गुरू पूर्णिमा नहीं, शिष्य पूर्णिमा कहिए!

किशोर कुमार //

आज आषाद माह की पूर्णिमा को हम सब मनाते तो हैं गुरू पूर्णिमा के रूप में। पर शिष्यों के लिए इसकी अहमियत ज्यादा है। क्यों? क्योंकि गुरू की पूर्णिमा हो चुकी होती है। तभी तो हम उन्हें गुरू, ब्रह्म या साक्षात् ईश्वर के रूप में पूजते हैं। पूर्णिमा तो शिष्यों की होनी है। तभी गुरू इस मौके पर हमारी आसक्ति की जंजीर को तोड़कर संसार के बंधन से मुक्त कराने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसलिए यह दिन शिष्यों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब सवाल है कि शिष्य के तौर पर हम सब क्या करें कि गुरू पूर्णिमा सार्थक बन जाए? हम जिस गुरू से जुड़ने जा रहे हैं, वह गुरू समर्थ है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें और यदि गुरू उच्च कोटि के संत हैं तो उनके साथ हमारा संबंध कैसा होना चाहिए? ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर हमें निश्चित रूप से मंथन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुद को शिष्य धर्म की कसौटी पर कसे बिना गुरू पूर्णिमा जैसा स्वर्णिम अवसर भी अर्थहीन हो जाएगा। उत्सव हम भले मना लेंगे। पर हमारे जीवन में किसी तरह का बदलाव नामुमकिन होगा।

शिष्यों के लिए गुरू पूर्णिमा कितने महत्व का है, यह आदिगुरू शिव और सप्त ऋषियों की कथा से स्पष्ट है।  शिव जी का हिमालय में ध्यानमग्नावस्था में अवतरित होना साधना मार्ग में आगे बढ़ रहे हिमालय के सात ब्रहम्चारियों के लिए किसी दैवीय संयोग से कम न था। उन्हें इस अवतारी महापुरूष में गुरू तत्व दिखा। उधर, अंतर्यामी शिवजी का ध्यान टूटा तो उन साधकों की इच्छा समझते देर न लगी। शिवजी ने उन्हें शिष्य की पात्रता हासिल करने के लिए कुछ साधनाएं बता दी। कोई 84 वर्षों की साधना के बाद जब वे शिष्य बनने के पात्र हो गए तो शिवजी ने आषाद महीने की पूर्णिमा के दिन उन साधकों को ज्ञान उपलब्ध कराया था। उसी दिन आदियोगी आदिगुरू बने और सात शिष्य कालांतर में सप्तऋषि कहलाए, जिनके नाम थे वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक। इस तरह सप्तऋषियों की पूर्णिमा हो गईं और आषाढ़ की पूर्णिमा का दिन उत्सव का दिन बन गया।

इस कथा से साबित होता है कि शिष्य तभी बना जा सकता है, जब हममें इसकी पात्रता होगी। पर पहले समझिए कि पात्रता क्यों जरूरी है। कुंडलिनी तंत्र के मुताबिक, हमारे शरीर के अन्दर एक प्रमुख चक्र है, जिसे हम ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। कुछ लोग इसे गुरु-चक्र भी कहते हैं। इसका स्थान भूमध्य के पीछे जहाँ सुषुम्ना समाप्त होती है, वहीं है। इसकी एक अपनी विशेषता है। साधना के सिलसिले में ज्यों-ज्यों साधक की बाह्य चेतना अचेत होती जाती है, उसी अनुपात में यह चक्र जगता जाता है। एक ओर मन, बुद्धि, चित्त और इन्द्रियों का लोप होते जाता है, तथा दूसरी ओर इष्ट देव का चित्र स्पष्ट होता जाता है और इसके साथ ही साथ आज्ञा चक्र जाग्रत होता जाता है। ज्योंहि इन्द्रियाँ बहिर्मुख हुई कि वह अन्दर गया। ध्यान की अवस्था में उन्हीं का आज्ञा चक्र जाग्रत होता है, जिनकी इन्द्रियाँ कम चंचल हैं और मन एक हद तक शांत तथा अनासक्त है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका आज्ञा चक्र ध्यान के बाहर भी जाग्रत रहता है, पर ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। ध्यान की अवस्था में जब आदेश ग्रहण करने वाली प्रत्येक इन्द्रिय सो जाती है, तब यही आज्ञा चक्र गुरु का सूक्ष्म आदेश ग्रहण करता है।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं। अब सवाल है कि शिष्य में किस तरह की पात्रता होनी चाहिए? सभी गुरूजन एक ही बात कहते हैं कि निष्कपटता, श्रद्धा और आज्ञाकारिता ये तीन बातें शिष्यत्व की पहली शर्त है। पर इन गुणों का विकास भी तभी होगा, जब हम अष्टांग योग की प्रारंभिक साधना यम-नियम का पालन करना करना सीख जाएंगे। पूर्व में इसी कॉलम में यम-नियम पर विस्तार से लेख प्रकाशित हो चुका है। यम-नियम के बिना आध्यात्मिक प्रगति हो नहीं सकती। महर्षि पिप्पलाद ने भी प्रश्नकर्त्ताओं को पहले यम-नियम का पालन करने को ही कहा था।  

शिष्यत्व की ये योग्यताएं हासिल करने वाला शिष्य ही गुरू की खोज करने में समर्थ हो पता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि गुरू का चयन करते समय देखो कि वह गुरू शिष्य की कसौटी पर कितना खरा है। यदि खरा है तो वह निश्चित रूप से समर्थ गुरू है। मैंने इसी बात को ध्यान में रखकर तो गुरू की खोज की थी। अब सवाल है कि गुरू के साथ हमारा संबंध कैसा हो? स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक पथ पर पहला कदम है, निःस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा। गुरु सेवा अमर आनन्द की अट्टालिका की नींव है। विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा इसके स्तम्भ हैं। ऊपर की इमारत अनन्त आनन्द है। गुरु सेवा ईश्वर की पूजा है। गुरु सेवा तथा गुरु के प्रति आत्मसमर्पण हृदय के द्वार खोलता है, चेतना का विस्तार करता है तथा आत्मा को गहराई प्रदान करता है। जो आत्म-नियंत्रण तथा आत्म-भाव के साथ गुरु-सेवा करता है, वही सच्चा शिष्य है। गुरु-सेवा में आप जितनी अधिक शक्ति लगाएंगे, उतनी ही अधिक दैनिक शक्ति का संचार होगा।

इस तरह गुरू पूर्णिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा प्रारब्ध चाहे जैसा भी हो, यदि हम सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं और उनके बताए मार्ग पर चलने को तैयार हैं तो हमारे लिए अस्तित्व का प्रत्येक दरवाजा खुल सकता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि गुरू पूर्णिमा शिष्य-धर्म के निर्वहन का संकल्प लेने का दिन है। रस्मी तौर पर केवल गुरू का गुणगान करने से बात बनने वाली नहीं। गुरू पूर्णिमा की शुभकामनाएं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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