वैक्सीन, हृदय रोग और योग

किशोर कुमार//

योग में उपचार के तीन पक्ष माने गए हैं – चिकित्सात्मक, रक्षात्मक और संवर्द्धक। मनुष्य रोगी है तो उसकी चिकित्सा होती है और वह स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। यदि इस बात का अहसास है कि भविष्य में शारीरिक या मानसिक पीड़ाएं हो सकती हैं और उस स्थिति से बचने के लिए कोई उपाय कर लिया जाए तो यह हुआ रक्षात्मक। संवर्द्धनात्मक उपाय वह है कि हमें कोई समस्या तो नहीं होती। पर हम स्वस्थ्य हैं और स्वस्थ्य बने रहें, इसके लिए उपाय करते रहते हैं। यानी संतुलित आहार और नियमित योगाभ्यास। पर कैवल्यधाम के सीईओ डॉ सुबोध तिवारी कहते हैं – “आदमी योगशालाओं में हमेशा चिकित्सा के लिए ही आता है, रक्षा के लिए नहीं। इसलिए कि वह सोचता है कि मैं स्वस्थ्य हूं, मुझे क्या होना है। नतीजा होता है कि शरीर की ऊर्जा और सामर्थ्य का दुरूपयोग होने से तन-मन बीमार हो जाता है।“ 

आधुनिक युग में अर्थ की प्रधानता सर्वत्र दिखती है। फिर भी दिल का मामला अपनी जगह है। इंग्लैंड में बड़े समाचार पत्र समूह के मालिक रहे लॉर्ड बीवरब्रुक से किसी ने पूछ लिया कि फलां कर्मचारी को समान काम के लिए ज्यादा वेतन क्यों दिया जाता है? लॉर्ड बीवरब्रुक ने तपाक से उत्तर दिया – “क्योंकि वह किसी से भी दिल से मिलता है।” लॉर्ड बीवरब्रुक ने 85 वसंत देखे थे और छोटी-मोटी व्याधियों को छोड़ दें तो ताउम्र स्वस्थ रहे। उनका दिल आजीवन लगातार लयबद्ध ढंग से स्पंदित और तरंगित होता रहा। क्यों? क्योंकि उनका मन भी प्रेम से भरा था। पर आज दुनिया भर में स्थिति क्या है? दिल से मिलाने की बात तो छोड़िए, हाथ मिलाना भी रस्स अदायगी भर रह गया है। जैसे-जैसे आत्म-केंद्रित लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे दिल का मामला भी गंभीर होता जा रहा है। अपवाद न युवा हैं और न ही बुजुर्ग।

कहा जा रहा है कि कोविड-19 और उससे बचाव के लिए बने वैक्सीन ने आग में घी का काम किया है। पर कोविड-19 से ठीक पहले की तस्वीर भी आज से बेहतर न थी। 2 मार्च 2019 की बात है। एम गोपी राजू नामक एक 19 वर्षीय छात्र सिकंदराबाद स्थित श्री चैतन्य कॉलेज में बोर्ड की परीक्षा में बैठा था। तभी हृदयाघात हुआ और उसकी मौत हो गई थी। किशोरावस्था में हृदयाघात की इस घटना से बहस छिड़ गई थी। तब चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए थे। बंगलुरू स्थित श्री जयदेव इंस्टीच्यूट ऑफ कार्डियोवास्कुलर साइंसेज एंड रिसर्च के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ राहुल पाटिल ने यह कहकर चौंका दिया था कि उन्होंने दो वर्षों के दौरान औसतन 15 वर्ष के 25 किशोरों को हृदयरोग से पीड़ित पाया। इसके पूर्व सन् 2013 में ट्रिनिटी अस्पताल अधिकतम तीस साल तक की उम्र वाले युवाओं का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत में प्रतिवर्ष 900 युवा हृदयाघात के कारण काल के गाल में समां जाते हैं।

