गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि

किशोर कुमार

भारतीय लोकतंत्र के ऩए मंदिर यानी नए संसद भवन एक तरफ वैदिक मंत्रोच्चार से गूंजायमान था। उसी समय पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव बतला रहे थे कि यदि शरीर का आज्ञा-चक्र सक्रिय हो जाए तो उसका क्या प्रभाव होता है। उन्होंने दो बच्चों को प्रस्तुत किया, जिनकी आंखों पर पट्टियां थी और वे पुस्तकें पढ़ ले रहे थे। छपी हुई तस्वीरों के रंग तक बता दे रहे थे। मिड ब्रेन एक्टिवेशन के युग में यह कोई चौंकाने वाली बात न रही। पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों की सीमाएं हैं। अभी वह इस स्थिति में नहीं पहुंचा है कि हजारों मील दूर बैठे किसी संजय से महाभारत जैसे युद्ध की कमेंट्री करवा दे। पर योग-शक्ति से सक्रिय मस्तिष्क की कोई सीमा नहीं होती। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।

इसी युग में अमेरिकी नागरिक टेड सिरियो ने अमेरिका में बैठे-बैठे भारत के आगरा शहर के भौगोलिक स्थितियों का बयान ऐसे कर दिया था, मानो वह आगरा के किसी ऊंचे टीले से सबकुछ बता रहा हो। यही नहीं, उसने अपनी आंखों में कुछ तस्वीरें बसा ली थी, जिसके परीक्षण के बाद बिल्कुल सही पाया गया था। इसे तंत्र विज्ञान की भाषा में आज्ञा-चक्र का सक्रिय होना माना गया था। वैदिक युग में त्रिनेत्र का खुल जाना कहा गया। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि मानसिक अनुभूमियां पदार्थ पर आधारित नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि सामने जब कोई चित्र न हो तथा आसपास संगीत न बज रहा हो, फिर भी हम उन्हें देख-सुन सकते हैं। यह मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषता है। मानसिक अनुभव के क्षेत्र का विस्तार करके यह शक्ति प्राप्त की जा सकती है। ऐतिहासिक तथ्यों और हाल की कुछ घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार रहा है। उसकी भाषा में यह कुछ और नहीं, बल्कि पीयूष ग्रंथि या पीनियल ग्लैंड का सक्रिय होना है।     

आखिर आज्ञा-चक्र या पीनियल ग्लैंड को किस तरह सक्रिय किया जा सकता है? गायत्री जयंती इस साल 31 मई को मनाई गई। यह लेख उसी आलोक में होगी। वैसे, गायत्री विद्या इतना व्यापक है कि इसके किसी भी पक्ष को ले लीजिए, यदि ज्ञान है तो मोटे-मोटे ग्रंथ तैयार हो जाएंगे। इसकी व्यापकता का अंदाज इस बात से लगा सकते हैं कि वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में गायत्री गीता है तो गायत्री उपनिषद है, गायत्री संहिता है तो गायत्री तंत्रम है। गायत्री रामायण है तो गायत्री सहस्रनाम है। गायत्री चालीसा है तो गायत्री हृदयम है। कहा जाता है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए ही चार वेद हैं। इसलिए गायत्री को वेदमाता कहा गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शक्तियां चाहिए थी। तब ब्रहमांडीय शक्ति की आकाशवाणी के जरिए उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। वह मंत्र था –गायत्री सिद्धि, सद्गुणों में अभिवृद्धि। इस मंत्र का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है।

हममें से अनेक लोग बिना अर्थ जाने भी गायत्री मंत्र का पाठ कर लेते हैं। पर जब कोई उपलब्धि नहीं मिलती तो मंत्र की शक्ति पर ही अविश्वास करने लग जाते हैं। गायत्री मंत्र के जरिए हम जो प्रार्थना करते हैं, उसका भाव होता है – उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें। तुलसीदास जी ने हनुमान जी को ज्ञान और गुणों का सागर कहा है। पौराणिक कथा है कि हनुमान जी को गायत्री मंत्र की दीक्षा मिली थी। उपनयन संस्कार में भी यही मंत्र प्रयुक्त हुआ था। वे इस मंत्र की शक्ति से प्रखर व तेजयुक्त होते गए थे। कालांतर में तथ्यों के आधार पर यह विचार बलवती होता गया कि मनुष्य गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। 

बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि ऊं नाद है तो गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। ध्वनि सिद्धांत के अंतर्गत ऊं नाद का प्रतीक है। सृजन के क्रम में इस ध्वनि का विकास होता गया। इस तरह कह सकते हैं कि ऊं मंत्र का विकसित स्वरूप ही गायत्री है। वैदिक सिद्धांतों में गायत्री को प्राण की इष्ट देवी कहा गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ तो इस बात की पुष्टि हुई कि गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम साधना अत्यंत प्रभावकारी होती है। योग शास्त्र में आज्ञा-चक्र को सक्रिय करने के लिए अनेक विधियां बतलाई गई हैं। यह सच है कि उनमें से किसी भी विधि से आज्ञा-चक्र को सक्रिय किया जा सकता है। पर इस मामले में गायत्री मंत्र की शक्ति अद्भुत है। इस मंत्र के सभी 24 अक्षरों के अलग-अलग देवता हैं और उन अक्षरों के उच्चारण का कुंडलिनी चक्रों पर प्रभाव होता है। जैसे, जब हम तत् का उच्चारण करते हैं तो इसके देवता गणेश हैं, जो सफलता शक्ति प्रदान करने वाले हैं।

जैसे हनुमान जी का उपनयन संस्कार हुआ था, वैसे ही भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास करवाया जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक बच्चों के आठ-नौ साल के होते ही पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। इसके साथ ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। इसके अलावा में कई असंतुलन आते हैं। इसलिए उपनयन संस्कार के लिए आठ साल की उम्र का आदर्श माना जाता था।

गायत्री उपासना से आध्यात्मिक उपलब्धियों के साथ ही भौतिक उपलब्धियां मिलने के भी उदाहरण भरे-पड़े हैं। आधुनिक विज्ञान ने गायत्री मंत्र की वैज्ञानिकता और मानव की चेतना के विकास में उसके महत्व का बार-बार उजागर किया है। गायत्री जयंती पर यदि हम संकल्प लें कि गायत्री मंत्र की साधना को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएंगे तो यह बड़ी उपलब्धि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पथ भूल न जाना पथिक कहीं!

किशोर कुमार

वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के महान संतों तक के जीवन-दर्शन का अध्ययन करने पर पाते हैं कि उन सबने सदैव धर्मानुकूल आचरण की शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उनकी ख्वाहिश रही कि संसार में शांति और आनंद रहे। इसलिए उनकी कामना रही कि मानव में ऐसे सद्गुणों का विकास हो कि निष्काम सेवा जीवन का रस, विश्व प्रेम आहार और पवित्रता जल बन जाए। वे जानते थे कि ऐसा हुए बिना न तो भक्ति जीवन की मिठास बनेगी और न ही ध्यान जीवन की धुरी बन पाएगा। ऐसे में मोक्ष की बात तो बेमानी ही होगी। संत-महात्मा कहते रहे हैं कि कलियुग में इस महान उद्देश्य की प्राप्ति का एक ही साधन है, वह है नाम संकीर्तन, सत्संग और भगवान के जीवन चरित् का गुणगाण। इनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। बाह्य-वृत्तियों में फंसा मानव भला दूसरी कठिन साधना कर भी कैसे सकता है?

ऐसे में भक्ति के अवतार योगी श्रीहनुमान की महिमा बतलाने के लिए प्रभावशाली आध्यात्मिक नेता मंच पर हो और चिलचिलाती धूप के बावजूद हनुमत् कथा सुनने के लिए लाखों की भीड़ हो तो आध्यात्मिक चेतना के विकास के बंद खिड़की-दरवाजे न खुलें, तो हैरानी होगी। बिहार में कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ था। चर्चित बागेश्वर धाम सरकार उर्फ धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री अपने इष्ट दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान के आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए एक ही जगह जमे रहे तो लाखों भक्त भी टस से मस न हुए। श्रीहनुमान के जीवन चरित से आध्यात्मिक चेतना के विकास का स्वर्णिम अवसर था। पर ऊर्जा के प्रवाह की दिशा जाने-अनजाने बदल गई। स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल गया। कैसे? इसकी चर्चा से पहले कुछ बातों को लेकर स्पष्टता जरूरी है।

कारपोरेट जगत में हर साल व्यावसायिक प्रेरकों और आध्यात्मिक नेताओं के व्याख्यानों पर लाखों रूपए खर्च किए जाते हैं। ताकि कर्मचारियों में उत्कृष्ट कार्य-संस्कृति का निर्माण हो सके। नए प्रेरको में कुमार विश्वास का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है। वे श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीहनुमान के गुणों का बखान करते हुए देश के भावी कर्णधारों को सफलता के मंत्र देते हैं। पर अलौकिक शक्तियों वाले संत-महात्मा तो सदियों से व्यक्ति को रूपांतरित करने के लिए उपक्रम करते रहे हैं। उनके पास सिद्धियों की प्रचुरता होती है। पर वे उनका उपयोग चमत्कार दिखाने में नहीं, मानव कल्याण के लिए करते हैं। मानव की आंतरिक वृत्तियों, मनोदशाओं और भावनाओं में संतुलन लाने का प्रयास करते रहे हैं। ताकि मानव में मानवीय गुणों का विकास और प्रेम, सेवा व दान का राजपथ तैयार हो सके, जो योग का परम लक्ष्य है।

