नववर्ष : नई आशाओं और नए संकल्पों का दिवस

किशोर कुमार      

हम अपनी मान्यताओं के आधार पर किसी भी दिवस को नववर्ष के रूप में मना लें, पर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से खुद में बदलाहट का संकल्प लेकर तदनुरूप दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास नहीं कर पाएं तो समझिए कि यह दिवस व्यर्थ गया। हम इंद्रियों का दास बने रहकर भौतिक सुखों यथा मदिरा-मांस व नाना प्रकार की अपसंस्कृतियों के पीछे ही भागते रह गए तो इस दिवस को वर्ष के बाकी दिवसों से भी बदत्तर समझिए। नववर्ष की सार्थकता तब है, जब हम शराब के साथ नहीं, बल्कि परमात्मा की उपस्थिति महसूस करते हुए जश्न मनाएंगे। सिर्फ वाईफाई से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद से पूछकर जश्न मनाएंगे कि मैं कौन हूं?  मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? तब जीवन रूपांतरित होगा और नववर्ष सार्थक हो जाएगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे महान संत के गुरू और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक  स्वामी शिवनांद सरस्वती नववर्ष पर अपने शिष्यों से कहते थे – नववर्ष में एक नवीन जीवन प्रारम्भ कीजिए। अपने दोषों-दुर्बलताओं पर धैर्यपूर्वक विजय प्राप्त करिए। एक सच्चे साधक और योगी बनने का दृढ संकल्प करिए। नववर्ष आपके सामने एक नवीन पुस्तिका की भाँति होना चाहिए। इस पुस्तिका के एक नूतन पृष्ठ पर प्रेम एवं एकत्व के सन्देश को अंकित कीजिए। इस पृष्ठ पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखिए – केवल प्रेम द्वारा ही घृणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा मानव की सेवा ईश्वर की आराधना है। अपने समक्ष उच्च प्रेम, भ्रातृत्व, करुणा एवं क्षमा के आदर्श को सदैव रखिए। अपने प्रत्येक शब्द एवं कर्म में इन आदर्शों को अभिव्यक्त करिए तथा इस नववर्ष को एक दिव्य नवीन युग के अवतरण का माध्यम बनाइए।

पर ये उपलब्धियां कैसे हासिल होंगी? महान योगियों और महापुरूषों के जीवन का संदेश है कि धैर्य रखिए और सद्गुणों के विकास के लिए इच्छा-शक्ति को प्रबल कीजिए। फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों करने का प्रयास कीजिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि तन जितना घूमता रहे उतना ही स्वस्थ रहता है और मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ रहता है। पर हमारा जीवन प्राय: इसके उलट होता है। ऐसे में सद्गुणों के विकास के लिए एकाग्रता और इच्छा-शक्ति प्रबल करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जब मन एकाग्र नहीं होता है तो हम अधीर बने रहते हैं। यहां तक की प्रभु की कृपा के लिए भी शॉर्टकट खोजते रहते हैं। फिर तो प्रेम, सेवा, करूणा आदि की बातें भी बेमानी हो जाती हैं। नतीजतन, हमारे जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों की प्रबलता बनी रह जाती है।

नए वर्ष में जीवन कहां से शुरू करें कि सद्गुणों का विकास हो सके? स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शिक्षा है कि बात यम-नियम से शुरू हो तो सबसे अच्छा। वरना, प्रारंभ शंखप्रक्षालन से कीजिए।  हठयोग में यह अतिश्रेष्ठ क्रिया है। इसके द्वारा शरीर के भीतर की अशुद्धियाँ, पुराने मल का संचय बहिष्कृत किया जाता है। उसी तरह मन को निर्मल करने हेतु मन का शंखप्रक्षालन आवश्यक है। शारीरिक शंखप्रक्षालन में पहले कष्ट होता है, उन कष्टों से विजय प्राप्त करके ही स्वस्थ, रोगरहित, हल्के शरीर की प्राप्ति होती है। इसी तरह मन में वासनाओं की गन्दगी भरी पड़ी है। कुसंस्कारों, दुर्विचारों एवं वासनाओं का पुंज ही तो है यह मन। यह गन्दगी न्यूनाधिक रूप में सबके भीतर विद्यमान है। आप इसे जान भी कैसे सकेंगे? इस हेतु योगशास्व में एक उत्तम क्रिया है, जिसे अनार्मौन कहा जाता है। शंखप्रक्षालन में नमक और पानी का जो कार्य है, वही कार्य अन्तमौन में मंत्र-जप का है। मंत्र-जप के साथ जीवन की गहराई से विचार उठते हैं। भले-बुरे, जैसे भी हों, अच्छे के लिए होते हैं। इन्हें भीतरी सफाई का लक्षण मानिए। मंत्रों की बड़ी महिमा है। मंत्रों की परिभाषा में कहा गया है कि मंत्र वह शक्ति है, जो मन के उसके बंधनों से स्वतंत्र कर देती है।

इन यौगिक क्रियाओं से इच्छा-शक्ति प्रबल बनाने और आध्यात्मिक उन्नति की जमीन तैयार हो जाती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद ने सन् 1944 में नववर्ष के लिए दिए गए अपने संदेश में कहा था कि उनकी सफलता का रहस्य इच्छा-शक्ति ही थी। वे इसी इच्छा-शक्ति की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि भाग्य वैसा है, जैसा आप इसे बनाते हैं। पर यदि हमारी इच्छा अनुचित है या प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है तो बात कैसे बनेगी। ध्यान रहे कि जीवन में ईश्वर का सच्चा पुत्र बनने की अपेक्षा एक करोड़पति बनने का प्रयास करना वास्तव में बहुत अधिक कठिन है। ईश्वर ने करोड़पति नहीं, बल्कि अपने जैसा बनने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दे रखी है। और जब आप देवत्व पर अधिकार करते हैं तो प्रत्येक वस्तु आपकी हो जाती है।

इसलिए शंखप्रक्षालन और अंतर्मौन से योगमय जीवन की जमीन तैयार हो जाए तो निष्काम कर्मयोग का साधक बनाना जीवन को रूपांतरित करने के लिए श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, योग में स्थित रहकर, सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहते हुए फलों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्म करते रहो। यह मानसिक समता ही योग कहलाता है। योगी कहते हैं कि यह अवस्था ध्यान की अवस्था या उससे भी बढ़कर है। श्रीकृष्ण द्वितीय अध्याय के इस सूत्र की महत्ता बारहवें अध्याय में बतलाते हैं। वे कहते है कि अभ्यास योग से ज्ञान योग उत्तम है। ज्ञान योग से ध्यान योग उत्तम है और ध्यान योग से कर्मफल का त्याग उत्तम है। क्यों? इसलिए कि कर्मफल के त्याग से तत्क्षण शांति उपलब्ध हो जाती है। जीवन रूपातंरित हो जाता है।   

नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए हमें शांति से बैठकर आत-निरीक्षण करने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन को रूपातंरित करने वाले नए संकल्प लेनी चाहिए। हमारे गुरूजी कहते थे कि यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। कुछ नहीं हूं का भाव है अहंकार रहित होने का भाव है, जो निष्काम कर्मयोग से प्राप्त होता है। उसी की बुनियाद पर सुखद, समृद्ध और आनंदमय जीवन का महल खड़ा होता है। नववर्ष की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्रिसमस, धर्मों की सारभूत एकता और स्वामी सत्यानंद

किशोर कुमार //

दुनिया भर में क्रिसमस की धूम है तो दूसरी तरफ धर्मों की सारभूत एकता का संदेश देता झारखंड के देवघर जिला स्थित रिखियापीठ आज आधी रात के बाद ही बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 100वीं जयंती का गवाह बनने जा रहा है। यही वह पीठ है, जहां से इस महान योगी ने कई दशकों तक सेवा, प्रेम और दान की सैद्धांतिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी दी थी। आश्रम परिसर में क्राइस्ट कुटीर की स्थापना करके अपनी अनुभूतियों के आधार पर संदेश दिया था कि धर्मों में सारभूत एकता है। इस बात को वैदिक ग्रंथों के आधार पर सिद्ध भी किया था।  

आज जब क्रिश्चियन ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में डूबे हुए हैं, तो बाबाजी, संत युक्तेश्वर गिरि, परमहंस योगानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक अपनी-अपनी अनुभूतियों के आधार पर धर्मों में सारभूत एकता की जो बात कहते रहे हैं, उसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम …। दुनिया भर के सिद्ध संत इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – …. सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह प्रकारांतर से एक ही है।   

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ” महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।      

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। उन देशों में सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? ईसाई धर्मावलंबियों के बीच भारत के परंपरागत योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई? “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाए। यही समय की मांग है। मेरी क्रिसमस! नमो नारायण।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

कुछ आसान योगाभ्यासों से भी हृदय रहेगा स्वस्थ्य

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद स्वास्थ्य को लेकर लोगों में जागरूकता आई है औऱ सजग लोग योग या व्यायाम जरूर करते हैं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में युवा भी हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि एक साल के भीतर हृदयाघात से होने वाली मौतों में 12.5 फीसदी की वृद्धि हो गई है। आखिर कोविड-19 ने हमारे भीतर ऐसा कौन-सा जख्म दे दिया कि आजीवन लगातार लयबद्ध ढंग से स्पंदित और तरंगित होने वाला हृदय का पहिया बीच में ही रूक जा रहा है। दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी इस नई चुनौती को समझने और उससे मुकाबला करने के उपायों पर अध्ययन कर रहे हैं। साथ ही हिदायत भी दे रहे हैं कि कोरोना के शिकार हुए लोग कठिन योग या व्यायाम न करें। दूसरी तरफ योगाचार्य कह रहे है कि योग की इतनी विधियां हैं कि हर कोई विशेषज्ञों के परामर्श से अपने अनुकूल योग करके आसन्न संकट से मुक्ति पा सकता है।  

योगाचार्यों की बात में दम है। इससे चिकित्सकों के परामर्श की अवहेलना भी नहीं होती। जैसे, सिद्धासन और प्राणायाम की दो विधियां नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम भी हृदयाघात से बचाव में मददगार साबित हो सकती हैं। अब तक हुए विभिन्न शोधों से इस बात पुष्टि होती है। इन योग विधियों की साधना आसान भी है। सिद्धासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम का हृदय से संबंध तो अनेक लोग जानते हैं। पर भ्रामरी प्राणायाम का भी हृदय से सीधा संबंध है, यह बात ज्यादा प्रचारित नहीं है। दरअसल, इस प्राणायाम का सीधा प्रभाव उस अनाहत चक्र से होता है, जिसका संबंध हृदय से भी है। हमारे शरीर में जो मुख्य सात चक्र हैं, उनमें एक प्रमुख चक्र है-अनाहत चक्र। इसे हृदय चक्र भी कहते हैं। अनाहत का मतलब है कि जो आहत न हो और हृदय की तरह आजीवन चलते रहने वाला हो। योगियों का मानना है कि इस युग में मानव चेतना अनाहत से गुजर रही है। पर वह उस तरह क्रियाशील नहीं है, जिस तरह मूलाधार में क्रियाशील है। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि हृदय अनाहत की ध्वनि का केंद्र है। ठीक भौंरे की गुफे की तरह। जब हम भ्रामरी प्राणायाम करते हैं तो भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे अनाहत चक्र सक्रिय होता है। इसी वजह से यह प्राणायाम हृदय रोगियों के लिए विशेष लाभकारी साबित होता है।  

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। बिहार योग विद्यालय से जुड़े आस्ट्रेलिया के योगी और चिकित्सक डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि पुरूषों और महिलाओं की यौन ग्रंथियों में निर्मित होने वाले क्रमश: एण्ड्रोजन और एस्ट्रोजन हॉरमोन का बनना और उसका नियंत्रण पिट्यूटरी ग्रंथी से होता है, जो स्वयं मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस नामक हिस्से के नियंत्रण में रहती है। मस्तिष्क का यह हिस्सा भावनाओं और आवेगों के प्रति अतिसंवेदनशील रहता है। रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है। हम देख रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद महिलाएं भी समान रूप से हृदयाघात की शिकार हो रही हैं। अनाहत चक्र की साधना महिलाओं को विशेष फल देने वाली मानी गई हैं।  

सिद्धासन महिला और पुरूष दोनों ही कर सकते हैं। घेरंड संहिता में इस आसन के बारे में विस्तार से चर्चा है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस संहिता लिखे अपने भाष्य में कहा है कि सिद्धासन करने से मेरुदण्ड की ऊर्जा निम्न चक्रों से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इससे मस्तिष्क उद्दीप्त होता है और संपूर्ण तन्त्रिका-तन्त्र शांत होता है। स्वतः वज्रोली या सहजोली मुद्रा लग जाती है। परिणामस्वरूप यौन ऊर्जा-तरंगें मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक पहुँचने लगती हैं, जिससे प्रजननशील हार्मोन पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। यह आसन मेरुदण्ड के निचले भाग और उदर में रक्त-संचार को नियमित करता है, मेरुदण्ड के कटि-प्रदेश, श्रोणि और आमाशय के अंगों को पोषित करता है और प्रजनन-संस्थान व रक्त-चाप को भी संतुलित करता है। इस वजह से हृदयाघात से विशेष बचाव हो जाता है। पर सायटिका के मरीजों को इसका अभ्यास न करने की सलाह दी जाती है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि इस तरह के कुछ आसान आसन और प्राणायाम हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करते हैं। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया। इसी तरह पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम करने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