कोविड-19 और उससे बचाव के लिए बने वैक्सीन को लेकर चल रहे आरोप-प्रत्यारोप और राजनीति से अपना कोई वास्ता नहीं। पर चिकित्सा विज्ञानी भी दावे के साथ नहीं कह सकते कि दिल के दौरे की फलां वजह ही है। वरना टायफायड, यक्ष्मा और टेटनस की तरह अब तक हमें दिल के दौरे के उत्पादक जीवाणु का पता चल गया होता और इस रोग के लिए कोई निरोधक टीका उपलब्ध हो गया होता। हां, वैज्ञानिक तथ्यों से इतना जरूर पता चलता है कि उच्च रक्तचाप, मोटापा, अति धूम्रपान, उच्च कोलेस्ट्रॉल और आधुनिक जीवनशैली कुछ ऐसे तथाकथित कारक हैं, जिनकी उपस्थिति में किसी व्यक्ति को दिल का दौरा आने की सम्भावना अधिक रहती है। हाल के एक अध्ययन में, पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ के हृदय रोग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. नीलम ने पाया कि हृदय रोग से पीड़ित 44% महिलाओं का वजन बहुत ज्यादा था। अमेरिकी हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ बर्नार्ड लोन ने अपने शोध से साबित कर दिया कि हृदयाघात से होने वाली मौतों के लिए तनाव की भूमिका कुछ ज्यादा ही होती है।  

इसमें दो मत नहीं कि हृदय रोग बड़ी स्वास्थ्य समस्या बनकर उभरा है। हृदयाघात की घटनाओं में वृद्धि की तात्कालिक वजह चाहे जो भी हो, पर यह सर्वामान्य है कि विभिन्न परेशानियों में उलझा हुआ मन और असंयमित जीवन-शैली से ज्यादा नुकसान हो रहा है। कहा भी गया है कि चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी इस नई चुनौती को समझने और उससे मुकाबला करने के उपायों पर अध्ययन कर रहे हैं। इस मामले में योग की भूमिका स्वयं सिद्ध है, जिसे आधुनिक चिकित्सा जगत भी स्वीकार कर चुका है। पर हृदय रोगियों को सावधानीपूर्वक योगाभ्यास करने की जरूरत होती है। इसलिए चिकित्सक हिदायत देते हैं कि बिना परामर्श लिए कोई भी योगाभ्यास या व्यायाम नहीं किया जाना चाहिए। इसमें दो मत नहीं कि योग की इतनी प्रभावशाली विधियां उपलब्ध हैं कि विशेषज्ञों के परामर्श से उनमें से कुछ का भी नियमित अभ्यास किया जाए तो आसन्न संकट से मुक्ति पाई जा सकती है। इस संदर्भ में कुछ बातें विचारणीय हैं। देश के अनेक दक्ष योगाचार्यों की सलाह है कि कोई स्वस्थ्य व्यक्ति सिद्धासन, उट्रासन और प्राणायाम की दो विधियों यथा नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम का नियमित अभ्यास करे तो हृदयाघात से बचाव में मदद मिल सकती हैं।

उष्ट्रासन हृदय रोगियों के लिए तो लाभकारी है ही। पर यह आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए भी बड़े काम का है। यह एक ऐसा योगासन है, जिसका अभ्यास सात्विक गुणों का विकास करके किया जाए तो अनाहत चक्र के जागरण में बड़ी मदद मिलती है। अनाहत चक्र भक्ति का केंद्र है। इसे अजपा जप द्वारा आसानी से जागृत किया जाता है। पर उष्ट्रासन अपजा के पहले उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। गुरूजनों का अनुभव है कि अनाहत चक्र में चेतना का स्तर उठते ही योग साधक प्रारब्ध के सहारे नहीं, बल्कि अपनी इच्छानुसार जीवन जीने में सक्षम हो जाता है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि अनाहत का संबंध हृदय से है, जो आजीवन लयबद्ध तरीके से स्पंदित और तरंगित होता रहता है। जब तक चेतना अनाहत के नीचे के चक्रों में केंद्रित होती है, तब तक व्यक्ति भाग्यवादी बना रहता है। प्रारब्ध की बदौलत उसके जीवन की गाड़ी बढ़ती रहती है। पर जब चेतना मणिपुर चक्र से होकर आगे बढ़ जाती है तो व्यक्ति जीवन की कुछ परिस्थितियों का सामना करने में पूरी तरह सक्षम हो जाता है। उसमें बहुत हद तक प्रारब्ध बदलने तक की क्षमता विकसित हो जाती है।  