मैंने जितना समझा है, छोटी-मोटी हजारों ऐसी यौगिक विधियां हैं, जिनका अभ्यास करके कोई भी कुछ समय के लिए चमत्कारी बाबा बन सकता है। अंग्रेजी पत्रकार पॉल ब्रंटन तीस के दशक में भारत आए थे। उन्होंने सुन रखा था कि भारत सपेरों का देश है। भारत पहुंचे तो संयोग से उनकी धारणा बलवती होती गई थी। पर ज्ञानयोगी रमण महर्षि के सम्मुख उपस्थित हुए तो उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा की आग में ऐसे तपे कि उनके होकर ही रह गए थे। उनकी पुस्तक “ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया” चमत्कारी बाबाओं की कहानियों से अटी पड़ी है। पर वैसे बाबा जल्दी ही गुमनामी के अंधेरे में खो गए थे। झारखंड के धनबाद में मेरे एक परिचित ने कुछ सिद्धियां हासिल कर ली थी। उनसे कोई भी कुछ भी सवाल करता, उत्तर तुरंत दे देते थे और कमाल यह कि उत्तर सही होते थे। मैं खुद कम से कम ऐसी पचास घटनाओं का गवाह हूं। पर जीवनकाल में ही सिद्धियों का असर जाता रहा।

झारखंड के ही निर्मल बाबा याद होंगे। उनका जलवा पूरे देश में था। भक्त भी आध्यात्मिक चेतना के विकास के नहीं, बल्कि तात्कालिक लाभों के लिए भीड़ लगाए रहते थे। निर्मल बाबा भक्त और भगवान के बीच “अटकी पड़ी कृपा” के मार्ग की बाधाएं दूर करने के टोटके बतलाने में व्यस्त रहते थे। अनेक लोग माइक लेकर भरी सभा में दावा करते थे कि बाबा के उपायों से जीवन की बाधाएं दूर हो चुकी हैं। पर अब निर्मल बाबा की दूर-दूर तक चर्चा सुनाई नहीं पड़ती। वैसे, चमत्कार तो महानतम संत भी दिखलाते रहे हैं। पर उद्देश्य खुद की महानता साबित करना नहीं होता था। बनारस गजेटियर में उल्लेख है कि महान संत तैलंग स्वामी को खुले बदन पूरे शहर में भ्रमण के करने के जुर्म में जेल में बंद कर दिया गया था। उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी। पर अपनी यौगिक शक्तियो के बल पर सूक्ष्म रूप धारण करके जेल से बाहर चले जाते थे। अंग्रेजों को ईश्वरीय शक्ति का अहसास करने के लिए ऐसा करते थे।  

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “लोग जिसे चमत्कार मानते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि यौगिक शक्ति है। बैंक डिपॉजिट की तरह है। उसका इस्तेमाल जितनी तेजी से होगा, खजाना उतना ही जल्दी खाली हो जाएगा।“  ऐसा लगता है कि बाबा बागेश्वर धाम अपनी शक्तियों का खजाना तेजी से खाली कर रहे हैं। ऐसे में भारत के पुनरूत्थान के लिए श्रीहनुमान के उच्च आदर्शों से युवाओं में क्रांति-बीज बोने की उनकी संकल्पना मंद पड़ जाए तो हैरानी नहीं। इस युग का महान लक्ष्य है कि भारत अपने सनातनी ज्ञान की बदौलत विश्व गुरू बने। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “जब सैकड़ों हजार नर-नारी पवित्रता की अग्नि से पूर्ण, ईश्वर में अविचल विश्वास से युक्त और हृदय में सिंह का साहस लिए गरीब और पददलितों के प्रति सहानुभूति रखते हुए भारत के कोने-कोने में मुक्ति, सहयोग, सामाजिक उत्थान और समानता का सन्देश देते हुए विचरण करेंगे तब भारत विश्वगुरु बनेगा।”

बागेश्वर धाम सरकार उर्फ धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की सिद्धियों का प्रतिफल है कि वे आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं। वे जानते हैं कि श्रीहनुमान के आदर्श ऐसे हैं कि युवा-शक्ति उनसे प्रेरणा लेकर महान उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं। इसलिए उन्हें अपनी यौगिक शक्तियों का उपयोग चमत्कार दिखाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों की चेतना के प्रवाह को सही दिशा देने के लिए करना होगा। वरना शिवमंगल सिंह सुमन की कविता “पथ भूल न जाना पथिक कहीं!” चरितार्थ होते देर न लगेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पुलिस के लिए योग की सार्थकता

किशोर कुमार //

जीवन योगमय हो तो वह व्यक्ति को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण मिलते रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी राहुल गुप्ता उन्हीं में एक हैं। अरूणाचल प्रदेश में उनके अधीन काम कर रहे बिहार मूल के एक सिपाही की मानसिक पीड़ाएं बढ़ती जा रही थीं। वजह परिवार से दूरी और कार्य जनित तनाव थी। राहुल गुप्ता को पता चला तो विवेक से काम लिया। पुलिस बल की कमी के बावजूद उस सिपाही को दो महीनों की छुट्टी दे दी। इसके उलट उड़ीसा में घटना हुई। गंगपुर थाने का प्रभारी निरीक्षक देव कुमार गमांग मानसिक पीड़ाओं को झेल न सका और अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। इन दो घटनाओं से एक बार फिर पुलिस के लिए योग की सार्थकता साबित हुई है।

जब देश का कोई 14 फीसदी युवा विविध कारणों से मानसिक रोगों का शिकार है तो पुलिस का तनावग्रस्त होना लाजिमी है। पुलिस अनुसंधाव एवं विकास ब्यूरो की पहल पर राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (नीमहांस) ने मुख्यत: महानगरों में कार्यरत पुलिसकर्मियों की मानसिक दशा पर अध्ययन किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। हुबली-धारवाड़ और दिल्ली के क्रमश: 80 और 51 फीसदी पुलिसकर्मी परिवार से दूरी और कार्य जनित तनावों के कारण मानसिक पीड़ाएं झेलने को मजबूर थे। दूसरी तरफ गुरूग्राम विश्वविद्यालय की ओर पुलिसकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अध्ययन कराया गया तो पता चला कि तनाव प्रबंधन में योग की भूमिका बड़े महत्व की होती है।

पर देश के ज्यादातर राज्यों में इतने गंभीर मामले में ढ़ीला-ढ़ाला रवैया ही अपना जाता है। पर सुखद है कि बिहार सरकार का नजरिया थोड़ा बदला-बदला-सा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक तरफ जहां विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य की उपस्थिति में योग व ध्यान केंद्र प्रारंभ किया। वहीं दूसरी तरफ बिहार के पुलिस महानिरीक्षक आरएस भट्टी की पहल पर राजगीर स्थित बिहार पुलिस अकादेमी की ओर से योग शिविर का आयोजन किया गया। इस संकल्प के साथ कि पुलिस के लिए ऐसे शिविर व्यवस्थित ढंग से आयोजित किए जाते रहेंगे। योग शिविर के प्रशिक्षक थे बिहार योग विद्यालय के पूर्व छात्र और दिल्ली स्थित आनंदबोध योग संस्थान के प्रमुख शिवचित्तम मणि। योगाभ्यास के बाद पुलिसकर्मियों को इतना सुकून मिला कि वाह कह उठे। योगाभ्यास के लिए उनके मानसिक तनाव पर फोकस किया गया था। मर्ज यही थी। दवा उसके अनुरूप मिल गई तो वाह-वाह होना ही था।

पुलिस के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अब तक जितने भी अध्ययन किए गए है, सबके निष्कर्ष यही हैं कि पुलिसकर्मियों के लिए योग अनिवार्य है। केवल इसलिए नहीं कि स्वस्थ्य रह सकें, बल्कि इसलिए भी कि विवेकपूर्ण काम कर सकें। हमारे वैदिक ग्रंथ बतलाते हैं कि आदियोगी शिव ने योग का व्याख्यान ही तब दिया, जब उनकी अर्द्धांगिनी पार्वती का मन अस्थिर हो गया था। शिव ने इस समस्या के समाधान के लिए एक-दो नहीं, बल्कि 112 विधियां बतला कर कहा था कि एक विधि भी सध जाए तो बात बन जाएगी। महाभारत काल में भी हालात कुछ ऐसे बने कि श्रीकृष्ण को योग का उपदेश देना पड़ा था। रणक्षेत्र में अर्जुन अवसादग्रस्त होकर निर्णय-अनिर्णय के बीच फंसा हुआ था। हालत ऐसी थी कि चंचल मन पर विजय पाने संबंधी श्रीकृष्ण की बात उसके पल्ले पड़ ही नहीं रही थी। वह बोल उठा, हे कृष्ण मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, यह बलि और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर जान पड़ता है। पर जब लंबे तर्क-विकर्क के बाद आखिर योगबल से ही उसकी चेतना परिष्कृत हुई थी और विवेक जगा था।