हृदयाघात की घटनाओं में वृद्धि की तात्कालिक वजह चाहे जो भी हो, पर यह सर्वामान्य है कि विभिन्न परेशानियों में उलझा हुआ मन और असंयमित जीवन-शैली से ज्यादा नुकसान हो रहा है। कहा भी गया है कि चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। वैदिक ग्रंथों में तो दु:ख और चिंता के दुष्परिणामों को लेकर कितनी ही बातें कही गई हैं। गरूड़ पुराण में चिंता को चिता के समान बतलाया गया है। पर वैदिक ग्रंथों में समस्या का समाधान भी दिया गया है। आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश, हताशा और दु:ख एक ही आधार से उपजे रोग हैं और वैदिककालीन योग ग्रंथों में बतलाए गए उपाय बड़े काम के हैं। इसलिए मौजूदा मर्ज की दवा तभी संभव है जब हम योगाचार्य के रूप में सही चिकित्सक का चुनाव करके उसके बताए नुस्खे पर अमल करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सूर्योपासना कर ली, अब बारी सूर्य नमस्कार की

किशोर कुमार

आस्था का महापर्व छठ संपन्न हो गया। इस पर्व की शुरूआत कहां से हुई, कैसे हुई, इस पर बहुत लिखा-कहा जा चुका है। अब बात होनी चाहिए सूर्योपासना के यौगिक आयाम की, जो जीवन को सुखमय बनाने के लिए अमृत समान है। आप समझ गए होंगे। मैं बात करने जा रहा हूं सूर्य नमस्कार योग की, जिसे सूर्योपासना का ही विकसित रूप माना जाता है। भारतीय वांग्मय से हमें ज्ञात हो चुका है कि वैदिक काल से की जा रही सूर्योपासना ही छठ पूजा औऱ आधुनिक हठयोग की शक्तिशाली योगविधि सूर्य नमस्कार का आधार बनी थी। पर इतना जान भर लेना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस पुरानी योग पद्धति के विज्ञान को समझना भी महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर योगियों ने साबित किया कि सूर्य नमस्कार के अभ्यास से मानव प्रकृति का सौर पक्ष जागृत होता है। इससे चेतना के विकास के लिए जीवनदायिनी ऊर्जा मिल जाती है।

मैंने इस पूरे मामले को समझने के लिए देश-विदेश में सूर्य नमस्कार पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों और बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की दुनिया भर में स्वीकार्य पुस्तक “सूर्य नमस्कार” को आधार बनाया है। पहले जानते हैं कि अपने अध्ययनों के बाद वैज्ञानिक सूर्य नमस्कर योग को लेकर किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। कोरोना महामारी के बाद खासतौर से भारत के युवा हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। कई युवा जान गंवा चुके हैं। अमेरिका के सैन जोश स्टेट यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के वैज्ञानिक भावेश सुंरेंद्र मोदी का शोध भी युवाओं पर ही आधारित है। उन्होंने छह एशियाई युवाओं पर शोध किया। यह जानने के लिए कि सूर्य नमस्कार हृदय रोगियों के लिए कितना कारगर है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से कोर्डियोरेस्पिरेटरी फिटनेस को ठीक रखा जा सकता है।

अपने देश में भी सूर्य नमस्कार को लेकर अध्ययन किए जाते रहते हैं। चेन्नई स्थित सत्यभाषा इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी के एल प्रसन्ना वेंकटेश ने अपने एक सहयोगी के साथ शोध किया तो पाया कि सूर्य नमस्कार अंतःस्रावी तंत्र (इंडोक्राइन सिस्टम) को व्यवस्थित रखता है। वरना, जीवन संकट में पड़ जाता है। यही वजह है कि सूर्य नमस्कार के अभ्यासियों को न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति मिल जाती है। वैसे, टी. कृष्णमाचार्य, स्वामी शिवानंद, स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर आदि नामचीन योगियों ने तो साठ के दशक में ही अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि सूर्य नमस्कार शारीरिक अवयवों में नवजीवन का संचार करता है। साथ ही वर्तमान जीवन पद्धति की मांगों व तनावों के बीच हमें क्रियाशील जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करता है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इस योग के प्रभावों को थोड़ा विस्तार से समझा। वे कहते थे कि सूर्य नमस्कार मुँहासा, फोड़े-फुंसियां, रक्ताल्पता, कम भूख लगना, दुर्बलता, स्थूलता, कम विकास होना, स्फीत शिरा, गठिया, सिरदर्द, दमा तथा फेफड़े की अन्य विकृतियाँ, पाचन संस्थ की व्याधियाँ, अपच, कब्ज, गुर्दे संबंधी व्याधियाँ, यकृत की क्रियाशील में कमी, निम्न रक्तचाप, मिर्गी, मधुमेह, त्वचा की बीमारियाँ (एक्जिा सोरायसिस, सफेद दाग), सामान्य सर्दी-जुकाम का बचाव, अन्तःस्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म तथा रोगनिवृत्ति संबंधी समस्याएं, मानसिक व्यधियां (जैसे, चिंता, अवसाद, विक्षिप्त, मनोविकृति) इत्यादि बीमारियों से निजात दिलाता है।

हम जानते हैं कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में असंतुलन होना योग के दृष्टिकोण से अस्वस्थ होने का मुख्य कारण होता है। कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् या व्यवस्थाप्रिय हो, यदि उसके ऊर्जा संस्थान सामान्य ढंग से क्रियाशील नहीं हैं तो उसे व्याधिग्रस्त होना ही है। सूर्य नमस्कार योग में इतनी शक्ति है कि उससे शारीरिक व मानसिक ऊर्जाओं में पुनर्संतुलन स्थापित हो जाता है। कोरोना महामारी और वायुमंडल में फैले प्रदूषण के कारण फेफड़े की बीमारी आम हो गई है। हर आयु वर्ग के लोग इस बीमारी से दो चार हो रहे हैं। चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि फेफड़ों की रचना खण्डों या उपखण्डों से हुई है। सामान्य श्वसन में शायद ही कोई सभी उपखण्डों का उपयोग करता हो । सामान्यतया फेफड़ों के केवल निम्न भाग ही उपयोग में आते हैं। ऊपरी हिस्से या तो कार्य करना बन्द कर देते हैं या उनमें उपयोग में लाई हुई वायु, कार्बन डाइ-ऑक्साइड तथा विषैली गैस जमा होती रहती हैं। ऐसा विशेषकर शहरवासियों तथा धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों के फेफड़ों में पाया जाता है। ये विषैले पदार्थ फेफड़ों में वर्षों तक पड़े रह जाते हैं, जिससे श्वसन तथा अन्य शारीरिक संस्थानों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

