महर्षि पतंजलि और योग की पराकाष्ठा

पातंजल योग सहित राजयोग मन का विज्ञान माना जाता है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व के भीतरी पक्षों की खोजबीन कर अंतर्निहित ज्ञान और ऊर्जा का उद्घाटन करता है। यह मानसिक अनुशासन का विज्ञान है, जिसमें मन को एकाग्र करने की अनेक विधियां हैं। महर्षि पतंजलि स्वयं अपनी योग पद्धति को मन की वृत्तियों के निरोध का विज्ञान कहते हैं। पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती के मुताबिक, उनकी पद्धति सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शन से भिन्न दिखती है। वे भक्तियोग के मार्ग पर चलने वालों के लिए ईश्वर की अवधारणा को साधना के एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

संत कबीर ने ठीक ही कहा था, चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। पर कोरोनाकाल में संकट इतना गहरा है कि मनुष्य में चिंता के कारण रोग, प्रमाद, मंदता, संशय जैसे विकारों की श्रृंखला लंबी होती जा रही है। ऐसे में अशांति और अवसाद को आश्रय मिलना लाजिमी ही है। योगशास्त्र में मानसिक अशांति के लक्षण और उससे निजात पाने के उपायों पर व्यापक चर्चा है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ऐसे विकारों का मुक्तिदाता योग ही है।

श्रीमद्भगवतगीता का महल तो अर्जुन के विषाद की बुनियाद पर ही खड़ा है। पर कोरोनाकाल में आम लोगों का विषाद और उसके परिणाम अलग हैं। इस विषाद, इसके परिणाम और इससे मुक्ति के उपायों पर महर्षि पतंजलि का काम अद्वितीय है। उन्होंने अपने योगसूत्रों के जरिए गागर में सागर भर दिया है। वे कहते है कि रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि विक्षेप से हमारी आंतरिक ऊर्जा का लयात्मक ढंग बदल जाता है और बेचैनी शुरू हो जाती है। बेचैनी लगातार बनी रहे तो नाना प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग प्रकट होते हैं।  

महर्षि पतंजलि इस स्थिति से उबरने के लिए जो तीन सूत्र देते हैं, वे मन के प्रबंधन के लिए यौगिक उपायों की बुनियाद बनते हैं। इनमें पहला सूत्र है – अथ योगानुसाशनम्। यानी योग एक व्यवस्था है, अनुशासन है और इसका आधार है – यम और नियम। यम से उनका अभिप्राय स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देने से है। इसे आत्म—संयम भी कह सकते हैं। सच है कि यदि हमने अपने जीवन की शुरूआत इस तरह कर दी, जो विपरीत दिशाओं में गति करती हो, तो बात बिगड़ेगी ही। इसी तरह जीवन में सुनिश्चित नियमन न रहे तो भी बात बिगड़ेगी। इसलिए नियमन जरूरी है। जैसे, सत्य का धारण करते हुए सत्कर्मों से जो भी फल मिले उसी से संतोष रहना। ताकि जीवन खुशनुमा हो जाए। यह पांच नियमों में से दो नियम के सार हैं। तभी योगी कहते हैं कि बच्चों को यम-नियम के साथ ही योग शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे बच्चों के जीवन में नया विहान होगा और जग सुधरेगा।

महर्षि पतंजलि ने एक सूत्र के जरिए इस बात को ज्यादा स्पष्ट किया है। मसलन, योगानुशासन का परिणाम क्या होना है। इसके प्रत्युत्तर में  वे कहते हैं – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होगा। जब हम सिनेमा घर में फिल्म देख रहे होते हैं तो पर्दे पर प्रेक्षेपित चलचित्र मन मोह लेता है। जहां स्क्रीन के सिवा कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ घटित होता दिखता है। हालात ऐसे बनते हैं कि हम अपने आप को कुछ घंटों के लिए भूल जाते हैं। अलग ही दुनिया में जीने लगते हैं। ओशो कहते हैं कि जो कुछ सिनेमा घर में घटित हो रहा होता है, मनुष्य के भीतर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पा‌र्श्व-भूमि में है, जिसे अचेतन कहते हैं। इस अचेतन में संग्रहीत वृत्तियां, वासनाएं, संस्कार चित्त के परदे पर प्रक्षेपित होते रहते हैं। यह चित्त-वृत्तियों का प्रवाह प्रतिक्षण बिना विराम चलता रहता है। चेतना दर्शक है, साक्षी है। वह इस वृत्ति-चित्रों के प्रवाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है। इस अज्ञान से जागना चित्त-वृत्तियों के निरोध है।

