, मानसिक तनाव और मधुमेह अनियंत्रित होने से भी पेट संबंधी रोग प्रकट हो रहे हैं। हाल ही स्वीडेन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के अध्ययन से पता चला है कि केवल फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स यानी जठरांत्र विकार की वजह से ही भारत सहित दुनिया के 33 देशों के औसतन दस में से चार लोग परेशान हैं। इस संबंध में 73,000 लोगों पर अध्ययन किया गया।

श्रीश्री रविशंकर के अगुआई वाले आर्ट ऑफ लिविंग के मुताबिक, हाइपोथायरायडिज्म यानी अंडरएक्टिव थाइरायड भी पेट की बीमारी में बड़ी भूमिका निभा रहा है। यह ग्रंथि जब पर्याप्त थॉइरायड नहीं बना पाती है तो शरीर में मेटाबॉलिज्म यानी चयापचय गतिविधियां नियंत्रित नहीं रह पाती हैं। इस वजह से वजन बढ़ता है और कब्ज की समस्या आती है। मुंबई स्थित द योगा इस्टीच्यूट के मुताबिक अनियंत्रित मधुमेह पाचन तंत्र को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभा रही है। ऐसा इसलिए कि मधुमेह के मरीजों में इंसुलिन हार्मोन का स्तर अपर्याप्त होने पर ब्लड सूगर यानी रक्त शर्करा प्रभावित होता है। रक्त शर्करा में वृद्धि नसों को नुकसान पहुंचाती है, जिससे कब्ज होता है। इस तरह समझा जा सकता है कि पेट की सामान्य-सी दिखने वाली समस्या कई बड़ी बीमारियों की वजह हो सकती है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “समस्या पेट की, समाधान योग का” में पेट संबंधी विकारों को लेकर वे सारी बातें स्पष्ट कर दी थीं, जो बातें अब वैज्ञानिक अनुसंधानों से सामने आ रहे हैं। पुस्तक में कहा गया है कि षट्कर्म की दो क्रियाओं के अलावा आसनों में शवासन, सर्वांगासन, शशांकासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, धनुरासन व पवन मुक्तासन, प्राणायाम की विधियों में कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम और प्रत्याहार की विधियों में केवल योगनिद्रा का अभ्यास ही कर लिया जाए तो पेट सहित कोविड-19 के बाद के कई कुप्रभावों से बचा जा सकता है या उनके प्रभावों को कम किया जा सकता है।

षट्कर्म में मुख्य रूप से कुजल और शंखप्रक्षालन की अनुशंसा की गई है। कुछ समय पहले कुंजल क्रिया खूब चर्चा में थी। अमेरिका के एक कंप्यूटर प्रोफेसनल ने दावा किया था कि वे कुंजल क्रिया की बदौलत कोरोनामुक्त हो गए थे। कुंजल अपच, गैस, एसिडिटी, विषाक्त भोजन, अजीर्ण आदि रोगों के उपचार में भी सहायक है। पेट की बीमारी खासतौर से कब्ज से मुक्ति दिलाने में शंखप्रक्षालन की बड़ी भूमिका होती है। आसन पेट संबंधी बीमारियों के लिए बड़े काम के होते हैं। इस बात को लेकर देश-विदेश में कई अनुसंधान हुए। सबका सार यह कि योगासनों से उदर प्रदेश के पाचन अंगों में जब दबाव बढ़ता-घटता है तो रक्त संचार भी का तरीका बदल जाता है। दबाव पड़ते ही रक्त संचार बंद हो जाता है और दबाव हटते ही रक्त तेजी से पाचन अंगों में भर जाता है। इस तरह पाचन अंगों की गंदगी हटती है और उसे शुद्ध आक्सीजन और पोषक तत्व मिल जाते हैं।