दरअसल, वर्षों पहले पहली बार हृदय का सफल प्रत्यारोपण करने वाले विश्व विख्यात हृदय शल्य चिकित्सक डॉ क्रिश्चियन बर्नार्ड ने ही अपने शोध से स्थापित किया था कि हृदयाघात से बचाव में योग की बड़ी भूमिका होती है। पता चला कि केवल सिद्धासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम भी बड़े काम के होते हैं। यह मानव में भावनात्मक उथल-पुथल के कारण होने वाले हृदय रोग से बचाव में बड़ी भूमिका निभाता है। इस अनुसंधान के कई वर्ष बाद आस्ट्रेलिया में जन्में और सिडनी विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ ली ब्रेडली, जो बाद में डॉ स्वामी कर्मानंद के नाम से मशहूर हुए, ने भारत भूमि पर परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के सानिध्य में अंतर्राष्ट्रीय योग मित्र मंडल अनुसंधान केंद्र के साथ जुड़कर डॉ बर्नार्ड के अनुसंधान को बड़ा फलक प्रदान किया। पर उनके अनुसंधान से भी डॉ बर्नार्ड के अनुसंधान के नतीजों की पुष्टि हुई। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मन की गहराइयों से उठने वाली प्रवृत्तियों और मनोभावनात्मक उत्तेजनाओं का संबंध हृदयाघात से है और इन मनोभावनाओं पर नियंत्रण पाने में सिद्धासन कारगर है। अब डॉ स्वामी कर्मानंद का जीवन आस्ट्रेलिया के आदिवासियों को समर्पित है। वे उनके बीच बेहद लोकप्रिय हैं।

मैंने पूर्व के लेख में बताया था कि हृदय रोगियों के लिए उष्ट्रासन किस तरह लाभप्रद है। पर सिद्धासन, उष्ट्रासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम के साथ ही भ्रामरी प्राणायाम का भी हृदय से सीधा संबंध है। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि हृदय अनाहत की ध्वनि का केंद्र है। ठीक भौंरे की गुफे की तरह। जब हम भ्रामरी प्राणायाम करते हैं तो भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे अनाहत चक्र सक्रिय होता है। इसी वजह से यह प्राणायाम हृदय रोगियों के लिए विशेष लाभकारी साबित होता है। 

इसलिए, हृदय रोग को लेकर बुद्धि विलास में उलझे रहने का कोई सार नहीं है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इस गंभीर बीमारी से बचाव के लिए योग की अनेक विधियां मौजूद हैं। बस, बिना वक्त गंवाए योग्य योगाचार्यों के परामर्श से योगाभ्यास शुरू कर देने की जरूरत है। पर ध्यान रहे कि योगाभ्यास ज्यादा प्रभवाशाली तब बन पड़ता है, जब दिल प्रेम से भरा होता है। शोधों से भी यही पता चलता है कि प्रेम से भरे लोगों का दिल ज्यादा सुरक्षित होता है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

कुछ आसान योगाभ्यासों से भी हृदय रहेगा स्वस्थ्य

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद स्वास्थ्य को लेकर लोगों में जागरूकता आई है औऱ सजग लोग योग या व्यायाम जरूर करते हैं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में युवा भी हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि एक साल के भीतर हृदयाघात से होने वाली मौतों में 12.5 फीसदी की वृद्धि हो गई है। आखिर कोविड-19 ने हमारे भीतर ऐसा कौन-सा जख्म दे दिया कि आजीवन लगातार लयबद्ध ढंग से स्पंदित और तरंगित होने वाला हृदय का पहिया बीच में ही रूक जा रहा है। दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी इस नई चुनौती को समझने और उससे मुकाबला करने के उपायों पर अध्ययन कर रहे हैं। साथ ही हिदायत भी दे रहे हैं कि कोरोना के शिकार हुए लोग कठिन योग या व्यायाम न करें। दूसरी तरफ योगाचार्य कह रहे है कि योग की इतनी विधियां हैं कि हर कोई विशेषज्ञों के परामर्श से अपने अनुकूल योग करके आसन्न संकट से मुक्ति पा सकता है।  