इन दोनों ही मामलों में केवल बुद्धि सहारा न बन सका था। बुद्धिमान तो पार्वती भी थीं और अर्जुन भी था। पर जब बुद्धि के प्रशिक्षण से चेतना का परिष्करण हुआ तो विवेक का दीपक जला और मार्ग सुगम होता चला गया। पार्वती जी स्वयं में स्थित हो सकीं यानी स्वस्थ हो सकीं और अर्जुन के द्वंद्व समाप्त हुए तो स्पष्टता आ गई। नीति-अनीति में फर्क कर सका। बीसवीं सदी के महान संत श्रीअरविंद कहा करते थे – बुद्धि एक सहारा था, अब बुद्धि अवरोध है। क्यों? इसलिए कि बुद्धि कठिनतम परीक्षाएं तो पास करवा देती है। पर चेतना-संपन्न और विवेकवान बनने के लिए उसके व्यापक प्रशिक्षण की जरूरत होती है। यह प्रशिक्षण योग-मार्ग पर चलकर ही संभव है। प्रशिक्षित बुद्धि ही अहंकार से मुक्त होकर नीति-अनीति में फर्क करने का सामर्थ्य प्रदान करती है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद इसे विज्ञान के दृष्टिकोण से ऐसे समझाते थे। वे कहते थे कि स्नायु-तंत्र शरीर में टेलीफोन प्रणाली के समान है, जो आंतरिक और बाहरी संकेतों की प्रतिक्रिया शरीर में उत्पन्न करता है। उत्तेजना वर्वस बैलेंस यानी स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है। इससे कुछ अंगों में अत्यधिक ऊर्जा चली जाती है। ऊर्जा या तंत्रिका शक्ति के वितरण में उत्पन्न त्रुटि मानसिक अशांति का कारण बन जाता है। इससे मस्तिष्क से लेकर हृदय तक में आघात पहुंचता है।

योग में शिथिलीकरण की क्रिया जैसे योगनिद्रा आदि को ही तनावों से मुक्ति का मुख्य आधार माना जाता रहा है। पर परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने अफ़्रीका के उत्तर-पश्चिमी छोर से आगे अंध महासागर में स्थित कैनेरी द्वीप में यौगिक अध्ययन करते हुए पाया था कि कुछ आसन पेशीय तनावों के साथ ही मानसिक तनावों से प्रभावी ढंग से मुक्ति दिलाते हैं। जैसे, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन और शशंकासन। पश्चिमोत्तानासन के प्रभावों के देखने के लिए सोलह विभिन्न पेशियों में इलेक्ट्रोड प्रविष्ट कर उनकी गतिविधियों को रिकार्ड किया गया था। देखा गया कि आसन के दौरान पृष्ठ भाग की समस्त मांसपेशियों का तनाव घट गया था। भुजंगासन व शशंकासन के अभ्यासों से पेशीय तनावों के साथ ही भावनात्मक तनाव भी कम गए थे।

पुलिस बलों में बढ़ती मानसिक व भावनात्मक समस्याओं के निराकरण के लिए जरूरी है कि उसे व्यवस्थित तरीके से योग शिक्षा दी जाए। पुलिस मानसिक व भावनात्मक रूप से स्वस्थ होगी तभी विवेकपूर्ण ढंग से विपरीत परिस्थितियों में राजधर्म का निर्वहन कर पाएगी। योगाचार्यों को भी ध्यान रखना होगा कि मानसिक विकारों के वर्गीकरण के आधार पर ही योगाभ्यास कराए जाने चाहिए। वरना नौ दिन चले ढ़ाई कोस वाली कहावत ही चरितार्थ होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योगाभ्यासियों का भी तो कुछ गुण-धर्म होता है

किशोर कुमार

योगाचार्यों का गुण-धर्म क्या हो, इस बात को लेकर तो फिर भी चर्चा हो जाती है। पर योगाभ्यासियों का गुण-धर्म क्या हो, यह विषय अक्सर गौण रह जाता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि गुणी योगाचार्यों का सानिध्य मिलने के बाद भी अनेक मामलों में योग क्यों नहीं सध पाता? और गुणी योगाचार्यों की उपलब्धता के बावजूद हम योग के नीम-हकीमों की जाल में क्यों फंस जाते हैं? पिछले लेख में हमने इस विषय पर मंथन किया था कि योग के नीम-हकीमों की तादाद क्यों बढ़ती जा रही है और सरकार को इसे रोकने के लिए अपने तंत्र को असरदार बनाना जरूरी क्यों है। इस लेख में योगाभ्यासियों की पात्रता की चर्चा होगी। इसलिए कि यदि योगाभ्यासी पात्र नहीं होंगे तो वे न तो कुशल योगाचार्यों का चयन कर पाएंगे और न ही कुशल योगाचार्यों से लाभान्वित हो पाएंगे।

इसे विडंबना ही कहिए कि शारीरिक कष्टों से निवारण के लिए आतुर ज्यादातर लोग योग विद्या से किसी जादू की छड़ी जैसे परिणाम के आकांक्षी होते हैं। साथ ही अपेक्षा यह रहती है कि स्वयं की भूमिका कम से कम हो और छड़ी अपना चमत्कार दिखा दे। हैरानी इस बात से है कि अनेक मरीज योग की महत्ता से वाकिफ होते हुए भी थक-हारकर ही योग की शरण में जाते हैं। तब तक चिड़िया चुग की खेत वाली कहावत चरितार्थ होने की संभावना बलवती हो गई होती है। नतीजा होता है कि सारा दोष योग विद्या या योगाचार्य के मत्थे मढ़ जाता है। विज्ञान की कसौटी पर योग की महत्ता बार-बार साबित होने और योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच विचार होना ही चाहिए कि योग का समुचित लाभ लेने के लिए योगाभ्यासियों में किस तरह के गुण होने चाहिए।

प्रश्नोपनिषद की कथा प्रारंभ ही होती है इस बात से कि शिक्षार्थी का सुपात्र होना कितना जरूरी है। अथर्ववेद के संकलनकर्ता महर्षि पिप्पलाद के पास छह सत्यान्वेषी गए थे। वे सभी एक-एक सवाल के गूढार्थ की सहज व्याख्या चाहते थे। किसी के मन में प्राणियों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न था तो कोई प्रकृति और भवातीत प्राण के उद्भव के बारे में सवाल करना चाहता था। ये सारे सवाल योग विद्या की गूढ़ बातें हैं। महर्षि पिप्पलाद जानते थे कि उन सत्यान्वेषियों में गूढ़ रहस्यों को जानने की पात्रता नहीं है। इसलिए लंबा वक्त दिया और विधियां बतलाई कि कैसे सुपात्र बना जा सकता है। इसके बाद ही उन्हें प्रश्नों के उत्तर दिए, जिसे हम प्रश्नोपनिषद के रूप में जानते हैं।

हम जानते हैं कि योग साधना के दो आयाम हैं। पहली बहिरंग साधना और दूसरी अंतरंग साधना होती है। स्वास्थ्य का मामला बहिरंग साधना के अधीन है। पर योग साधना स्वास्थ्य की इच्छा से की जाए या आंतरिक अनुभूति के लिए, मन को बिना प्रशिक्षित और अनुशासित किए भला यह कैसे संभव है। और मन का प्रशिक्षण इतना आसान नही कि जैसे-तैसे दो-चार आसन – प्राणायाम कर लेने से बात बन जाएगी। पर यदि कोई योगाभ्यासी पहले योग विधियों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन कर ले तो उसे निश्चित रूप से योगाभ्यास को लेकर थोड़ी स्पष्टता आ जाएगी। फिर दृढ़ संकल्प के साथ विधि पूर्वक साधना करने पर हो नहीं सकता कि लाभ न मिले।

आस्ट्रेलिया एक ऐसा देश है, जहां मेडिकल प्रैक्टिशनर्स कैंसर रोगियों को अनिवार्य रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देते हैं। जो मरीज इसे दवा का हिस्सा मानते हैं, उन्हें लाभ भी होता है। दरअसल, सत्तर के दशक में डॉ. एंस्ली मायर्स ने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की प्रेरणा से कैंसर के चार ऐसे मरीजों पर योग के प्रभावों का परीक्षण किया था, जिन्हें अधिकतम छह महीने ही बचना था। योग साधना का असर हुआ कि सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित रहे। तभी से कैंसर रोगियों को योगाभ्यास करने की सलाह दी जाने लगी थी। मरीजों को पवनमुक्तासन समूह के आसन, नाड़ी शोधन व भ्रामरी प्राणायाम, योगनिद्रा और अजपाजप का ध्यान करना होता है। आस्ट्रेलिया कैंसर रिसर्च फाउंडेशन अपने बार-बार के शोधों से मिले परिणामों से इस निष्कर्ष पर है कि जिन मामलों में दवा असर छोड़ने लगती है, उन मामलों में भी ये योग क्रियाएं लाभ दिलाती है। पर मरीज योग का लाभ लेने कि लिए अपने को तीन तरह से तैयार करते हैं। पहला तो वे पुस्तकों से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर मन को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि योग का लाभ मिलेगा ही। फिर योगाचार्य के निर्देशन में योग की बारीकियों को ध्यान में रखते हुए पूरी तल्लीनता से योगाभ्यास करते हैं।      