इसी वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाते हुए स्वामी सत्यानंद सरस्वती बतलाते रहे हैं कि श्वसन संस्थान के लिए यह योग कारगर है। दरअसल, सूर्य नमस्कार में प्रत्येक गति के साथ लयबद्ध गहन श्वसन प्रक्रिया स्वतः होती रहती है। इससे फेफड़ों में भरी हुई दूषित वायु पूर्णतः बाहर निकल जाती है और उनमें ताजी, स्वच्छ तथा ऑक्सीजन-युक्त वायु भर जाती है। विशेषकर ऐसा हस्तउत्तानासन की स्थिति में होता हैं, इसमें वक्ष भित्ति फैल जाती है। पादहस्तासन करते समय जब किंचित् बलपूर्वक श्वास छोड़ी जाती है, (ऐसा खुले मुँह से भी किया जा सकता है), तब यह श्वास शुद्धिकरण की शक्तिशाली विधि बन जाती है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने से फेफड़ों की सभी कोशिकाएँ फैलती हैं, उद्दीप्त होती हैं और स्वच्छ हो जाती हैं। रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस कारण शरीर, मस्तिष्क के ऊत्तकों एवं कोशिकाओं की क्षमता तथा ऑक्सीजनीकरण में वृद्धि होती है। सुस्ती से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। श्वसन-व्याधियाँ दूर होती हैं तथा वायु मार्ग का अवांछित श्लेष्मा भी समाप्त होता है। यह अभ्यास क्षय की तरह के ऐसे रोगों से बचाव करता है, जो फेफड़ों के कम उपयोग में लाए गये तथा निश्चल भागों में उत्पन्न होते हैं।

स्पष्ट है कि सूर्य नमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। अच्छी बात यह है कि छात्रों को भी यह खूब भाता है। यह तथ्य भी विज्ञानसम्मत है कि यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो सूर्य मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार करने से उसका असर द्विगुणित हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मन का दीप जले तो बने बात

किशोर कुमार

अयोध्या के भव्य दीपोत्सव पर सबकी नजर है। इस बार राम की पैड़ी पर इक्कीस लाख दीप जलाने का कीर्तिमान जो स्थापित होना है। हम सब जानते हैं कि दीपावाली की शुरूआत कैसे हुई थी और उसी दिन लक्ष्मी पूजन का विधान कैसे चल निकला। कार्तिक अमावस्या को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्जवलित करके खुशी का इजहार किया था। उसके बाद से ही दीपावली मनाई जाने लगी थी। और, इंद्र को धन-संपदा के मद में चूर मानते हुए दुर्वासा ऋषि ने श्रॉप दे दिया था कि लक्ष्मी जी की कृपा खत्म हो जाए तो लक्ष्मी पूजन की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। इसलिए श्रॉप मिलते ही लक्ष्‍मी पाताल लोक चली गईं तो सर्वत्र हाहाकार मच गया था। तब लक्ष्मी जी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया गया। कार्तिक मास की कृष्‍ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्‍या के दिन लक्ष्‍मी बाहर आईं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्‍या पर माता लक्ष्‍मी की पूजा होती है।    

इस पूरे घटनाक्रम को आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि दीपावली का उद्देश्य केवल दीयों और मोमबत्तियों से घर-आंगण को प्रकाशित करना भर नहीं है। यह उत्सव संदेश देता है कि हम सब खुद में व्याप्त अंतः ज्योति के दर्शन करें। यह अंतः ज्योति और कुछ नहीं, उस निराकार प्रभु का प्रकाश-स्वरूप ही है। दीप संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है दीप्यते दीपयति वा स्वं परं चेति। अर्थात् जो खुद प्रकाशित है और दूसरों को भी प्रकाशित करने में सक्षम है। वेद-वेदांग में इसे आत्मा का स्वरूप कहा गया है। श्रीराम भी ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे। इसलिए उनके चरण रज जहां भी पड़े, वहां की धरती धन्य होती गई, लोग धन्य होते गए। यही है सत्वगुण का प्रभाव। पर आम मानव के रूप में हम सब कैसे हैं? श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।।

आखिर श्रीराम को वनवास तो केकैयी के लोभ – मोह की वजह से ही हुआ था। अर्जुन को भी तो विषाद ही हो गया था। देखा न कि श्रीकृष्ण को उन्हें विषादमुक्त करने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। अपने आस-पास भी देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मानव पीड़ित है, अवसादग्रस्त है, तो इसकी वजह स्पष्ट है कि भौतिक प्रगति भी हमारे अशांत मन को सांत्वना प्रदान करने में सक्षम नहीं है। जैसे नमक या चीनी को पानी में मिलाते ही उसका स्वरूप बदल जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रभावों में आते ही सामान्य मानव का गुण-धर्म भी बदलते रहता है। ऐसी प्रक्रियाओं को आधुनिक विज्ञान के आलोक में जर्मनी के महान वैज्ञानिक रुडोल्फ जूलियस इमानुएल क्लॉसियस ने एंट्रॉपी कहा। पर हमारे संत-महात्मा वैदिककाल से गुणों और रसों के आधार पर इस परिवर्तन की विशद व्याख्या करते रहे हैं। सार एक ही कि विश्व में हर चीज़ विकृति की तरफ जाती है। पर संत-महात्मा इस स्थिति से उबरने के उपाय भी बतलाते रहे हैं, जिन्हें योग की भाषा में तरह-तरह से व्याख्या की गई है।

पर पहले एक प्रचलित कथा। यह कथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में कही जाती रही है तो ओशो ने इसे  शेख फरीद के संदर्भ में कहा। कथा चाहे किसी से संबंधित हो, पर इसका भाव आंखें खोलने वाला है। एक संत सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जा रहे थे। तभी उनके एक शिष्य ने सवाल कर दिया – ईश्वर कहां है और कैसा है? संत ने शिष्य से कहा कि नदी साथ चलो, सब कुछ पता चल जाएगा। वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी संत ने मजबूती से शिष्य का गला पकड़ लिया। शिष्य के प्राण अटक गए। थोड़ी देर बाद संत ने उसे मुक्त किया तो उसने राहत की सांस ली। पर बेहद नाराज हुआ। संत ने कहा, नाराजगी बाद में निकाल लेना। पहले यह बताओ को श्वांस अटका था तो मन में क्या ख्याल आ रहा था? शिष्य ने उत्तर दिया,

ख्याल? शिष्य ने कहा,  न कोई ख्याल था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। तब संत ने कहा – जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है। पर हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। इसलिए कि हरदम बहिर्यात्रा चलती रहती है। और बहिर्मन और अंतर्मन में सामंजस्य बैठे बिना मन का दीप कैसे जले? जीवन से अंधेरा  कैसे छंटे? इसलिए हम वृहदारण्यकोनिषद् की प्रार्थना “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय……” तो दोहराते रहते हैं और जीवन का अंधकार छंटने का नाम ही नहीं लेता।