मिसाल के तौर पर भुजंगासन को ही ले लीजिए। यह आसन मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र के साथ ही पाचन तंत्र के लिए भी प्रभावी और लाभदायक है। यह पेट की मांसपेशियों को मजबूत करता है और पूरे पाचन तंत्र को साफ करता है। कब्ज और अपच की समस्या को ठीक करता है। यदि थॉइराइड ग्रंथि के कारण पेट की समस्या है तो सर्वांगासन सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है। इस आसन से पड़ने वाला दबाव थाइराइड ग्रंथियों को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इन ग्रंथियों को नियंत्रित करने में पीयूष (पिट्यूटरी) व पीनियल ग्रंथियों की बड़ी भूमिका होती है। यह आसन इन ग्रंथियों को भी सही तरीके से कार्य करने में सहायता करता है।

पश्चिमोत्तानासन कब्ज और पाचन संबंधी विकारों के लिए एक उत्कृष्ट आसन है। इससे पेट पर गहरा दबाव पड़ने के कारण पेट की मालिश हो जाती है और कब्ज, कमजोर पाचन तंत्र और सुस्त जिगर से संबंधित परेशानियों से राहत मिल जाती है। योग के अभ्यासों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए एकाग्रता काफी मायने रखती है। जिस तरह आधुनिक विज्ञान मानव शरीर को मुख्यत: ग्यारह तंत्रों या संस्थानों में विभाजित करता है। उसी तरह योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मूलाधार पिंड से लेकर ऊपर तक सात चक्र होते हैं। नीचे से तीसरा है मणिपुर चक्र। यह पाचन और चयापचय (मेटाबालिज्म) का मुख्य केंद्र है। पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास करते समय ध्यान मणिपुर चक्र पर केंद्रित रखने से आसन का पूरा फल मिलता है। जिस आसनों या अन्य योगाभ्यासों का संबंध जिन चक्रों से है, उन सबके लिए यह बात लागू है। पश्चिमोत्तानासन उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और स्पॉडिलाइटिस से पीड़ित लोगों को यह आसन नहीं करने की सलाह दी जाती है।

आसनों की तरह प्राणायम का भी पाचन तंत्र पर असर होता है। योग रिसर्च फाउंडेशन अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि योग मन व प्राणमय शरीर को परिचालित करके ही पाचन संबंधी समस्याओं का इतना प्रभावशाली उपचार करने में सफल हो पाता है। सच तो यह है कि पेट संबंधी योग साधना का मुख्य उद्देश्य मणिपुर चक्र को जाग्रत करना ही होता है। ताकि मणिपुर चक्र से जठराग्नि को पर्याप्त प्राण-शक्ति मिलती रहे। इसके लिए आमतौर पर कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम की अनुशंसा की जाती है। बिहार योग विद्यलय पेट संबंधी बीमारियों में प्रत्याहार की विधियों में योग निद्रा पर ज्यादा जोर देता है। उसके मुताबिक पेट संबंधी बीमारियों में मानसिक तनाव और नकारात्मक दृष्टिकोण की बड़ी भूमिका होती है।

इस तरह स्पष्ट है कि जीवनशैली में बड़ा बदलाव किए बिना योगाभ्यासों की बदौलत प्राकृतिक रूप से पेट और उससे जुड़ी अन्य समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। यह जरूरी भी है। इसलिए कि साबित हो चुका है कि गठिया से लेकर अनेक प्रकार के कैंसर तक में पाचन तंत्र के विकारों की बड़ी भूमिका होती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार //

आज आषाद माह की पूर्णिमा को हम सब मनाते तो हैं गुरू पूर्णिमा के रूप में। पर शिष्यों के लिए इसकी अहमियत ज्यादा है। क्यों? क्योंकि गुरू की पूर्णिमा हो चुकी होती है। तभी तो हम उन्हें गुरू, ब्रह्म या साक्षात् ईश्वर के रूप में पूजते हैं। पूर्णिमा तो शिष्यों की होनी है। तभी गुरू इस मौके पर हमारी आसक्ति की जंजीर को तोड़कर संसार के बंधन से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह दिन शिष्यों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सवाल है कि शिष्य के तौर पर हम सब क्या करें कि गुरू पूर्णिमा सार्थक बन जाए? हम जिस गुरू से जुड़ने जा रहे हैं, वह गुरू समर्थ है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें और यदि गुरू उच्च कोटि के संत हैं तो उनके साथ हमारा संबंध कैसा होना चाहिए? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें निश्चित रूप से मंथन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद को शिष्य धर्म की कसौटी पर कसे बिना गुरू पूर्णिमा जैसा स्वर्णिम अवसर भी अर्थहीन हो जाएगा। उत्सव हम भले मना लेंगे। पर हमारे जीवन में किसी तरह का बदलाव नामुमकिन होगा।

शिष्यों के लिए गुरू पूर्णिमा कितने महत्व का है, यह आदिगुरू शिव और सप्त ऋषियों की कथा से स्पष्ट है।  शिव जी का हिमालय में ध्यानमग्नावस्था में अवतरित होना साधना मार्ग में आगे बढ़ रहे हिमालय के सात ब्रहम्चारियों के लिए किसी दैवीय संयोग से कम न था। उन्हें इस अवतारी महापुरूष में गुरू तत्व दिखा। उधर, अंतर्यामी शिवजी का ध्यान टूटा तो उन साधकों की इच्छा समझते देर न लगी। शिवजी ने उन्हें शिष्य की पात्रता हासिल करने के लिए कुछ साधनाएं बता दी। कोई 84 वर्षों की साधना के बाद जब वे शिष्य बनने के पात्र हो गए तो शिवजी ने आषाद महीने की पूर्णिमा के दिन उन साधकों को ज्ञान उपलब्ध कराया था। उसी दिन आदियोगी आदिगुरू बने और सात शिष्य कालांतर में सप्तऋषि कहलाए, जिनके नाम थे वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इस तरह सप्तऋषियों की पूर्णिमा हो गईं और आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन उत्सव का दिन बन गया।

इस कथा से साबित होता है कि शिष्य तभी बना जा सकता है, जब हममें इसकी पात्रता होगी। पर पहले समझिए कि पात्रता क्यों जरूरी है। कुंडलिनी तंत्र के मुताबिक, हमारे शरीर के अन्दर एक प्रमुख चक्र है, जिसे हम ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। कुछ लोग इसे गुरु-चक्र भी कहते हैं। इसका स्थान भूमध्य के पीछे जहाँ सुषुम्ना समाप्त होती है, वहीं है। इसकी एक अपनी विशेषता है। साधना के सिलसिले में ज्यों-ज्यों साधक की बाह्य चेतना अचेत होती जाती है, उसी अनुपात में यह चक्र जगता जाता है। एक ओर मन, बुद्धि, चित्त और इन्द्रियों का लोप होते जाता है, तथा दूसरी ओर इष्ट देव का चित्र स्पष्ट होता जाता है और इसके साथ ही साथ आज्ञा चक्र जाग्रत होता जाता है। ज्योंहि इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई कि वह अन्दर गया। ध्यान की अवस्था में उन्हीं का आज्ञा चक्र जाग्रत होता है, जिनकी इन्द्रियाँ कम चंचल हैं और मन एक हद तक शांत तथा अनासक्त है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका आज्ञा चक्र ध्यान के बाहर भी जाग्रत रहता है, पर ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। ध्यान की अवस्था में जब आदेश ग्रहण करने वाली प्रत्येक इन्द्रिय सो जाती है, तब यही आज्ञा चक्र गुरु का सूक्ष्म आदेश ग्रहण करता है।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं। अब सवाल है कि शिष्य में किस तरह की पात्रता होनी चाहिए? सभी गुरूजन एक ही बात कहते हैं कि निष्कपटता, श्रद्धा और आज्ञाकारिता ये तीन बातें शिष्यत्व की पहली शर्त है। पर इन गुणों का विकास भी तभी होगा, जब हम अष्टांग योग की प्रारंभिक साधना यम-नियम का पालन करना करना सीख जाएंगे। पूर्व में इसी कॉलम में यम-नियम पर विस्तार से लेख प्रकाशित हो चुका है। यम-नियम के बिना आध्यात्मिक प्रगति हो नहीं सकती। महर्षि पिप्पलाद ने भी प्रश्नकर्त्ताओं को पहले यम-नियम का पालन करने को ही कहा था।  