बिहार योग विद्यालय में तो योग की पुस्तकें ही प्रसाद के रूप में दी जाती हैं। क्यों? इसलिए कि हमें योगाभ्यास में उतरने से पहले योग की महत्ता और योग विधियों की बारीकियों का ज्ञान रहे। ताकि ऐसे योगाचार्यों की तलाश कर सकें, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय में गुरू किसे माना जाए, इस बात को लेकर विस्तृत व्याख्या है। पर बहिरंग योग के मामले में भी इन आध्यात्मिक गुरूओं के कुछ गुण योगाचार्यों में रहे तो बेहतर। पर ऐसे योगाचार्यों के चुनाव के लिए भी योग का बुनियादी ज्ञान तो चाहिए न। तभी तो योगाभ्यासी ऐसे योगाचार्यों की तलाश करेंगे, जिनके मन और व्यक्तित्व सुलझे हुए व संतुलित हों। वे तभी तो योगाभ्यासियों के शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव डाल पाएंगे।

कहते हैं कि जब एक महिला शिक्षित होती है तो एक पीढ़ी शिक्षित होती है। घर में सुख-शांति आती है। योग के मामले में भी यही बात लागू है। हमें आंशिक रूप से भी सैद्धांतिक ज्ञान होता है तो पता रहता है कि हमें योग से तात्कालिक समस्याओं के निवारण के साथ ही कौन-कौन से दूरगामी लाभ मिल सकते हैं। योगियों का अनुभव है कि योग का प्रयोजन केवल रोग-चिकित्सा नहीं है। जब सजगता व मानसिक शक्तियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है तो अद्भुत ढंग से चेतना का विकास होता है। ऐसे में कोई खुद भले प्रौढ़ावस्था में योगाभ्यास शुरू करे, पर यदि वह योग के प्रति सजग व सतर्क है तो जरूर चाहेगा कि घर के बच्चे भी योगाभ्यास करें। ताकि उनकी प्रतिभा का बेहतर विकास हो सके। यही योग की सार्थकता भी है। इससे स्वयं में झांकने का अभ्यास भी होता है, जो योग का परम लक्ष्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति के अवतार, योगी श्रीहनुमान

किशोर कुमार //

भक्त बड़ा या भगवान? कुछ ऐसा ही सवाल अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछ लिया था। श्रीकृष्ण ने कहा – “निश्चित रूप से भक्त। आखिर जो भक्तों के हृदय में बसा हो, वह भक्त से बड़ा कैसे हो सकता है?“ वैदिक ग्रंथों में भक्तों की श्रेष्ठता बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। श्रीहनुमान के कृपा-पात्र संत नाभादास ने तो भक्तों की महिमा पर “भक्तमाल” नामक ग्रंथ ही लिख दिया था, जिसे सदियों से गाया जा रहा है। भक्त की महिमा गोस्वामी तुलसीदास भी बतलाते हैं। वे रामचरितमानस में कहते हैं – मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।। यानी, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं। ऐसे भक्ति-शक्ति संपन्न कर्मयोगी श्री हनुमानजी की जयंती पर जरूर मंथन होना चाहिए कि आज कें संदर्भ में उनसे हमें क्या प्रेरणा मिलती है और उन्हें हम आत्मसात करके अपने जीवन को किस तरह धन्य बना सकते हैं।

पर बात शुरू करते हैं दास्य भक्ति के आचार्य, युवा-शक्ति के प्रतीक और निष्काम योगी श्रीहनुमान की अवतरण कथा से। वैसे तो उनके अवतरण को लेकर कई कथाएं हैं। पर एक प्रचलित कथा है कि स्वयं भगवान् शंकर ही अपने इष्टदेव प्रभु श्रीराम की सेवा करने के लिएं रुद्ररूप छोड़कर हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस कथा की पुष्टि करते हुए लिखा है – जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥ जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान। पुरुखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥ यानी सज्जन उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश शंकरजी हनुमान जी के रूप में अवतरित हुए।

ऐसे में श्रीहनुमान का असीमित यौगिक शक्ति-संपन्न होना और श्रेष्ठ भक्त होना लाजिमी ही है। तभी श्रीहनुमान कहते हैं कि मेरा चिंतन राम है, मेरा स्मरण राम है, मेरी दृष्टि राम है, मेरा दृश्य राम है, मेरी साधना राम है और मेरा साध्य राम हैं। उनकी यह बात व्यवहार रूप में परीलक्षित भी होती है। श्रीराम भी अपने भक्त की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए कहते हैं कि मृत्युलोक में किसी पर कोई विपत्ति आती है, तो वह उससे त्राण पाने के लिए मेरी प्रार्थना करता है। पर जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके समाधान के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूँ। इन बातों से साफ है कि बड़े छोटे का भेद निर्थक है। जहां भक्त है, वहां भगवान हैं और जहां भगवान हैं वहां भक्त है। ऋषि-मुनि भी कहते आए हैं कि हनुमानजी को श्रीराम से अलग समझना हमारी भूल होगी। अद्वैतवाद का सिद्धांत भी यही है।

आइए, पहले इस श्रेष्ठ भक्त की लीलाओं के आध्यात्मिक स्वरूप को एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। संकटमोचन हनुमानाष्टक में एक चौपाई है – बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो…. शास्त्रों में इससे संबंधित कथा है कि हनुमान जी अपनी मां अंजना के साथ अहले सुबह नदी के तट पर गए थे। सूर्य अपनी किरणों के जरिए लालिमा बिखेरने लगा तो बाल हनुमान को लगा कि यह पेड़ पर लटका कोई फल है। उनमें अलौकिक शक्तियां तो जन्मजात थी। वे जब उस फल की ओर लपके तो उड़ते चले गए। यह कथा थोड़ी लंबी है। पर इसका अंत इस तरह है कि इंद्रदेव को यह बात नागवार गुजरी। श्रीहनुमान के पिता वायु के समझाने का भी उन पर कोई असर न हुआ और उन्होंने अपने वज्र से बाल हनुमान की ठुड्डी पर वार कर दिया। इससे उनकी ठुड्डी पर स्थाई रूप से निशान पड़ गया था।  

इस कथा को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने के कोशिश करे तो श्रीहनुमान की योग-शक्ति का ही परिचय मिलता है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कथा से यह नहीं समझना चाहिए कि हनुमान जी ने सूर्य का भक्षण किया। उसका निहितार्थ यह नहीं है, बल्कि उन्होंने सूर्य नाड़ी का स्तंभन करके पिंगला को पी लिया। पिंगला प्राणवाहिनी नाड़ी है। पिंगला ही सूरज है। सूरज के भक्षण का मतलब प्राणों का स्तंभन है। सूर्य नाड़ी को स्तंभित करने से जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतना के ये तीनों लोक स्पंदनहीन हो गए थे। हनुमान जी ने चेतना के तीन लोकों को खींच लिया था। उन तीनों में अंधकार होने से अभिप्राय यह है कि उनमें शून्यता आ गई थी। यह घटना संकेत देती है कि पिंगला नाड़ी को भी रोका जा सकता है। रोकने की यह क्रिया प्राणायाम और बंधों से होती है।

श्रीहनुमान की योग-शक्ति की ऐसी-ऐसी कहानियां हैं, जो हमें आश्चर्य में डालती हैं। कई बार काल्पनिक भी लगती है। जैसे, शरीर को सूक्ष्म और विशाल कर लेना, पानी पर चलना, वायु गमन करना आदि। पर शास्त्रों से पता चलता है कि अष्ट सिद्धियों और नव निधियों के स्वामी में असंभव को संभव बनाने की शक्ति होती है। बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिक अध्ययनों से चमत्कार जैसी जान पड़ने वाली अनेक यौगिक क्रियाओं के गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठा है। हमें पता चल चुका है कि मस्तिष्क में अतीन्द्रिय सजगता और संपूर्ण ज्ञान के सुषुप्त केंद्र हैं, जिनका आमतौर से पांच फीसदी अंश का भी इस्तेमाल नहीं हो पाता। इसलिए कि कुंडलिनी शक्तियां सुषुप्तावस्था में होती हैं।

बाल हनुमान की यौगिक शक्तियों से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने बच्चों को सात-आठ साल की अवस्था से ही योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करें तो उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा और वे प्रतिभाशाली बनकर राष्ट्र-निर्माण में अहम् भूमिका निभाएंगे। प्राचीनकाल में बच्चों के उपनयन के पीछे यही भावना थी। उस दौरान गायत्री मंत्र बतलाते थे और प्राणायाम प्रशिक्षण देते थे। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि मानव जाति को अपनी चेतना के विकास के लिए श्रीहनुमान के आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे मन की शक्ति से ही समुद्र लांघ गए थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे – “देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से? श्रीहनुमान के आदर्श युवाओं के लिए अनुकरणीय हैं।“

पर युवाओं का एक बड़ा तबका फेसबुक मेंटल डिसार्डर की चपेट में हैं। फोन, चार्जर और इंटरनेट की चिंता में दुबला हो रहा है। ऐसे में हनुमान जयंती पर कामना यही होनी चाहिए कि पवन पुत्र हनुमान हम सबको सुबुद्धि दें। ताकि हम योग-शक्ति की बदौलत चेतना का विकास करके जीवन को धन्य बना सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्रीराम का गुणगाण करिए!