सवाल है कि यह प्रार्थना फलित हो कैसे कि जीवन सुख-समृद्धि से भर जाए? योग में उपाय अनेक बतलाए गए हैं। पर महर्षि पतंजलि के एक सूत्र को भी जीवन में उतार लिया जाए तो बता बन जाए। महर्षि पतंजलि का सूत्र है – विशोका वा ज्योतिष्यती। यानी शोकातीत आलोक की अवस्था मन को नियंत्रित कर सकती है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की हैं – “नाद या भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित कर शांत अंतर्ज्योति की कल्पना करते हुए मन को स्थिर और नियंत्रित किया जा सकता है। अन्तर्ज्योति अत्यन्त शान्त, अविक्षुब्ध, निश्चल और प्रशांत होती है, इसमें तीखा प्रकाश नहीं होता है। गहन ध्यान में इसका अनुभव किया जा सकता है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। उनमें से एक है भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित करना, दूसरी है नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करना।“ तो आईए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे मन का दीप जलाकर खुद को समृद्ध बनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कोरोना महामारी के बाद प्राण चिकित्सा की बढ़ती अनिवार्यता

किशोर कुमार

प्राणायाम आध्यात्मिक जीवन के साथ ही स्वस्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है। शरीर के सारे अंग अपना काम तभी सही तरह से करें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें नियमित रूप से ऑक्सीजन युक्त खून की पूर्ति होती रहे। पर यह काम तभी संभव हो पाता है जब दिल और फेफड़े स्वस्थ्य होते हैं। कोरोनाकाल की घटना याद होगी कि चिकित्सकों की सलाह पर हम सब ब्रेथ होल्डिंग एक्सरसाइज करने लगे थे। कोई तीस सेकेंड तक श्वास रूका रह जाता था तो समझ लेते थे कि फेफड़ा स्वस्थ्य है। पर मौजूदा समय में पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं जिस तेजी बढ़ी हैं, मानव स्वास्थ्य को खतरा भी उतनी ही तेजी से बढा है। यूं तो इस संकट से उबरने के लिए खान-पान और रहन-सहन से लेकर कई स्तरों पर एहतियात बरतने की जरूरत है। पर प्राणायाम की शक्ति ऐसी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।  

विश्व विख्यात वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन के बारे में तो हम जानते ही हैं। मांसपेशियों के दर्द से परेशान थे। इलाज के लिए दुनिया के अनेक भागों में गए। पर राहत न मिली। तभी उन्हें दक्षिण भारतीय योगगुरू बीके सुंदरराज आयंगार के बारे में पता चला। चलने-फिरने से लगभग लाचार होने के बावजूद मेनुहिन सात घंटे की यात्रा तय करके आयंगार की शरण में पहुंच गए थे। अपनी व्यथा बताई। आयंगार ने योगोपचार शुरू किया तो कम समय में ही बड़ी राहत मिल गई थी।

मेनुहिन योग और आयंगार के दीवाने हो गए। योग के प्रति लगाव ऐसा हुआ कि शीर्षासन तक करने लगे। बात जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची तो उन्होंने मेनुहिन को अपने सामने शीर्षासन करने की चुनौती दी। इसलिए कि उन्हें शायद खबरों पर यकीन नहीं था। मेनुहिन ने चुटकी बजाते शीर्षासन कर दिखाया। इससे नेहरू जी इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने भी शीर्षासन करके दिखा दिया। यह घटना भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनी थी। इसके साथ ही बीकेएस आयंगार की कीर्ति दुनिया भर में फैल गई थी। वे मेनुहिन के आग्रह पर इंग्लैंड गए और जल्दी ही यूरोपीय देशों में छा गए थे।

यह प्रसंग जानने के बाद किसी को भी सहज उत्सुकता होगी कि आखिर हठयोगी आयंगार ने ऐसा कौन-सा जादू किया होगा। अब तक उनकी जितनी भी पुस्तकें पढ़ी है, किसी में इस बात का खुलासा नहीं है। आयंगार की चर्चित पुस्तक “लाइट ऑन प्राणायाम” में येहुदी मेनुहिन द्वारा लिखी गई प्रस्तावना पढ़ी तो लगा कि आसनों के साथ ही प्राणायाम का जादू था कि वे इतनी जल्दी रोग मुक्त हो गए थे। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है – “प्राणायाम वायु-संचालन की एक क्रिया है, जो पृथ्वी पर जीवन का निर्धारण करती है। यह वस्तुत: आइंस्टाइन के पदार्थ और ऊर्जा के सिद्धांत को संपूर्णता प्रदान करता है। साथ ही उसे मानव के लिए व्यवहारिक बनाता है।“ कई महीनों की खोज के बाद आखिर एक तस्वीर भी हाथ लगी, जिसमें आयंगार के सामने मेनुहिन नाड़ी शोधन प्राणायाम करता दिख रहा है।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती प्राणायाम के संदर्भ में कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो योगी कुंभक के साथ अपने हाथों से उसकी टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने से योगी के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं। वैदिक सिद्धांतों के मुताबिक भी गायत्री मंत्र का जप करते हुए पूरक, रेचक और कुंभक बेहद ताकतवर होता है।

हठयोग के प्रख्यात गुरू बीकेएस आयंगार ने भी कहा है – “प्राणायाम मनुष्य के शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है। साथ ही योग के चक्र की धुरी है। तभी इसे महातपस या ब्रह्मविद्या कहा जाता है।“ आमतौर पर प्राणायाम की तीन-चार विधियां ही प्रचलित हैं। पर इसकी और भी विधियां हैं। उज्जायी, अनुलोम, विलोम, प्रतिलोम, सूर्यभेदन, शीतकारी, शीतली, भस्त्रिका, कपालभाति, भस्त्रिका, भ्रामरी, नाड़ी शोधन आदि। इन विधियों की भी कई उप विधियां या अवस्थाएं हैं। नाड़ी शोधन और कपालभाति पर कई अनुसंधान हो चुके हैं। प्राणायाम के रहस्यों पर से जैसे-जैसे पर्दा उठ रहा है, उसको देखते हुए आने वाले समय में यह हठयोग से इत्तर एक स्वतंत्र विषय बन जाए तो हैरानी न होगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। प्राणायाम से नाड़ी मंडल में संतुलन बना और मस्तिष्क केंद्रों की खतरनाक क्षतिकारक प्रतिक्रिया नियंत्रित हो गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ बिहेवियरल हेल्थ एंड एलाइड साइंसेज, भोपाल और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने किशोरवय के छात्रों की आक्रमकता पर कपालभाति के प्रभाव का अध्ययन किया है। इसका नतीजा है कि योग की यह क्रिया आक्रमकता पर काबू पाने में बेहद प्रभावी है। पतंजलि योग अनुसंधान संस्थान ने भी कपालभाति में काफी काम किया है। हालांकि कलापभाति को लेकर विवाद भी पुराना है कि यह प्राणायाम है या शोधन-क्रिया। पर इसे व्यापक रूप से प्राणायाम का हिस्सा माना जा चुका है।