शिष्यत्व की ये योग्यताएं हासिल करने वाला शिष्य ही गुरू की खोज करने में समर्थ हो पता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरू का चयन करते समय देखो कि वह गुरू शिष्य की कसौटी पर कितना खरा है। यदि खरा है तो वह निश्चित रूप से समर्थ गुरू है। मैंने इसी बात को ध्यान में रखकर तो गुरू की खोज की थी। अब सवाल है कि गुरू के साथ हमारा संबंध कैसा हो? स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक पथ पर पहला कदम है, निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा। गुरु सेवा अमर आनन्द की अट्टालिका की नींव है। विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा इसके स्तम्भ हैं। ऊपर की इमारत अनन्त आनन्द है। गुरु सेवा ईश्वर की पूजा है। गुरु सेवा तथा गुरु के प्रति आत्मसमर्पण हृदय के द्वार खोलता है, चेतना का विस्तार करता है तथा आत्मा को गहराई प्रदान करता है। जो आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-भाव के साथ गुरु-सेवा करता है, वही सच्चा शिष्य है। गुरु-सेवा में आप जितनी अधिक शक्ति लगाएंगे, उतनी ही अधिक दैनिक शक्ति का संचार होगा।

इस तरह गुरू पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा प्रारब्ध चाहे जैसा भी हो, यदि हम सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने को तैयार हैं तो हमारे लिए अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा खुल सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्य-धर्म के निर्वहन का संकल्प लेने का दिन है। रस्मी तौर पर केवल गुरू का गुणगान करने से बात बनने वाली नहीं। गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

चेतना के विकास में बड़े काम का है गायत्री मंत्र

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकने-चौंकाने वाली बात न थी। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर में उस समय क्या घटित हो रहा था, उसका आंखों देखा हाल ऐसे बतला दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ देख रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी। परीक्षण के बाद उस तस्वीर को बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में इसे त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।    

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह स्वस्थ्य और सक्रिय रखा जा सकता है? उपाय अनेक हैं। पर गायत्री मंत्र किसी भी यौगिक उपाय से बढ़कर है। कुछ वैज्ञानिक अनुसंधानों से इस मंत्र की अहमित को समझिए। मंत्र विज्ञान पर अनुसंधान करने वालों में अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. हॉवर्ड स्टिंगरिल का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे अपनी प्रयोगशाला में मंत्रों की शक्ति का वर्षों परीक्षण के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि गायत्री मंत्र बेहद शक्तिशाली है। इसके जप से प्रति सेकंड 110,000 ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो सर्वाधिक हैं। हैम्बर्ग विश्वविद्यालय ने मानव के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक विकास में गायत्री मंत्र की भूमिका पर कई साल पहले शोध शुरू किया था। पायलट प्रोजेक्ट के तहत रेडियो पारामारिबो, सूरीनाम, दक्षिण अमेरिका, जर्मन व हालैंड से प्रतिदिन शाम 7 बजे से 15 मिनट के लिए गायत्री मंत्र का प्रसारण किया गया। कुछ लोगों का समूह बनाकर उन्हें नियमित रूप से रेडियो पर गायत्री मंत्र सुनने और उससे अपने को तादात्म्य बनाने को कहा गया था। छह महीनों बाद पाया गया कि जप के समय कंपन वातावरण में फैलता है। वही कंपन सकारात्मक परमाणुओं को आकर्षित करके मंत्र से तादात्म्य बनाने वाले व्यक्ति के पास लौटता है और उसे उस सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

