वर दे, वीणावादिनी वर दे !

किशोर कुमार//

महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” की कालजयी कविता “वर दे, वीणावादिनी वर दे! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे…..” हमारी प्रार्थना बन चुकी है। सच कहिए तो हर भारतीय के मन में यही भाव होता है कि प्राचीन भारत का गौरव और वैभव फिर से लौटे और भारत फिर विश्व गुरू बन जाए। पर यह तो तभी संभव है जब हमारी राष्ट्रभक्ति, संकल्प-शक्ति और पराक्रम के साथ माता सरस्वती की कृपा भी होगी। इस कृपा के लिए बसंत पंचमी के मौके पर की गई प्रार्थना बुद्धि, प्रज्ञा और मनोवृत्तियों को सन्मार्ग दिखाने वाली साबित होगी।

इसलिए हम प्रार्थना करें कि हे परा और अपरा विद्या की स्वामिनी माता सरस्वती, आप इस धरा पर रश्मियां बिखेर कर  हमें इतनी शक्ति दीजिए कि हम निरंतर सीखने और सभी की भलाई के लिए अपनी समझ व ज्ञान के अनुप्रयोग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को नवीनीकृत कर सकें। हमें वैदिक ग्रंथों और संत-महात्माओं से पता चलता है कि जब भी दैवी शक्तियां इस धरा पर अपनी ऊर्जा बिखेरती हैं, तो सुपात्रों का निर्माण होता है। सुमधुर सामूहिक धुन जागृत होते हैं। सभ्यता के श्रेष्ठतम तराने झंकृत होते हैं। इससे सामाजिक प्राणियों में सद्भावना आता है, सुसंस्कृत सभ्य समाज का निर्माण होता है। इससे जगत का कल्याण होता है! महान सरस्वती सभ्यता भी तो इन्हीं विशिष्ट गुणों के लिए याद की जाती है।

हे वाग्देवी, हमें ज्ञात है कि विशाल सरस्वती नदी आपकी ही एक रूप थी। चूंकि आप ज्ञान, संगीत और रचनात्मकता की देवी हैं, इस वजह से वह नदी सभी जीवों के लिए बेहद कल्याणकारी थी। हे विद्यारूपा मां, आपका नदी स्वरूप विलुप्त प्राय: हो जाने के कारण महान हड़प्पा सभ्यता का पतन हो गया। सनातन संस्कृति और मानवता को बड़ा नुकसान हुआ। हमें इस बात का भान है कि जिस तरह गंगा और अन्य महत्वपूर्ण नदियों के किनारे मौजूदा भारतीय सभ्यता का रची-बसी है, उसी तरह सरस्वती नदी के प्रभाव क्षेत्र में भी महान सिंधु-सरस्वती सभ्यता थी, जो शिक्षा-संस्कृति और धन संपदा के मामले में बेहद समृद्ध थी। तभी जो भी विदेशी आक्रांता हमें लूटने आते थे, यहां का वैभव देखकर यहीं जम जाते थे और हमारी कमजोरियों का फायदा उठाकर राजसत्ता पर काबिज हो जाते थे।

आधुनिक युग में प्राचीनकाल में वैभवशाली भारत की चर्चा मात्र से जले-भुने लोग नैरेटिव सेट करने में जुटे रहें कि सरस्वती नदी और सरस्वती सभ्यता की कथाएं काल्पनिक हैं। पर सत्य कहां पराजित होती है। अपके वाहन हंस की तरह इसरो और नासा के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों के आधार पर दूध और पानी का भेद कर दिया है। सप्रमाण बता दिया है कि आज का घग्गर-हकरा नदी कुछ और नहीं, बल्कि सरस्वती नदी के ही अवशेष हैं। वैसे, अपनी जड़ों से जुड़े लोगों को आपके अस्तित्व को लेकर कभी संशय न था। हमें तो प्रयागराज स्थित संगम में एक नाविक भी बताता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन-स्थल कौन-सा है। हे मां भारती! आपकी कृपा और अपने अल्प ज्ञान की बदौलत हम श्रुति और स्मृति के आधार पर वैदिक ज्ञान को काफी हद तक संरक्षित करते आए हैं। इसलिए सरस्वती नदी घाटी सभ्यता की बातें भी मौखिक परंपरा के रूप में संरक्षित है।