प्राणायाम के महत्व का अंदाज इस बात से भी लगा सकते हैं कि ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। वे केवल और केवल प्राणायाम करते हैं। समय की मांग है कि प्राणायाम साधना को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

विजयादशमी का यौगिक संदेश – नियति को बदला जा सकता है

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती

आज विजयदशमी का दिन है और यह दो सम्प्रदायों का पवित्र उत्सव है। एक वैष्णव सम्प्रदाय का और दूसरा शाक्त सम्प्रदाय का। नौ दिन तक वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय वाले इस पर्व को मनाते हैं। वैष्णव सम्प्रदाय वाले राम और रावण को सामने रखकर इस पर्व को मनाते हैं और शाक्त सम्प्रदाय वाले देवी जी और महिषासुर को सामने रख कर। राम और रावण एक इतिहास है, जो बीत चुका है। परन्तु इतिहास सदा इतिहास नहीं रहता, वह एक अन्दर पौराणिक दन्तकथा बनता है, और वही पुराण मनुष्य के वर्तमान में एक सत्य बनता है, एक यथार्थ बनता है। दन्तकथाओं ने राम और रावण को सत्य और असत्य का, देवी और आसुरी शक्ति का प्रतीक माना है। अपने अंदर जो अज्ञान है, अपने चारों तरफ जो अविद्या फैली है, अपने समाज में जो भ्रष्टाचार फैला है, सारी दुनिया में जो आंतंक फैला है, वह आज का असुर है, रावण है। आज रावण का वध प्रतीक के रूप में नहीं, पौराणिक कथा के असुर एक पात्र के रूप में नहीं, इतिहास की एक हस्ती के रूप में नहीं, बल्कि यथार्थ रूप में करना है, यही इस पर्व का मतलब होता है। अर्थात् मैं अपने मन से अविद्या और अज्ञान निकालूँगा, तब मैं कह सकूँगा कि रावण म महिषासुर मर गया।

ईश्वर को हम राम रूप में भी देखते हैं और देवीजी के रूप में भी। देवीजी का रूप अत्यन्त प्राचीन है। मनुष्य ने आज से लाखों साल पहले, अपने जीवन के आदिकाल में, जब उसने देखना-सोचना शुरू ही किया था, सबसे पहले ईश्वर को माँ के रूप में देखा। उसे स्त्री रूप में देखा, पुरुष रूप में नहीं। संसार को बनाने वाला जो भी हो, उसकी सबसे पहले जो पूजा चली, वह स्त्री के रूप में चली। नारी पूजा, स्त्री पूजा और देवी पूजा, यहीं से पूजा की शुरुआत होती है, क्योंकि आदिकाल में हमारा समाज मातृ-प्रधान समाज था। आज हमारा समाज मातृ-प्रधान नहीं, पितृ-प्रधान है। इसलिए हमने ईश्वर को भी पुरुष के रूप में कल्पित किया है, श्रीराम, शिवजी या गणेशजी के रूप में। अब भगवान चाहे स्त्री हो या पुरुष, उससे अपने को अभी कोई मतलब नहीं है। मतलब केवल इतना है कि वह परमात्मा की शक्ति आज के दिन हम लोगों के अन्दर ज्ञान, प्रकाश, विद्या, शक्ति, सम्पत्ति और मंगल के रूप में जागृत होती है।

रावण के दस सिर थे, इसीलिए हम इस पर्व को दशहरा भी बोलते हैं। हमारे भी दस सिर हैं, पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा हम संसार के सब भोगों को ग्रहण करते हैं। ये दस इन्द्रियाँ रावण का स्वरूप हैं, प्रतीक हैं और इस रावण के सिर काटते-काटते रामजी हार गए। विभीषण की तरफ देखने लगे कि यह सब क्या हो रहा है। बार-बार उसके सिर काटते थे, बार-बार वे वापस आ जाते थे। तब विभीषण ने कहा, ‘महाराज, जब तक अमृत का पिण्ड सूखेगा नहीं, तब तक रावण मरने वाला नहीं है। रावण के दस सिरों की तरह ये जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, इनको जीतना होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम अपनी नाक काट दो या कान काट दो या गाँधारी की तरह आँखों पर पट्टी बाँध लो। इन्द्रियों को रोकने से कुछ नहीं हो सकता, जब तक कि तुम अपने मन से तृष्णा को नहीं निकालते ।

तृष्णा एक प्यास है। और यह तृष्णा उम्र के साथ घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है। लोगों के बाल जितने सफेद होते जाते हैं, उनकी तृष्णा उतनी काली होती जाती है। तृष्णा कभी बुढ़िया नहीं होती, वह हमेशा जवान रहती है।

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितेनांकितं शिरः।

गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥

तुम्हारे अन्दर में वह तृष्णा नाभि में है, जिसको कहते हैं मणिपुर। तृष्णा मनुष्य के अन्दर छुपी है और जब तक वह तुम्हारे अन्दर है, तुम रावण को मार नहीं सकते, इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। वह तृष्णा चाहे भोग की हो, चाहे योग की, आखिर हथकड़ी तो हथकड़ी है, चाहे सोने की पहनो या लोहे की। अब इस तृष्णा का क्या करना है। रामचन्द्रजी ने विभीषण से पूछा कि इस अमृत रूपी तृष्णा को सुखाने का क्या तरीका है। तब उन्होंने वायवास्त्र, पर्जन्यास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र या ब्रह्मास्त्र, इनमें से किसी अस्त्र का इस्तेमाल नहीं किया, केवल आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल किया। अग्नि का स्वरूप है जलाना और तृष्णा है पानी । पानी को उबालते जाओ, उबालते जाओ, उसकी भाप निकलती है और थोड़ी देर में टोपिया एकदम खाली हो जाता है। यह जो आग्नेयास्त्र है, इसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ 6.35 ॥