योगाचार्यों की बात में दम है। इससे चिकित्सकों के परामर्श की अवहेलना भी नहीं होती। जैसे, सिद्धासन और प्राणायाम की दो विधियां नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम भी हृदयाघात से बचाव में मददगार साबित हो सकती हैं। अब तक हुए विभिन्न शोधों से इस बात पुष्टि होती है। इन योग विधियों की साधना आसान भी है। सिद्धासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम का हृदय से संबंध तो अनेक लोग जानते हैं। पर भ्रामरी प्राणायाम का भी हृदय से सीधा संबंध है, यह बात ज्यादा प्रचारित नहीं है। दरअसल, इस प्राणायाम का सीधा प्रभाव उस अनाहत चक्र से होता है, जिसका संबंध हृदय से भी है। हमारे शरीर में जो मुख्य सात चक्र हैं, उनमें एक प्रमुख चक्र है-अनाहत चक्र। इसे हृदय चक्र भी कहते हैं। अनाहत का मतलब है कि जो आहत न हो और हृदय की तरह आजीवन चलते रहने वाला हो। योगियों का मानना है कि इस युग में मानव चेतना अनाहत से गुजर रही है। पर वह उस तरह क्रियाशील नहीं है, जिस तरह मूलाधार में क्रियाशील है। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि हृदय अनाहत की ध्वनि का केंद्र है। ठीक भौंरे की गुफे की तरह। जब हम भ्रामरी प्राणायाम करते हैं तो भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे अनाहत चक्र सक्रिय होता है। इसी वजह से यह प्राणायाम हृदय रोगियों के लिए विशेष लाभकारी साबित होता है।  

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। बिहार योग विद्यालय से जुड़े आस्ट्रेलिया के योगी और चिकित्सक डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि पुरूषों और महिलाओं की यौन ग्रंथियों में निर्मित होने वाले क्रमश: एण्ड्रोजन और एस्ट्रोजन हॉरमोन का बनना और उसका नियंत्रण पिट्यूटरी ग्रंथी से होता है, जो स्वयं मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस नामक हिस्से के नियंत्रण में रहती है। मस्तिष्क का यह हिस्सा भावनाओं और आवेगों के प्रति अतिसंवेदनशील रहता है। रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है। हम देख रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद महिलाएं भी समान रूप से हृदयाघात की शिकार हो रही हैं। अनाहत चक्र की साधना महिलाओं को विशेष फल देने वाली मानी गई हैं।  

सिद्धासन महिला और पुरूष दोनों ही कर सकते हैं। घेरंड संहिता में इस आसन के बारे में विस्तार से चर्चा है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस संहिता लिखे अपने भाष्य में कहा है कि सिद्धासन करने से मेरुदण्ड की ऊर्जा निम्न चक्रों से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इससे मस्तिष्क उद्दीप्त होता है और संपूर्ण तन्त्रिका-तन्त्र शांत होता है। स्वतः वज्रोली या सहजोली मुद्रा लग जाती है। परिणामस्वरूप यौन ऊर्जा-तरंगें मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक पहुँचने लगती हैं, जिससे प्रजननशील हार्मोन पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। यह आसन मेरुदण्ड के निचले भाग और उदर में रक्त-संचार को नियमित करता है, मेरुदण्ड के कटि-प्रदेश, श्रोणि और आमाशय के अंगों को पोषित करता है और प्रजनन-संस्थान व रक्त-चाप को भी संतुलित करता है। इस वजह से हृदयाघात से विशेष बचाव हो जाता है। पर सायटिका के मरीजों को इसका अभ्यास न करने की सलाह दी जाती है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि इस तरह के कुछ आसान आसन और प्राणायाम हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करते हैं। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया। इसी तरह पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम करने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

हृदयाघात की घटनाओं में वृद्धि की तात्कालिक वजह चाहे जो भी हो, पर यह सर्वामान्य है कि विभिन्न परेशानियों में उलझा हुआ मन और असंयमित जीवन-शैली से ज्यादा नुकसान हो रहा है। कहा भी गया है कि चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। वैदिक ग्रंथों में तो दु:ख और चिंता के दुष्परिणामों को लेकर कितनी ही बातें कही गई हैं। गरूड़ पुराण में चिंता को चिता के समान बतलाया गया है। पर वैदिक ग्रंथों में समस्या का समाधान भी दिया गया है। आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश, हताशा और दु:ख एक ही आधार से उपजे रोग हैं और वैदिककालीन योग ग्रंथों में बतलाए गए उपाय बड़े काम के हैं। इसलिए मौजूदा मर्ज की दवा तभी संभव है जब हम योगाचार्य के रूप में सही चिकित्सक का चुनाव करके उसके बताए नुस्खे पर अमल करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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