वैदिककालीन ऋषि तो सदियों से गायत्री शक्ति की महत्ता को स्वीकारते रहे हैं। तभी वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता, गायत्री उपनिषद, गायत्री संहिता, गायत्री तंत्रम, गायत्री रामायण, गायत्री सहस्रनाम, गायत्री चालीसा और गायत्री हृदयम जैसे न जाने कितने ही ग्रंथ उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था – ऊं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है। हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उनके उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे।

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध आज्ञा चक्र से होने के कारण इसका उच्चारण करने से ऐसे स्पंदन उत्पन्न होते हैं, जो आज्ञा चक्र को जागृत करते हैं। भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

संतों और आधुनिक युग के वैज्ञानिकों के अनुभवों से स्पष्ट है कि यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो इससे जीवन में बड़ा और सकारात्मक बदलाव देखने को मिल सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग की शुद्धता बनाए ऱखने का संकल्प लें


किशोर कुमार

भारत एक बार फिर इतिहास रचने जा रहा है। नौंवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग सत्र का नेतृत्व करेंगे। यह वही मंच है जहां प्रधानमंत्री मोदी ने नौ साल पहले पहली बार अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के वार्षिक आयोजन का प्रस्ताव रखा था। इस बार के आयोजन का थीम है – वसुधैव कुटुम्बकम’, जो हमारे सनातन धर्म का मूल मंत्र रहा है। हमारा दर्शन है कि संपूर्ण विश्व एक परिवार है। इसी अवधारणा की वजह से भारत लंबे समय तक विश्व गुरू बना रहा। भारत में सामर्थ्य है कि वह फिर से विश्व गुरू बन सकता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भले भारत की पहल पर दुनिया भर में मनाया जाना लगा है। पर हमें इस बात को याद रखना होगा कि हमारे संतों और योगियों ने इसके लिए पृष्ठभूमि पहले से तैयार कर रखी थी। तभी दुनिया ने हमारी बातों को गंभीरता से लिया। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस तो 2015 से मनाया जा रहा है। पर भारत में पहली बार विश्व योग सम्मेलन सन् 1953 में ऋषिकेश में हुआ था। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसके लिए पहल की थी। ‘योग तथा विश्व धर्म संसद” उस योग सम्मेलन का थीम था। इसके माध्यम से पहली बार योग के सिद्धांतों, विचारधाराओं तथा विधियों को जनसाधारण्य के सामने लाया गया था। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य मनुष्य जीवन के विभिन्न आयामों की जानकारी, समझ और अनुभव प्रदान करना था।

इस आयोजन के बीस साल बाद यानी 1973 में परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने दूसरे विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया था। पचास से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने भारत आए थे। इस आयोजन का मुख्य लक्ष्य विश्वव्यापी स्तर पर योग का प्रचार-प्रसार करना था। उनका मानना था कि साधारण योग शिक्षकों की बजाय योग केवल उन्हीं लोगों के द्वारा सिखाया जाना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन में योग को आत्मसात् और सिद्ध किया हो। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि आने वाले भविष्य में ऐसे हजारों-लाखों ‘किताबी योग शिक्षक’ आ जाएँगे जो किसी किताब में से कुछ आसनों के चित्र देखकर योग सिखाना शुरू कर देंगे और अपने आपको योग शिक्षक कहेंगे। आज देश के कोने-कोने में तो क्या, सारे विश्व में यही होता दिखाई दे रहा है। इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संन्यासियों को योग की शिक्षा देनी प्रारम्भ की थी। सन् 1973 के सम्मेलन के बाद योग आन्दोलन सारे विश्व में दावानल की तरह फैल गया और दुनिया के कोने-कोने में योग केन्द्र, आश्रम और शिक्षक तैयार होने लगे। योग प्रचार के साथ-साथ योग अनुसंधान तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में योग के प्रयोग भी किए जाने लगे।