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हे अर्जुन! अभ्यास और वैराग्य, ये दो तरीके हैं, जिनके द्वारा तुम इस रावण को मार सकते हो, इस अमृत-कुण्ड को सुखा सकते हो।’ यह तृष्णा जो तुम्हारे अन्दर है, पता नहीं कब से हैं। ‘जनम-जनम की तृष्णा’ कबीरदास कहते हैं। पता नहीं पूर्व जन्म में तुमने क्या सोचा था और वह पूरा नहीं हुआ। अब भारत में जितने गरीब लोग हैं, सब मोटर गाड़ी और डिश टी.वी. का सपना देख रहे हैं। अगर सपना पूरा नहीं होगा, तो अगले जनम में तृष्णा तो रहेगी ही। तृष्णा पैदा होती है अधूरी इच्छा से। और यह तृष्णा रावण की नाभि का अमृत घट है। यह सबके अन्दर है। इसलिए हम लोग राम नहीं, रावण हैं। इस तृष्णा को दूर करने के लिए कृष्ण भगवान ने दो उपाय बतलाए, अभ्यास और वैराग्य। योग सूत्रों में भी कहा गया है-

अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः ॥

वैराग्य आग्नेयास्त्र है। अब वैराग्य किसको कहते हैं? इसका बिल्कुल सरल उदाहरण है, जिन विषयों को तुमने देखा या सुना, वे बार-बार तुम्हारे मन में चक्कर लगाते हैं। दादाजी को मरे पाँच साल हो गए, लेकिन अभी भी उनकी याद आती है। बीती हुई घटनाएँ मनुष्य के वर्तमान जीवन को उद्विग्न करती हैं। वर्तमान का भूतकाल से कितना सम्बन्ध हो सकता है, यह हर एक आदमी को अपने लिए निर्धारित करना पड़ेगा। हम लोग यह निर्धारित नहीं कर पाते हैं, इसीलिए हमारा मन अशान्त रहता है

आज के युग में राम और रावण का तथा देवीजी और महिषासुर का हमारे आज के जीवन से, हमारे आज के जीवन से, हमारे चारों तरफ के समाज से और विश्व की जितनी परिस्थितियाँ हैं, उनसे सम्बन्ध होना चाहिए। इसी रूप में हमको विजयदशमी के इस पर्व को देखना है। और एक बात हमेशा याद रखनी है कि अपने घर में तुम लोगों को पूजा-पाठ निरंतर करना चाहिए। इससे तुम अपने जीवन की नियति को भी बदल सकते हो। तुम नियति के गुलाम नहीं हो, उसमें परिवर्तन किया जा सकता है।

(बीसवीं सदी के महान संत औऱ विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक)

मन का मैल मिटे तो बने बात

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया – स्वामी जी, एक नई सभ्यता का निर्माण कैसे किया जाए, जो मानव जाति की शांति, समाज की खुशहाली और व्यक्ति की मुक्ति सुनिश्चित कर सकेगी? स्वामी जी ने जो उत्तर दिया था, वह वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य को लेकर उत्पन्न परिस्थितियों के आलोक में भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था – विचार मनुष्य को बनाता है और मनुष्य सभ्यता को। इतिहास की प्रत्येक महान घटना के पीछे एक शक्तिशाली विचार-शक्ति रही है। सभी खोजों और आविष्कारों के पीछे, सभी धर्मों और दर्शन-शास्त्रों के पीछे, सभी प्राण-रक्षक अथवा प्राण-विनाशक उपकरणों के पीछे विचार ही रहे हैं। जो धन और समय व्यर्थ के मंसूबों और विनाशकारी गतिविधियों में बर्वाद किया जाता है, उसका अंशमात्र भी यदि एक अच्छे विचार के सृजन में दिया जाए तो अभी और इसी वक्त एक नई सभ्यता का शुभागमन हो जाएगा।

पर विचार-शक्ति शक्तिशाली कैसे बने? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सभी धर्म-शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। वेद से लेकर बाइबिल और कुरान तक में अस्तित्व की रक्षा के लिए शक्तिशाली विचार-शक्ति के सूत्र मिलते हैं। इस बात को कुछ वैदिक प्रसंगों के जरिए समझा जा सकता है। पर पहले विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस की प्रासंगिकता की चर्चा। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से हम सब वाकिफ हैं। देश-दुनिया में इसकी गंभीरता पर चर्चा होती रहती है। बीते एक दशक से हर साल सितंबर महीने में अलग-अलग थीमों पर विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। लिहाजा इस साल भी यह दिवस मनाया गया। इस साल का थीम “वैश्विक पर्यावरणीय सार्वजनिक स्वास्थ्य : हर दिन हर किसी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए खड़े होना” था। इस मौके पर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों के आधार पर बतलाया गया कि वाय़ु प्रदूषण से दिल की बीमारियां, स्ट्रोक, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और तीव्र श्वसन संक्रमण आदि हो रही हैं। इसका संदेश यह कि अकेले वायु प्रदूषण ही इतना खतरनाक है तो सभी तरह के प्रदूषण से मानव जाति की क्या हालत बन रही होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।

यह दु:खद है कि जिस वैदिक ज्ञान की बदौलत हम विश्वगुरू रहे हैं, आधुनिक युग में उसी ज्ञान की अवहेलना हम ही कर रहे हैं। ईशावास्‍योपनिषद् में कहा गया है – ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। यानी जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे। पर हकीकत में हम करते क्या हैं? ठीक इसके विपरीत। यह एक प्रकार का मानसिक प्रदूषण ही है, जिसके लिए भारतीय वैदिक जीवन-दर्शन में कोई स्थान नहीं है।

हमें तो वैदिक काल से शिक्षा दी जाती रही है कि प्रकृति का मात्र दोहन नहीं, बल्कि इसका पोषण भी करना है। प्रकृति वेदों के हर पहलू का एक अपरिहार्य हिस्सा है। वैदिक संस्कृति की सबसे बुनियादी अवधारणाओं में से एक की अवधारणा है पंचभूत – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। इसी पंच तत्वों से पूरी सृष्टि की रचना हुई और वैदिक मान्यताओं के मुताबिक, इन तत्वों का पूजन होना चाहिए। संतों का मान्यता रही है कि इस पूजन के पीछे का विचार पूरी तरह से पर्यावरणीय है। भारत वर्ष में अनेक धर्मों और संप्रदायों में प्रकृति के पूजन के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान का विधान है। वैदिक काल के बाद भारत में आए बौद्ध धर्म ने सत्य, अहिंसा और पेड़-पौधों और वनस्पतियों सहित सभी जीवित प्राणियों के प्रति प्रेम पर बहुत जोर दिया। बौद्ध धर्म के प्रत्येक अनुयायी को हर साल एक पेड़ लगाना था और उसे तब तक पोषित करना था जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित पेड़ न बन जाए। महान राजा अशोक को जीवित प्राणियों के प्रति दया के कारण सिंहासन त्यागने और अहिंसा का उपदेश देने के लिए जाना जाता है।