सवाल फिर भी रह जाता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध होने से क्या होगा? तब महर्षि पतंजलि सूत्र देते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही सिनेमा हॉल में फिल्म खत्म होने के बाद जो भ्रम टूटा था और स्वयं के होने का अहसास हुआ था, वैसे ही जीवन से भ्रांतियां दूर होंगी। योग सध जाएगा। आत्म-साक्षात्कार होगा। स्वंय को जान पाएंगे। महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को ही योग कहा है। हालांकि इसमें दो मत नहीं कि मौजूदा समय में संकटग्रस्त लोगों का लक्ष्य योग-साधना का उच्चतर परिणाम पाना शायद ही होगा। पर शरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए चित्तवृत्तियों के निरोध की दिशा में थोड़े यौगिक उपाय भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं। चिंता या तनाव से मुक्ति पाने की राह आसान हो जाएगी। फिर तो नकारात्मक चिंता सकारात्मक चिंता में बदल जाएगी। तब हम चिंता नहीं, चिंतन भी नहीं, बल्कि मनन करने लगेंगे। ऐसे में जाहिर है कि हमारे ईर्द-गिर्द ही उपलब्ध उपाय घुप्प अंधेरे में दीपक बनकर मार्ग प्रशस्त कर देंगे।

योग में तनावों से मुक्ति की व्यापक संभावनाएं विद्यमान हैं। योगशास्त्र की मान्यता है कि सभी बीमारियों की जड़ें शरीर और मन में होती हैं। इसलिए किसी बीमारी का यौगिक उपचार करना हो तो योगी हठयोग और राजयोग की विधियां बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम उतना ही बतलाया, जिससे सजगता का विकास करके मन को एकाग्र करने में मदद मिले। उनका कहना है कि आसन ऐसा हो कि शरीर को सुख मिले, आराम मिले। तभी उन्होने कहा – स्‍थिरसुखमासनम्। यानी स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है। और प्राणायाम? वे कहते हैं – प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। यानी रेचक और कुंभक के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे ही हम नाड़ी शोधन प्राणायाम के रूप में जानते हैं। शरीर को ऊर्जावान बनाने और उसे संतुलित रखने में इस योग विधि की बड़ी भूमिका है। शारीरिक व्याधियों को दूर करने से लेकर आध्यात्मिक चेतना के विकास तक में यह बड़े महत्व का होता है।

योगवशिष्ठ में उल्लेख है कि वशिष्ठ मुनि श्रीराम को पूरक, कुंभक और रेचक को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि यह जो प्राणायाम है, ओंकार के उच्चारण के साथ परम कल्याणकारी है। आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी नाड़ी शोधन प्राणायाम की महत्ता बार-बार सिद्ध की जाती रही है। हमारे शरीर में मुख्यत: तीन नाड़ियां होती हैं – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना तो सुषुप्त नाड़ी है। इसे योगी योगबल से जागृत करते हैं। पर बाकी दो नाड़ियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो शारीरिक बीमारियां प्रकट होती हैं। मनोऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए कि इन बाधाओं का असर शरीर की अन्य नाड़ियों पर भी होता है। जाहिर है कि शारीरिक व मानसिक व्याधियों के लिहाज से नाड़ी शोधन प्राणायाम बड़े महत्व का है। कोरोनाकाल में सुखासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम जैसे चंद यौगिक क्रियाओं के अभ्यास से भी हमारी शारीरिक व मानसिक स्थिति ऐसी बनी रह सकती है कि हम किसी भी समस्या का मुकाबल धैर्य और विवेक के साथ कर सकें।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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