किशोर कुमार

रामनवमी करीब है, तो बात श्रीराम की ही होगी। पर बात किस श्रीराम की हो?  संत कबीर तो चार प्रकार के राम की बात कह गए – एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा। पहले राम कथा के राम हैं, जिनके बारे में हम सब ज्यादा सुनते-समझते हैं। बचपन से राम-कथा के साथ ही ब़ड़े हुए। पर जो राम जगत से न्यारा है, वह कौन है? क्या है उसका स्वरूप? क्या वह परब्रह्म परमेश्वर है? और यदि है तो एक राजपुत्र इस अवस्था को कैसे प्राप्त हुआ?

महारामायण योगवशिष्ठ इस सावाल का जबाव है। इस पर आगे चर्चा होगी। पर पहले श्रीराम की महिमा वाले कुछ प्रसंगों पर गौर कीजिए। हमारे जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं अवसादग्रस्त कर देती हैं। पर श्रीराम की कथा पर गौर कीजिए। कल राजतिलक होना है और आज वनगमन का फैसला लेना पड़ा। जीवन की इतनी उथल-पुथल भरी घटना के बावजूद श्रीराम स्थितप्रज्ञ बने रहे। वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। वह तो इसी बात से खुश हो गए कि वन में मुनियों से मिलाप होगा। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे। रास्ते कांटों से भरे थे। पैर लहूलुहान हो गए। पर इस बात की परवाह नहीं। चिंता तो यह थी वे कांटे उनके भाइयों को चुभ जाएंगे। इसलिए उनका दिल कह रहा था कि उनके भाई भरत और शत्रुध्न उनसे मिलने जरूर आएंगे। ऐसा सद्विचार किसी महायोगी का ही हो सकता है।

शक्ति संपन्न इस महायोगी का स्वरूप इतना विराट है कि उनका नाम मात्र का स्मरण भी चमत्कार उत्पन्न करता है। इसके अनगिनत उदाहरण मिलते हैं। इस संदर्भ में बाबा मलूकदास और स्वामी सत्यानंदजी महाराज से जुड़े प्रसंगों की चर्चा समीचीन हैं। मलूकदास संत कबीर के समकालीन संत कवि थे। उनके गांव में एक रामनामी साधु आया था। वह ग्रामीणों को राम की महिमा बता रहा था, ‘राम दुनिया के सबसे बड़े दाता है। वे भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।’ साधु की बात मलूकदास के पल्ले नहीं पड़ी। वे तर्क करने लगे – यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूं, काम न करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे?’ अवश्य देंगे, साधु ने विश्वास दिलाया। यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब? तब भी राम भोजन देंगे! साधु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया। मलूकदास चले गए घने जंगल में। पेड़ पर जाकर बैठ गए। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ अनवरत राम नाम जपते रहे।

मलूकदास नाम जप में इतने तल्लीन हुए कि भूख-प्यास भी जाती रही। कई दिनों बाद एक घटना घटी। कुछ लोग आखेट के लिए जंगल गए और उसी पेड़ के नीचे भोजन करने बैठे। पर शेर की गर्जना सुनकर भोजन वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। शेर तो आया नहीं। पर थोड़ी देर बाद डकैत वहीं विश्राम करने पहुंच गए। घने जंगल में भोजन देखकर संशय में पड़ गए कि कोई पकड़ने के लिए जाल तो नहीं बिछा रहा। तभी उनकी नजर पेड़ पर बैठे मलूकदास पर गई। उन्हें लगा कि उस व्यक्ति ने जहर मिलाकर भोजन ऱखा हुआ है ताकि हमारी जान ले सके। आक्रोशित एक डाकू भोजन लिए पेड़ पर चढ़ा और मलूकदास को खाने के लिए मजबूर कर दिया। कहानी लंबी है। पर इस घटना के बाद ही मलूकदास ने काव्य रचना की थी – “अजगर करे न चाकरी, पंछी करै न काम, दासमलूका कह गए, सबके दाता राम।“

स्वामी सत्यानंदजी महाराज आर्यसमाज के शीर्ष के आध्यात्मिक नेताओं एक थे। पर मन श्रीराम में रम गया। सन् 1925 में दयानंद जन्मशताब्दी समारोह के दौरान ही एकांतवास की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज। स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज की गतिविधियों से दूर होकर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए थे। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। गांधी जी की मनोकामना पूरी हुई। पर राम नाम भजना जारी रखा। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।   

दुनिया में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने अपनी शक्तियों को जागृत करके ही महानता प्राप्त की। श्रीराम को तो बड़े होकर अयोध्या का राज सिंहासन संभालना था। पर गुरू महर्षि विश्वामित्र से धनुर्विद्या और शास्त्र विद्या की शिक्षा लेने के बाद तीर्थाटन से लौटे तो वैराग्य उत्पन्न हो गया। यही श्रीराम की योग शिक्षा की पृष्ठभूमि बनी। श्रीमद्भगवतगीता में भगवान ने विषादग्रस्त अर्जुन को योग का उपदेश किया है। इसके उलट योगवशिष्ठ में गुरू वशिष्ठ ने भगवान को विषाद जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर योग की शिक्षा दी। अर्जुन की तरह श्रीराम जिज्ञासा करते गए और गुरू वशिष्ठ उत्तर देते गए। मसलन, श्रीराम ने जिज्ञासा की कि मन का स्वरूप क्या है? महर्षि वशिष्ठ ने विस्तार से इसका उत्तर दिया, जिसका सार है कि महान आत्मा की संकल्प-शक्ति द्वारा रचा हुआ रूप ही मन है। मन का स्वभाव संकल्प है। मन जैसे जगत् की कल्पना करता है, उसके संकल्प द्वारा वैसा ही जगत् निर्मित हो जाता है। उसमें सब कुछ प्राप्त करने की अनंत शक्ति है।

महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नतीजा हुआ कि दशरथ पुत्र राम में छिपे विष्णु प्रकट हो गए। इसके साथ ही उनमें आदर्श, करूणा, दया, त्याग, शौर्य और साहस जैसे गुणों का प्रकटीकरण हुआ। श्रीराम मानव जाति के लिए आदर्श बन गए। वे युगो-युगों से हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। संस्कारों पर धूल पड़े होने के कारण हमें इसका बोध नहीं है। योगमय जीवन अपने भीतर छिपे श्रीराम के महान गुणों के प्रकटीकरण में सहायक होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हे सत्यानंद! आपको शत्-शत् नमन!

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती क्या फिर भौतिक शरीर धारण कर चुके हैं? यानी, उनका पुनर्जन्म हो चुका है? हम कैसे पहचानेंगे उन्हें? इस तरह के न जाने कितने ही सवाल उस महान संत के अनुयायियों के जेहन में अक्सर कौंधते रहते हैं। और ऐसा अकारण ही नहीं है। जन्मशताब्दी वर्ष पर इसी आलोक में प्रस्तुत है यह आलेख।

कोई चौदह साल पहले 5 दिसंबर 2009 को महासमाधि लेने से पहले स्वामी जी स्वयं भक्तों से कहते थे कि रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा में हूं। मिलते ही चला जाऊंगा। फिर भावुक होते आयुयायियों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए मजाक करते और पूछते, मैं नया शरीर धारण करके आऊंगा तो कैसे पहचानोगे? जबाव में कोई कुछ कहता तो कोई कुछ। स्वामी जी सबकी बातें सुनते और मुस्कुराते रहते। पर देखते-देखते महाप्रस्थान का दिन आ ही गया। स्वामी जी ने आसन ग्रहण किया और शिष्यों से कहा, रिटर्न टिकट मिल चुका है, मैं चला….और भौतिक शरीर को त्याग दिया था।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में विज्ञान के आलोक में योग का अलख जगाने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने समाधि न ली होती तो आज से कोई तीन दिन बाद ही शिष्यगण अपने प्रिय गुरू की उपस्थिति में उनकी 100वीं जयंती मनाते। उनका जन्म मौजूदा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में सन् 1923 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस साल यह तिथि 8 दिसंबर को है। यानी महासमाधि दिवस और जयंती के बीच का अंतराल मात्र तीन दिन।

आध्यात्मिक साधना के आलोक में तर्क करने पर मन में सहज सवाल उठेगा कि संन्यासी की अंतिम इच्छा तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना होता है। फिर परमहंस जी महासमाधि के लिए रिटर्न टिकट की प्रतीक्षा क्यों करते रहे? जबाव पहले से मौजूद है। परमहंस जी ने महाप्रयाण से पहले ही कहा था, योग का उत्तम ज्ञान बताना प्रथम उत्तम दान है। इससे अज्ञान मिटता है और क्लेष दूर होते हैं। रोगी को दवा-दारू देना द्वितीय उत्तम दान है और भूखे को भोजन देना तृतीय उत्तम दान है। सभी इस महान कर्तव्य का पालन करें, इसके लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। मेरे हिस्से का काम शेष रह गया है। इसलिए रिटर्न टिकट लेकर जा रहा हूं। आऊंगा जरूर।