यह सुखद है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती द्वारा विश्व योग सम्मेलन की शुरू की गई परंपरा आज भी कायम है। अब बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। अब तो कई अन्य भारतीय संगठन भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग सम्मेलन करने लगे हैं। इसका असर विश्वव्यापी है। साठ और सत्तर के दशक में बल्गेरिया एक साम्यवादी देश था, जहाँ योग और अध्यात्म के लिए कोई स्थान नहीं था। आज बल्गेरिया में बड़ी संख्या में लोग योग साधना करते हैं। स्वामी योगभक्ति सरस्वती का एक आलेख हाल ही पढ़ा था। उसके मुताबिक फ्रांस में भारतीय योग पद्धति लोकप्रियता के शिखर पर है। वहां की सरकार बच्चों की योग शिक्षा को लेकर काफी सजग और सतर्क रहती है। इसके लाभ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे हैं। योगनिद्रा साधना सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य रूप से होती है।

विश्व योग सम्मेलनों से यौगिक अनुसंधानों को भी काफी बढ़ावा मिला है। विज्ञान समझने का प्रयास करता है और योग अनुभव दिलाता है। विज्ञान के द्वारा हम यह जान पाते हैं कि योग की उपयोगिता इस जीवन में क्या है और योग के द्वारा हम जान पाते हैं कि हम अपने जीवन को एक सुन्दर उद्यान में कैसे परिवर्तित कर सकते हैं। बीते पाचास-साठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो यौगिक अनुसंधानों के मामले में खासतौर से कैवल्यधाम, लोनावाला और बिहार योग विद्यालय के काम उल्लेखनीय हैं। एक तरफ स्वामी कुवल्यानंद योग अनुसन्धान द्वारा योग की व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर रहे तो दूसरी तरफ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसी काम को विश्वव्यापी फलक प्रदान किया। इन बातों से स्पष्ट है कि भारत में विश्व गुरु बनने के गुण मौजूद हैं।

भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। रूद्रयामल तंत्र से पता चलता है कि पार्वती ने भगवान शंकर से प्रश्न किया था, ‘इस संसार में बहुत कष्ट है, रोग, व्याधि, अशान्ति और अराजकता है। मनुष्य दुःख के वातावरण में जन्म लेता है, दुःख में ही अपना जीवन व्यतीत करता है। सुख प्राप्ति के लिए जीवन पर्यन्त दुःख से संघर्ष करता है और अंत में दुःख के वातावरण मृत्यु को प्राप्त करता है। क्या इस संसार में, इस जीवन में दुःख से मुक्ति सम्भव है?’ जबाव में शिव जी ने माता पार्वती को योग की शिक्षा दी। वही योग शिक्षा हमारी थाती है।

आज योग आज भले ही एक विश्वव्यापी शब्द बन गया है। पर अपवादों के छोड़ दें तो उसकी पहचान शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सिमट कर रह गई है। जीवन को परिवर्तित करने, पल्लवित करने, सुधारने की प्रक्रिया के रूप में कुछ परंपरागत योग संस्थान ही काम कर पा रहे हैं। संत कबीर एक दो नहीं, बल्कि चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब बचपन से ही सुनते-समझते आए हैं। घट-घट में बैठे राम की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है। पर तीसरे और चौथे राम की तो चर्चा तक नहीं होती। आमतौर पर न कोई बतलाता है और न ही हम जानने की कोशिश करते हैं कि जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? योग के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हम वर्षों से आसन और प्राणायाम में ही उलझे हुए हैं।

इतनी प्राचीन किन्तु सर्वशक्तिशाली विद्या को सीमित दायरे में रखना आत्मघाती होगा। हमें आसन और प्राणायाम से आगे की बात करनी होगी। योग की समग्रता और शुद्धता पर ध्यान देना होगा। तभी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की सार्थकता होगी और तभी भारत विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होकर वसुधैव कुटुंबकम् के मंत्र को सार्थक कर पाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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