हे वेदमाता! पुरातत्वविदों की खुदाई से पता चल चुका है कि उस काल में भी योग विद्या बेहद समृद्ध और सर्वग्राह्य थी। विभिन्न योग मुद्राओं वाली टेराकोटा मूर्तियां इस बात की गवाही दे रही हैं। यह आपकी महिमा का ही प्रतिफल था। आपकी मुद्राओं से मानव जीवन को धन्य बनाने के संदेश मिलते हैं। आपका कमल रूपी आसन में ज्ञान मुद्रा में होना संपूर्ण सृष्टि का प्रतीक है। योगी बताते हैं कि ज्ञान मुद्रा बुद्धिमत्ता, स्मरण-शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि कराने वाली है। हमारे जीवन की जितनी भी क्रियाएं और विचार हैं, उनका सृजनात्मक नाद रूप ही इस जगत में सर्वत्र है। दोनों हाथों से वीणा धारण करना इसी बात का प्रतीक है। पुस्तक सर्वज्ञानमय स्वरूप का प्रतीक है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी की स्तुति में कोई चौहत्तर श्लोक हैं। उनसे पता चलता है कि सरस्वती नदी को बुद्धि, विवेक और अंतर्ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता था।

हे शास्त्ररूपिणी! हमें वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि आप प्रकृति को वाणी देने के लिए वसंत पंचमी के दिन अवतरित हुई और विविध रूप धारण करके सबका कल्याण करती रहीं। हम क्षमाप्रार्थी हैं कि अपनी ही कमजोरियों के कारण अपनी गौरवशाली संस्कृति से कटते गए और गोस्वामी तुलसीदास उक्ति “सकल पदारथ एहि जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं… को चरितार्थ करते रहे। पर हे मां, हमें सुबुद्धि दीजिए कि अब सर जॉन रिसले जैसों की दाल गलने न पाए। वह कहता था कि भारत की जातीय व्यवस्था भारतीयों को उनकी जड़ों से जुड़ने नहीं देगी। उसने इसी भावना से भारत में पहली बार सन् 1872 में जाति आधारित जनगणना करवाई थी। इसका परिणाम हुआ कि हम बिखर गए और उपनिवेशवादी बलशाली हो गए। आपकी शिक्षाओं से हमें इस बात का अहसास हो चला है कि आत्मभाव ही ऐसे विध्वंसक प्रयासों की काट है। और यह योग विद्या से प्राप्त होगा।

हे परम चेतना संपन्न माता सरस्वती! आपके हाथों की अक्षमाला (रूद्राक्ष) की महत्ता ही इतनी है कि ऋषियों ने अक्षमालिकोपनिषद् तक की रचना कर दी थी। इस उपनिषद् में भगवान कार्तिकेय प्रजापति को बतलाते हैं कि अक्षरमाला का प्रत्येक अक्ष (मनका) में दैवीय गुण हैं। पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि की दैवी शक्तियाँ इस अक्षमाला में समाहित हैं। समस्त विद्याओं और कलाओं का स्रोत भी यही अक्षमाला है। इन कथनों का सार यह कि ब्रह्मांड के समस्त ज्ञान-विज्ञान का स्रोत अक्षमाला ही है। 

हे हंसवाहिनी मां! आपके तेज का ही प्रतिफल है कि आपकी छाया में होने के कारण हंस भी प्रखर बुद्धि का स्वामी बन गया। तभी उसके पैंतालीस उपदेशात्मक श्लोकों वाली हंस गीता की रचना हो पाई थी, जो हमें यम-नियम सहित सर्वग्राह्य योग विद्या से परिचय कराती है। हे मां, आपका उज्जवल रंग ही प्रकाशमान ब्रह्म है। हमें योगमय जीवन जीने के लिए प्रेरित कीजिए। ताकि हममें नालंदा, विक्रमशिला और तक्षशिला जमाने की बुद्धि प्रकाशित हो सके। आपकी यह कृपा ही भारत के गौरव की पुर्नस्थापना का मार्ग प्रशस्त करेगी। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)         