किस रूप में आएंगे? परमहंस जी कहते, मेरी इच्छा होगी कि एक ऐसी स्त्री के गर्भ से जन्म लूं, जो तथाकथित छोटी जाति की हो। उस परिवार में जन्म लेकर अपने माता-पिता को उपदेश दूंगा। साथ ही मजदूरों और मेहतरो को भी, जो मेरे आसपास होंगे। ताकि वे भी अच्छे संस्कारों को आत्मसात् कर सकें। यही है बोधिसत्व। बोधिसत्व के रूप में भगवान बुद्ध ने अनेक जन्मों में अवतार लिया, पशु के घर, भिक्षुओं के परिवार में, साहूकारो और राजा के घर। उन्होंने सभी जगह धर्म की शिक्षा दी। साधुओं और महात्माओं का यही आदर्श होना चाहिए। संत नामदेव वंचितों की तरह जीते रहे और अमर हो गए।

परमहंस जी अपने अनुयायियों से कहते, तुमलोग भी चाहते हो कि इस शरीर को छोड़ने के बाद फिर से नया शरीर धारण करूं। पर यह तय है कि तुम्हारा बेटा बनकर पैदा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी होगी। इसलिए कि तुमलोग भौतिक सुख चाहते हो और मैं कहूंगा, नहीं मां, मैं मात्र एक लंगोटी पहनूंगा। मैं गीता-रामायण और श्रीमद्भागवतम् की शिक्षा दूंगा। जीवन जीने की कला सिखाऊंगा और अन्य कौशल भी, जिनकी जीवन में आवश्यकता है। जैसे, मवेशियों की देखभाल कैसे की जाए, खेती कैसे की जाए, गन्ने कैसे उगाए जाएं, बैंक खाते में सावधि जमा कैसे करें। आदि आदि। इसलिए भगवान से कहना कि प्रभु, ऐसा बालक दो जो घर में योग भी लाए और भोग भी। योग का मतलब ऊंचे विचार, ज्ञान का विचार, भगवान का विचार और भोग का मतलब है लड़का-लड़की, धन-दौलत आदि। हर काम देश-काल को ध्यान में रखकर होना चाहिए। इस युग में योग और भोग दोनों जरूरी है।

परमहंस जी के गुरू और बीसवीं सदी के महानतम संत ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जब कहा था, जाओ सत्यानंद, योग का प्रचार करो, तो  स्वामी सत्यानंद सरस्वती बड़ी उलझन में पड़ गए थे। “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास” वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत होने लगी थी। वे तो संन्यास मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते थे। इसलिए योग का न तो प्रशिक्षण लिया था और न ही उसमें कोई रूचि थी। उलझन इसी बात से थी। गुरू तो सिद्ध संत थे। उन्हें अपने शिष्य के मन की उलझन समझते देर न लगी थी। इसलिए पास बुलाया और सिर पर हाथ रखा। शक्तिपात हो गया। फिर एक रूपए आठ आने दिए औऱ फिर दोहराया, जाओ, योग का प्रचार करो। तुम जिस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हो, उसके लिए अभी बीस साल प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक समय का सदुपयोग करो।

परमहंस जी परकाया प्रवेश विद्या में सिद्धहस्त थे। वे अनुयायियों से पूछते थे, यह शरीर किसका है? फिर इसका उत्तर भी देते थे। कहते, यह स्वामी सत्यानंद का शरीर है। मैंने (आत्मा) ने इस शरीर को किराए पर लिया है। अपने आध्यात्मिक तत्व को बांटने के लिए। जब तक हूं, इस शरीर में वास कर रहा हूं। पर मैं इस शरीर को छोड़ भी सकता हूं। तुम मुझे स्वामी सत्यानंद के रूप में जानते हो। किन्तु यथार्थ में मैं स्वामी सत्यानंद नहीं भी हो सकता हूं। बीस वर्षों तक, एक सिद्ध आत्मा ने, जिसका मैंने आह्वान किया था, इस शरीर में निवास किया। जब मैं अठारह वर्षों का था तो एक तांत्रिक योगिनी से मिला था। उन्होंने ही मुझे अन्य चीजों के अलावा आवाह्न विज्ञान की शिक्षा दी थी। यह शिक्षा तांत्रिक पद्धति का एक अंग है। वे जानती थीं कि मुझे आवाह्न विज्ञान की शिक्षा इसलिए जरूरी है, ताकि मैं इस आत्मा का आवाह्न अपने गुरू के आदेश की पूर्ति के लिए कर सकूं।

उस विद्या से मिली अलौकिक शक्ति का ही प्रतिफल है कि कई दशकों से बिहार योग या सत्यानंद योग की खुशबू सुगंधित पुष्प की तरह सर्वत्र फैल रही है। जाहिर है कि परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने गुरू के मिशन को बखूबी पूरा किया। बीस वर्षों के भीतर न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में योग और उसकी वैज्ञानिकता पर उल्लेखनीय कार्य करके अपने द्वारा बिहार के एक छोटे-से शहर मुंगेर में गंगा के तट पर स्थापित बिहार योग विद्यालय को दुनिया के मानचित्र पर ला खड़ा कर दिया। फिर तो दुनिया के अनेक देशों से प्रकाशित होने वाले अखबार “द गार्जियन” को कहना पड़ा कि भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों में बिहार योग विद्यालय का स्थान प्रथम है।

जब संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने का उचित समय आया तो परमहंस जी सन् 1989 में मुंगेर को सदा के लिए छोड़कर दैव कृपा से झारखंड के देवघर जिले के रिखिया गांव में धुनी रमाने पहुंच गए थे। वहां उन्होंने सेवा, प्रेम और दान को अपने आध्यात्मिक जीवन का आधार बनाया था। वे कहते थे कि सेवा आध्यात्मिक जीवन का पहला, प्रेम दूसरा और दान तीसरा पाठ है। इसके बाद ही आत्म-शुद्धि, ध्यान और ईश्वर-साक्षात्कार का नंबर आता है।

दुनिया भर में योग-अध्यात्म को मिल रही गति और भक्तियुग के आने के संकेतों से अनुयायियो को भरोसा होने लगा है कि परमहंस जी का अवतरण हो चुका है। इसलिए कि रिखिया में उन्हें ऐसी ही दुनिया की झलक मिल रही थी। उन्हें ऐसे ही जगत के निर्माण में अपने हिस्से का काम करने के लिए नवजीवन चाहिए था। परमहंस जी किस रूप में आए या आएंगे, थोड़ी देर के लिए इन बातों को छोड़ भी दें, तो यह निर्विवाद है कि उनकी शिक्षाएं मानव जीवन के उत्थान में उत्प्रेरक का काम कर रही है, करती रहेगी। आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक संत को उनकी जन्मशती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आध्यात्मिक चिकित्सा और ध्यान

किशोर कुमार //

रयुहो ओकावा जापानी आध्यात्मिक चिकित्सा विज्ञानी हैं। उनकी कई पुस्तकें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। किसी ने उनसे पूछ लिया कि सीनाइल डिमेंशिया से पीड़ित एक बुजुर्ग की याददाश्त और अन्य महत्वपूर्ण दिमागी काम करने की क्षमता नष्ट होती जा रही है। ऐसे में क्या ध्यान से इस प्रक्रिया को पलटना संभव है? ओकावा का उत्तर था कि सीनाइल डिमेंशिया का मरीज खुद तो ध्यान नहीं कर सकता। पर ध्यान में इतनी शक्ति है कि कोई दूसरा व्यक्ति उस मरीज की तस्वीर मन में बिठाकर विचार लाए कि मरीज ठीक हो रहा है और यह अभ्यास लंबे समय तक जारी रखा जाए तो इसके अद्भुत परिणाम मिलेंगे। फीडबैक यह है कि लोगों को ऐसे ध्यान में भी परिणाम मिलते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती बीसवीं सदी के महान योगी थे। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और रोगी ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

आध्यात्मिक चिकित्सा का आधार ही है मंत्र और ध्यान। यह कोई रहस्य नहीं है, बल्कि सर्वविदित है कि ध्यान में वह शक्ति है कि जीवन में शांति, प्रसन्नता और शक्ति के द्वार खुल सकते हैं। दुनिया भर में हुए प्रयोगों और उन प्रयोगों के आधार पर विकसित प्रणालियों से सिद्ध हो चुका है कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विपरीत नहीं है। इसलिए अब वैज्ञानिक रीति से भी योग की बात होने लगी है।