पर हमारी सोच कैसे बदल गई? जिन प्राकृतिक संसाधनों का हमें रक्षक बनना था, उसका भक्षक मात्र बनकर क्यों रह गए? संत-महात्मा कहते हैं कि मन पर तमोगुण हावी है। इसलिए, संसार से जुड़ी हमारी भावनाएं घृणा, द्वेष, हिंसा आदि रूपों में परिवर्तित होती रहती है। इससे कूड़ा-कर्कट अंदर भरता है और मन दूषित होता है। वरना, आदियोगी शिव की जटाओं से निकली पवन पावनी गंगा और यमुना जैसी नदियां कदापि प्रदूषित नहीं रहतीं। मन में मैल है इसलिए करोड़ो खर्च करके भी गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना साकार नहीं हो पा रहा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। हम सब नंगी आंखों से नदियों की दुर्दशा देख रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण हो या सांस्कृतिक प्रदूषण हर मामले में यही सिद्धांत लागू है।

अब सवाल है कि मन का मैल कैसे मिटे? योग में इसके लिए कई उपाय बतलाए गए हैं। पर यम-नियम ठोस समाधान है। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का पहला चरण ही है यम और नियम। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्च और अपरिग्रह ये पांच यम हुए और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं। इन्हें ही संपूर्ण योग का आधार माना गया है। प्रश्नोपनिषद् में कथा है कि छह ब्रह्म जिज्ञासु सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी महर्षि पिप्पलाद के पास गए तो महर्षि ने उनसे वर्षों ब्रह्मचर्यपूर्वक तप करवाया था। वह कुछ और नहीं, बल्कि यम-नियम का उच्चाभ्यास ही था। यानी यम-नियम साधना बाद ही वे आध्यात्मिक ज्ञान के हकदार हो पाए थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अपने भाष्य में कहा है कि योग का समस्त क्षेत्र अंतरंग और बहिरंग में विभक्त है। धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग योग है। महान संस्कारों के साथ जन्में कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को ध्यान तभी सध पाता है, जब प्रारंभ यम-नियम से हुआ होता है। यम-नियम के अभ्यास के बिना बहिरंग योग का तात्कालिक लाभ भले मिल जाए। पर मन का मैल तो बना ही रह जाता है। चूंकि समाज मानव मन की अभिव्यक्ति है, इसलिए भौतिक जगत की समस्याएं विकराल होती जाती हैं, जिसका हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। इसलिए स्वस्थ्य जीवन की आकांक्षा है तो सबसे पहले अष्टांग योग के प्रथम पायदान पर चढ़ना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सनातन धर्म से निकला यौगिक अमृत है सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार //

आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार एक बार फिर चर्चा में है। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की जा रही है। इसलिए इस बार के कॉलम का विषय सूर्यनमस्कार ही चुना। पर जब लिखने बैठा तो जी20 शिखर सम्मेलन के 55 पृष्ठों वाले दस्तावेज पर नजर गई, जिसे किसी मित्र ने भेजा था। भारत के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चिंतन को दर्शाने वाले इस दस्तावेज ने बेहद प्रभावित किया। इसलिए उस दस्तावेज के सार-तत्व के आलोक में दो शब्द।   

जी20 शिखर सम्मेलन से हमने क्या खोया, क्या पाया, इसका राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण होता रहेगा। पर यह अच्छा हुआ कि इस शिखर सम्मेलन के बहाने हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

आज सनातन धर्म को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है और पक्ष व विपक्ष में बहुत-सी बातें कही जा चुकी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर वैदिककालीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के संत तक धर्म को परिभाषित करके मानते रहे हैं कि जीवन में धर्म की बड़ी अहमियत है। जैसे योग को जीने की कला माना जाता है, वैसे ही धर्म को भी जीने की कला और विज्ञान माना गया। संत जब धर्म की बात कहते हैं तो प्रकारांतर से अध्यात्म की भी बात कर रहे होते हैं। इसलिए कि कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई है।

ओशो की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है – मेरा स्वर्णिम भारत। इसकी बहुत-सी बातों से मत-मतांतर हो सकता है। पर नईपीढ़ी को प्रेरित करने वाली अनेक बाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को,अपनी हिमाच्छादित ऊँचाईयों को पुनः पा लेगा, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। अब देखिए न। भारत जी20 शिखर सम्मेलन का अगुआ बना तो उसने फिर से “वसुधैव कुटुंबम्” के रूप में सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचारधारा को मजबूती से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। कमाल यह कि इस पर पूरी दुनिया ने तालियां बजाईं।

भारत ने कोई नौ साल पहले जब योग को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया तो उसका मकसद केवल अपना कल्याण नहीं था। मंशा तो यही थी कि पूरे विश्व का कल्याण हो। सभी खुशहाल रहें। इसलिए कि स्वस्थ तन-मन ही खुशहाली की कुंजी है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि सुखी, समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन की चाहत है तो योगविद्या को जीवन का हिस्सा बनाना ही होगा। यह आजमाया हुआ है। प्राचीनकाल में भारत के लोग इसी विद्या के बल पर सुखी जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सदैव समग्र योग पर बल दिया। पर भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को ज्यादा ही अहमियत देती रही है तो इसकी खास वजह है।

दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। अब यह बात कोई सैद्धांतिक नहीं रह गई है, बल्कि लाखों लोगों का अनुभव है। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है।

एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है। बीते सप्ताह देहरादून में प्रयाग आरोग्य केंद्र के सहयोग से योगा स्पोर्ट्स फेडरेशन ने दो दिवसीय सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसे आशातीत सफलता मिली। इस मेगा इवेंंट में सात देशों और अठारह राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल योग को खेल बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। पर खेल-खेल में योग के हिमायती रहे हैं। इसलिए मेगा इवेंट होने के बावजूद सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं रह गया था, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहा। जाहिर है कि ऐसे अभ्यास के बड़े लाभ होते हैं। इस आयोजन की एक और विशिष्टता थी। इसमें भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए “मिस योग इंडिया” प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी, जो योग की गौरवशाली संस्कृति की झांकी थी।

खैर, सूर्यनमस्कार के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों मे स्पष्टता रहे, इसके लिए पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ठीक ही रहता है। बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

योग-शास्त्रों में सूर्योपासना के प्रसंग तो जगह-जगह है। पर सूर्य नमस्कार किसके दिमाग की उपज है, यह पहेली है। आम धारणा रही है कि आधुनिक युग में सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक  “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।   

उद्गम का स्रोत चाहे जो भी हो, पर सूर्य नमस्कार यौगिक अमृत है। तभी इसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं। सनातन धर्म की खासियत है कि वह बिना किसी भेदभाव के मानव जाति को ऐसी जीवनोपयोगी विधियां उपलब्ध कराता है कि उस पर अमल किया जाए तो जीवन खुशहाल हो जाएगा। सूर्य नमस्कार इसका बेहतरीन उदाहरण है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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