रामभक्त महर्षि योगी और राम मुद्रा

किशोर कुमार //

भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक महर्षि महेश योगी अपनी विज्ञानसम्मत यौगिक क्रियाओं ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, यौगिक उड़ान आदि के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार संबधी उनके अनुराग से भी हम सब वाकिफ हैं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में महर्षि संस्थान अहर्निश उनकी शिक्षाओं को नईपीढ़ी तक पहुंचाने में जुटे रहते हैं। पर रामभक्त के रूप में उनकी चर्चा कम ही होती है। आज महर्षि जी की पुण्यतिथि है। उन्होंने 11 जनवरी 2008 को घोषणा की कि धरती पर उनका काम पूरा हो चुका है और 5 फरवरी 2008 को नीदरलैंड में अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया था। महर्षि जी का पुण्यस्मरण करते हुए इस लेख की शुरूआत उनके जीवन की उन पहलुओं से करते हैं, जिसकी चर्चा कम ही होती है।

यह सर्वविदित हैं कि महर्षि महेश योगी ने विश्व शांति राष्ट्र की घोषणा करके नीदरलैंड और अमेरिका के कुछ भागों में राम मुद्रा चलाई थी। उनकी संस्था ‘ग्लोबल कंट्री वर्ल्ड ऑफ पीस’ ने 2002 में इस मुद्रा को जारी किया तो नीदरलैंड सरकार ने इसे कानूनी मान्यता देने में जरा भी देऱी न की थी। इससे महर्षि योगी और राम भक्तों के प्रभाव का पता चलता है। नीदरलैंड के बाद अमेरिका के आयोवा स्थित महर्षि वैदिक सिटी में भी राम मुद्रा जारी किया गया था। इतना ही नहीं, अमेरिका के कोई 35 राज्यों में श्रीराम नाम वाले बॉड्स शुरू किए गए थे। खास बात यह है कि राम मुद्राएं आज भी चलन में है। अमेरिकन इंडियन जनजाति आयवे की बहुलता वाले आयोवा के लोगों को प्रभु श्रीराम से इतना प्रेम है कि उन्हें मुद्रा की सरकार मान्यता की भी परवाह नहीं रहती। वे स्थानीय स्तर पर खरीददारी और आपसी लेन-देन के लिए इसी मुद्रा का इस्तेमाल करते हैं। उन मुद्राओं में कई भाषाओं में राम और श्रीराम की तस्वीर के नीचे राजा राम – राम ब्रह्म परमाथ रूपा लिखा होता है।

महर्षि जी की श्रीराम में अटूट श्रद्धा का ही परिणाम था कि राम मुद्रा प्रचलन में लाने का उनका संकल्प पूरा हो सका था। वे अपने जीवन में भी श्रीराम के आदर्शों को आत्मसात करने की भरपूर कोशिश करते रहे। इस बात को एक प्रसंग से समझिए। महर्षि योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के प्रिय शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। इसलिए कि वे इसके लिए सुपात्र थे। महर्षि जी के तमाम गुरू भाइयों को भी लगता था कि अगला शंकराचार्य तो महर्षि योगी ही बनेंगे।

पर गुरू ब्रह्मानंद सरस्वती के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। वे महर्षि योगी की उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान के वाकिफ थे और चाहते थे कि उनके जरिए वैदिक ज्ञान का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार हो। इसलिए जब अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करनी थी तो पहले महर्षि योगी को बुलाकर आदेश दे दिया कि तुम वैदिक शिक्षा का दुनिया भर में प्रचार-प्रसार करो। मतलब साफ था कि महर्षि जी शंकराचार्य नहीं बनाए जाएंगे। इसलिए कि शकराचार्यों के लिए समुद्र लंघन वर्जित माना गया गया और गुरू के आदेश पूरा करने के लिए समुद्र लंघन करना ही होता। महर्षि जी जरा भी विचलित हुए बिना गुरू आदेश को अमल में लाने के लिए निकल पड़े थे पश्चिम की ओर। जरा गौर कीजिए। श्रीराम को वनवास भेजे जाने वाले प्रसंग से यह घटना कितनी मिलती-जुलती है। श्रीराम का राजतिलक होना था और मिल गया वनवास। श्रीराम खुशी-खुशी वनगमन कर गए थे। इस कथा के गूढ़ार्थ समझने पर हमारे जीवन को उन्नत बनाने वाले कई संदेश मिलते हैं। पर क्या हम सब उन संदेशों पर विचार भी कर पातें? महर्षि योगी अपने गुरू की इच्छा को पूरा करने के लिए ताउम्र जो कुछ कर पाए थे, उससे साबित होता है कि उन पर मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की शिक्षाओं व्यापक प्रभाव था।  