ओशो कहते थे कि यह जो मनुष्य नाम का रोग है, इस रोग को सोचने, समझने, हल करने के दो उपाय किए गए हैं। एक है औषधि और दूसरा है ध्यान। ये दोनों एक ही रोग की चिकित्सा पद्धतियां हैं। औषधिशास्त्र एक-एक रोग को आणविक मानता रहा है। ध्यान मनुष्य को ‘ऐज ए होल’ बीमार मानता है, एक-एक रोग को नहीं। ध्यान मनुष्य के व्यक्तित्व को बीमार मानता है। धीरे-धीरे औषधिशास्त्र ने भी कहना शुरू किया है कि बीमारी का इलाज मत करो, बीमार का इलाज करो।

यह सर्वविदित है कि ध्यान में वह शक्ति है कि जीवन में शांति, प्रसन्नता और शक्ति के द्वार खुल सकते हैं। दुनिया भर में हुए प्रयोगों और उन प्रयोगों के आधार पर विकसित प्रणालियों से सिद्ध हो चुका है कि विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के विपरीत नहीं है। इसलिए अब वैज्ञानिक रीति से भी योग की बात होने लगी है। दुनिया भर में ध्यान की नित नई विधियां विकसित की जा रही हैं। पर यह भी सत्य है कि ध्यान में सफलता कम ही लोगों को मिल पाती है। वजह? सिद्ध योगी कहते हैं कि हम ककहरा जाने बिना स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए लाइन में लग जाते हैं।

राजयोग के सूत्रधार महर्षि पतंजलि से लेकर योग के अनेक ग्रंथों का मोटे तौर पर सार यही है कि ध्यान जीवन की महानतम कला है। पर यह सीखी नहीं जा सकती। शक्तिपात हो जाए तो बात अलग है। जे कृष्णमूर्ति बीसवीं सदी के महान दार्शनिक थे। मस्तिष्क की प्रकृति, ध्यान, मानवीय सम्बन्ध, समाज में सकारात्मक परिवर्तन आदि विषयों पर उनका मौलिक दर्शन था। वे कहते थे, ध्यान की कोई प्रणाली ध्यान नहीं है। सजगता का अभ्यास किया जा सकता है, जिसे योग की भाषा में प्रत्याहार कहते हैं।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की एक चर्चित पुस्तक है – ध्यान तंत्र के आलोक में। ध्यान के प्रारम्भिक अभ्यासियों के लिए एक स्पष्ट एवं बोधगम्य पुस्तक है। इसका उद्देश्य है अभ्यासी के समक्ष संभावनाओं के द्वारा खोलना, आवश्यक तैयारी की जानकारी देना और साथ-ही ध्यान का अनुभव प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक विधियों से अवगत कराना। प्रत्याहार के आधारभूत अभ्यासों, जैसे, योगनिद्रा अजपाजप, त्राटक, क्रियाओं मंत्र जप, के विभित्र अभ्यासों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए, इस पुस्तक में ध्यान के उच्च अभ्यासियों के लिए आवश्यक बुनियाद भी रखी गई है।

दुनिया भर में मन के प्रबंधन पर जो शोध हुए हैं, उनमें से कई शोधों का बारीक से अध्ययन करने का मौका मिला है। उन सभी शोधों के लिए प्रकारांतर से प्रत्याहार और कुछ मामलों में धारणा की विधियों को ही उपयोग में लाया गया था। यानी चेतना को अंतर्मुखी और एकाग्र बनाने का अभ्यास कराकर आधुनिक चिकित्सकीय विधियों से पता लगाया गया कि मन की प्रतिक्रिया पहले और बाद की कैसी होती है। बीटा और थीटा तरंगों की प्रतिक्रयाएं किस तरह की होती हैं। पर इन योग विधियों को कहा गया मेडिटेशन, ध्यान। ऐसी बातों से ही भ्रम की स्थिति बनती है।

योगनिद्रा, अंतर्मौन, अजपा जप और त्राटक या फिर इनसे ही मिलती-जुलती विधियों पर सैकड़ों अध्ययन किए जा चुके हैं। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर अध्ययनों के नतीजे पहले के अध्ययनों के नतीजों जैसे ही है। इससे मानसिक पीड़ा झेल रहे लोगों को “ध्यान” को लेकर आश्वस्ति मिली है। मुख्य रूप से हार्वर्ड य़ूनिवर्सिटी, द यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स और येल यूनिवर्सिटी में अध्ययन किए गए। देखा गया कि अवसाद के दौरान मन में किस तरह के उपद्रव होते हैं और ध्यान साधना से उन पर काबू पाना क्यों आसान होता है। यह सर्वविदित है कि मानव तंत्रिका तंत्र का मन से सीधा संबंध है। अध्ययन के दौरान देखा गया कि ध्यान के अभ्यासों के दौरान मस्तिष्क के ग्रे पदार्थ की मात्रा में परिवर्तन होता है। इसका सीधा असर मस्तिष्क के “मी सेंटर” पर पड़ता है। उसकी गतिविधि कम हो जाती है, जो अवसाद के कारण बढ़ गई होती है।

निष्कर्ष यह कि मन अशांत है तो ध्यान सधेगा नहीं। जिस उद्देश्य से ध्यान करने की जरूरत महसूस की जा रही है, उसके लिए प्रत्याहार और उसके बाद धारणा की विधियां उपयुक्त हैं। वे ध्यान जैसे हैं और ध्यान के छोटे भाई हैं। बैठकर अंतर्मौन, अजपा जप, त्राटक जैसे सजगता व एकाग्रता के अभ्यास न कर पाने की स्थिति हो और मुद्राओँ में विशेष रूप से शांभवी मुद्रा का अभ्यास भी न सध पा रहा हो तो शवासन में “योगनिद्रा” से भी कमाल के परिणाम मिलेंगे। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

शक्ति की उपासना औऱ निरोगी काया

किशोर कुमार

मौका शारदीय नवरात्रि का है तो बात उसी आलोक में होनी है। इसलिए इस लेख में बात मुख्यत: दुर्गा सप्तशती और मंत्रयोग की करेंगे। साथ ही जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।

हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं। राजा सुरथ की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त भूमंडल के मालिक राजा सुरथ शत्रुओं के साथ संग्राम में परास्त हो गए तो राजमहल छोड़ वन में चले गए थे। वहां उन्होंने मेधा ऋषि का आश्रम देखा जहां हिंसक जीव भी शांति से रह रहे थे। राजा ने मुनि से अपना कष्ट बताया तो मुनि ने उन्हें देवी की शरण में जाने को कहा। वर्षों की मंत्र साधना के बाद जगदंबा राजा पर प्रसन्न हुईं और उन्हें उनका राज्य वापस मिल गया था।  

वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। प्रारंभिक दिनों में आध्यात्मिक साधना के लिए घर से निकल तो गए। पर कहां जाएं और कौन-सी साधना करें, यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया। तभी उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया। इसके साथ ही वे शतचंडी के अनुष्ठान में जुट गए थे। दुर्गा सप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। इस साधना से मिली अनुभूतियों से लाखों लोग लाभान्वित होते रहे। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके।

आध्यात्मिक जगत में माना जाता है कि पूर्व जन्मों के संचित कर्म, नैतिक नीतियों से विचलन, आस्तिकता का अभाव आदि मानव के समक्ष ऐसी-ऐसी समस्याएं खड़ी करते हैं कि उनका समाधान आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं होता। विक्रमादित्य के अग्रज और महान नीतिकार भार्तृहरि ने अपने लोकप्रिय ग्रंथ वैराग्य शतक में साफ-साफ कहा था – भोगे रोग भयं। यानी भोग में रोग का भय है। नैतिक वर्जनाओं की अवलेहना हुई नहीं कि रोग प्रकट हो जाएंगे। पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों को इन बातों पर भरोसा न था। उन्हें बात अटपटी लगती थी कि नैतिक नीतियों से विचलन या आस्तिकता में कभी भला बीमारियों की वजह किस तरह बन सकते हैं। पर चीजें तेजी से बदली और सिद्ध संतों की अनुभूतियों को चिकित्सा विज्ञानी भी प्रकारांतर से स्वीकारने लगे। एरिक फ्रॉम जर्मनी के बड़े मनोवैज्ञानिक थे। उनकी पुस्तक “मैन फॉर हिमसेल्फ” बेहद लोकप्रिय हुई। उसमें उन्होंने स्वीकारा कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों व भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। अब तो इन विषयों पर बड़े-बड़े शोध हुए और निदान के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा।

इस संदर्भ में एक मजेदार प्रसंग है। सुविख्यात आयुर्विज्ञानी और तटशिला के स्नातक रहे महाभिषक आर्य जीवक की चिकित्सा अचूक मानी जाती थी। सम्राट बिंबसार तक उनके बड़े प्रशंसक थे। पर एक बार समस्या खड़ी हो गई। उनके पास एक ऐसा मरीज आया, जिसकी जन्म से एक आंख खुलती नहीं थी। इलाज के सारे उपाय निष्फल हो चुके थे। महाभिषक आर्य जीवक जल्दी ही समझ गए कि भगवत्त कृपा के बिना बात बनने वाली नहीं। वे अपने गुरू महास्थविर रेवत को पूरी बात बताई, जो भगवान तथागत के समर्थ शिष्य थे। गुरू रेवत ने अपनी आंखें बंद की। पर कुछ सेंकेंड बाद ही हंसी छूट गई। दरअसल उन्हें ज्ञात हो गया था कि बीमारी की वजह क्या है। उन्होंने महाभिषक आर्य जीवक से कहा कि उस रोगी की समस्या शारीरिक नहीं, मानसिक है। उसने अपने पूर्व जन्म में नैतिक नीति की अवहेलना की थी। इससे वह मानसिक ग्रंथि का शिकार हो गया। भगवान बुद्ध के पास जाओ। उनकी प्रेम की उष्मा से रोगी को मनोग्रंथि से मुक्ति मिलेगी। ऐसा ही हुआ। इसके बाद इस बात की प्रतिष्ठापना हुई कि नैतिकता की नीति स्वस्थ्य के लिए श्रेष्ठ है। उस पर चलने वाला निरोगी काया का मालिक होगा।

अनादि काल से कहा जाता रहा है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसा हो जाते हैं। बींसवी सदी के महान योगी स्वामी शिवानंद सरस्वती अपने बीमार शिष्यों से कहते थे कि सोचो कि तुम स्वस्थ हो। तुम्हे कोई रोग नहीं है। यह उपचार बेहद कारगर साबित होता था। दरअसल, विश्वास फलदायी साबित होता था। किसी भी साधना में, किसी भी उपचार विधि के मामले में यही बात लागू है। यदि आस्था व विश्वास न होगा तो बात नहीं बनेगी। गुरूजनों का अनुभव है कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है। इसके सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। मंत्रों की वैज्ञानिकता पर हम बात करते रहे हैं। इस लेख में इतना ही। नवरात्रि की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

श्री अरविंद : आध्यात्मिक आंदोलन के ध्वजवाहक

किशोर कुमार

अपना देश आज एक तरफ आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो दूसरी ओर 150वीं जयंती पर आध्यात्मिक नेता, योगी और युगावतार महर्षि अरविंद को भी राष्ट्र याद कर रहा है, उन्हें नमन कर रहा है। स्वाधीनता आंदोलन में श्री अरविंद की भूमिका का उल्लेख इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में है। इस बात को रास बिहार बोस और सुभाष चंद्र बोस के वकतव्यों से समझा जा सकता है। रास बिहारी बोस ने टोक्यो से अपने रेडियो प्रसारण में उन क्रांतिवीरों को नमन किया था, जिनकी प्रेरक पुकार भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी। उन्होंने ऐसे क्रांतिवीरों में श्री अरविंद का नाम प्रमुखता से लिया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी आजादी के इस निडर समर्थक के बड़े प्रशंसक थे।

पर इस लेख में उस महान स्वतंत्र्य वीर के आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा। युवापीढ़ी को जानना चाहिए कि इस महान स्वतंत्र्य वीर का जीवन-दर्शन क्यों बदला और उसकी भारतीय जनमानस की चेतना के विकास में कितनी बड़ी भूमिका रही। पर पहले एक उनसे जुड़ा एक रोचक प्रसंग। श्री अरविंद से किसी ने पूछ लिया कि आप भारत की स्‍वतंत्रता के संघर्ष में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे। फिर अचानक आप पलायनवादी कैसे हो गए कि सब छोड़कर आप पुदुचेरी में आँखें बंद करके बैठ गए? क्‍या आप सोचते है कि करने को कुछ नहीं बचा, या करने योग्‍य कुछ नहीं है? श्री अरविंद ने इसका जबाव कुछ यूं दिया था, “मैं पहले जो कर रहा था वह अपर्याप्त था। अब जो कर रहा हूं वह पर्याप्त है। जब मैं करने में लगा था तब मुझे पता नहीं था कि कर्म तो बहुत ऊपर-ऊपर है। उससे दूसरों को नहीं बदला जा सकता। दूसरों को बदलना हो तो स्वयं के भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है। स्वयं को जाने बिना कोई भी आंदोलन, कोई भी अभियान अधूरा है।“

यह बात थोड़ा ठीक से समझ लेने की है। वरना लगेगा कि श्री अरविंद वाकई पलायन कर गए थे। फिर तो यह समझना भी मुश्किल होगा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरू क्यों कहा था। दरअसल, प्रसिद्ध अलीपुर बम केस श्री अरविंद के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ था। उस केस में उन्हें एक साल के लिए अलीपुर सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया था। तब उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन किया था। उन्हें उसी दौरान भगवद् अनुभूतियां प्राप्त हुई थीं। यही टर्निंग प्वाइंट रहा। आत्म-दर्शन ज्यादा ही स्पष्ट हो गया। उनका जीवन बदल गया। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवन-रक्त है। यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध एवं सशक्त बना रहे तो सब कुछ ठीक है। सामाजिक, राजनीतिक, चाहे जिस किसी तरह की ऐहिक त्रुटियां हो, यदि खून शुद्ध है तो सब सुधर जाएंगे।  

श्री अरविंद ने पुडुचेरी में आश्रम बनाकर अपनी साधना के साथ प्रकारांर से इसी एजेंडे पर काम किया। वे पुडुचेरी गए तो थे अंग्रेजों के उत्पीड़न से बचने के लिए। पर आध्यात्मिक अनुभूतियां ऐसी हुईं कि योग औऱ अध्यात्म के जरिए आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के लिए जुट गए थे। उनका दर्शन योग व आधुनिक विज्ञान का समन्वय हो गया। फलत: मानवता के कल्याण के लक्ष्य पर आधारित समन्वित योग की गंगा-जमुनी बहने लगी। मानवीय चेतना शक्ति के विकास में इसकी गुरूत्तर भूमिका बन गई। वे मस्तिष्क को ‘छठी ज्ञानेन्द्रिय’ मानते थे और कहते थे कि शिक्षा की सार्थकता तभी है जब हम इसका सदुपयोग करना जान लेंगे। इसका परिणाम होगा कि जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों का साहसपूर्वक सामना करने की शक्ति आएगी।

वैदिक युग से कहा जाता रहा है कि मानव जीवन का उद्देश्य सत् चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति है। इन बातों के आलोक में श्री अरविंद की आध्यात्मिक अनुभूतियां इतनी बलवती हुईं कि वे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सत् चित्त एवं आनन्द के महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग एवं ध्यानयोग द्वारा प्राप्त किया सकता है। उन्होंने अपने ग्रंथ “गीता प्रबंध” में इस बात को विस्तार देते हुए लिखा – गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र ग्रंथ नहीं है। यह आध्यात्मिक जीवन का ग्रंथ है। वास्तव में यह ग्रंथ मूलत: योगशास्त्र है। यह जिस योग का उपदेश करता है, उसकी व्यावहारिक पद्धति का व्याख्यान भी इसी में है। इसमें जो तात्विक विचार आए हैं, वे इसके योग की व्यावहारिक व्याख्या करने के लिए ही लिए गए हैं। इसमें ज्ञान और भक्ति के भवन को कर्म की नींब पर खड़ा किया गया है और कर्म को भी जो कर्म की परिसमाप्ति है, उस ज्ञान में ऊपर उठाकर रखा गया है। कर्म का पोषण उस भक्ति द्वारा किया गया है जो कर्म की प्राण है और जहां से कर्म उद्भूत होते हैं।

यह सुखद है कि 150वीं जन्म शताब्दी वर्ष में श्री अरविंद की शिक्षाओं से जन मानस को प्रेरित करने के लिए विभिन्न स्तरों पर अनेक कार्यक्रम चलाए गए। भारत सरकार की पहल पर 12 से 15 अगस्त तक देश भर की 75 जेलों में आध्यात्मिक कार्यक्रम चलाए जा रहे है। ताकि श्री अरबिंद के दर्शन को अपनाकर कैदियों के जीवन में बदलाव लाया जा सके। इसके लिए केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से श्री अरविंद के जुड़ाव को ध्यान में रखते हुए देश भर में 75 जेलों की पहचान की थी। बीते चार दिनों से इन जेलों में कैदियों के बीच श्री अरबिंदो के दर्शन का व्याख्यान के साथ ही उन्हें योग और ध्यान के अभ्यास कराए जा रहे हैं। रामकृष्ण मिशन, पतंजलि, आर्ट ऑफ लिविंग, ईशा फाउंडेशन और सत्संग फाउंडेशन 23 राज्यों में योग, ध्यान और जेल के कैदियों को श्री अरविंद की शिक्षाओं को प्रदान करने में जुटे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही कहा था देश भर की जेलों को महर्षि अरबिंदो के जीवन पर कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए ताकि कैदियों को एक नई यात्रा शुरू करने में सक्षम बनाया जा सके।

हम सब ऐसे देश में जन्में और पले-बढ़े हैं, जहां ज्ञान मानव जाति के आरंभ से ही भरा हुआ रखा है। पर वैदिककाल जैसी ग्रहणशीलता और धारदार मेधा के बावजूद हमारा उच्चकोटि का ज्ञान तामसिक भार से दबा हुआ है। आइए, आज हम सब संकल्प लें कि संसार को आध्यात्मिकता, राष्ट्र को राजनीति चेतना और समाज को समन्वय की संस्कृति का ज्ञान देने वाले श्री अरविंद के जीवन से प्रेरणा लेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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