हालांकि शंकराचार्य न बनाए जाने पर महर्षि जी से ईर्श्या करने वालों को आलोचना करने का एक मौका मिल गया था। कई लोग महर्षि जी से कहते कि कुछ लोग आपकी निंदा कर रहे हैं। महर्षि जी कहते, निंदा करने वालों ने तो प्रभु श्रीराम को भी नहीं छोड़ा था। पर हाथी से सीखो। उसकी विशेषता क्या है? वह हाथ जोड़ने वालों से प्रसन्न होकर उसके पास ठहरता नहीं और भौंकने वाले कुत्तो की परवाह नहीं करता। इसलिए, उसकी चाल में मस्ती बनी रहती है। संत-स्वभाव भी ऐसा ही होना चाहिए। यदि हम तमोगुणी निंदकों की परवाह करने लगे तो शिष्य धर्म का पालन कैसे हो पाएगा? एक दूसरा प्रसंग भी है। महर्षि योगी को दुनिया भर में सिद्ध संत मान लिया गया था। उसके बाद अपने देश में सत्संग दे रहे थे तो एक व्यक्ति ने पूछ लिया, महर्षि जी, आपको संत क्यों कहा जाता है? महर्षि जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ, जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है। इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं। चूंकि पहले के सभी संतों का भी ऐसा ही संदेश रहा है, इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं।”

अविभाजित मध्य प्रदेश के राजिम शहर में 12 जनवरी 1918 को जन्मे महर्षि महेश योगी ऐसे आत्मज्ञानी संत थे, जिन्होंने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर काम किया था। भावातीत ध्यान योग (ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन) जैसी योग विधियां इसके सबूत हैं। अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देशों के अखबारों में उनकी यौगिक विधियों के प्रभाव बताने वाली खबरें स्थान पाती रहती हैं। महर्षि महेश योगी ने अपने जीवनकाल में वेदों में निहित ज्ञान का अनुभव करके अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इन शिक्षाओं के प्रचार के लिए संस्थाएं स्थापित की और उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया। यह सुखद है कि उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं को फैलाने का काम बिना किसी गतिरोध के जारी है। जगह-जगह महर्षि वेद पीठ की स्थापना करके वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। यह महर्षि जी को सच्ची श्रद्धांजलि है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग विद्या के आलोक में श्रीराम

किशोर कुमार //

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है।

पूरा देश राममय है। हममे श्रीराम के मूल्यों का बीज तो पहले से विद्यमान है। सही पोषण भर से वह अंकुरित हो चुका है। कामना यही है कि यह अंकुरण निर्दोष रहे और फले-फूले। तभी कथा के राम से बाहर जाकर घट-घट में बैठे राम से साक्षात्कार कर अपना जीवन धन्य बना पाएंगे।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं कि रामायण की कथा जान गए, अच्छी बात है। सद्गुणों के विकास की पहली सीढ़ी है। पर यह भी जानने की कोशिश होनी चाहिए कि रामायण का रहस्य क्या है? क्या राम केवल राजपुत्र थे अथवा परब्रह्म परमेश्वर थे? उनका वास्तविक स्वरूप क्या था? संत कबीर ने कहा है – “एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा।“ जाहिर है कि हमें कथा के राम तक सीमित नहीं रहना होगा, एक पायदान आगे बढ़ना होगा। योगबल के जरिए घट-घट में बैठे राम का अन्वेषण करना होगा। ऐसा किए बिना कलियुग में रामराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हमारे गुरू परमहंस जी सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।

हम सब बचपन से पढ़ते आए हैं कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यौगिक व आध्यात्मिक विरासत होने के बावजूद समस्याए हर स्तर पर बनी रहती है। व्यक्तिगत समस्या के मूल में हमारी अति की भावना की प्रबलता है। जैसे, अति कामना, अति भोग आदि। यह जानते हुए भी अति का अंत बुरा ही होता है। रावण भी तो अति में ही मारा गया। सोने की लंका थी, अपने जमाने की विश्व सुंदरी मंदोदरी पत्नी थी। पर अति की भावना ने सीता जी का अपहरण करने को बाध्य किया। नतीजतन, सोने की लंका जल गई। इसलिए जरूरी है कि समाजा ऐसा होना चाहिए, जिस पर राम की कथाओं से सींचे हुए लोगों का प्रभाव हो। पर चित्तवृत्तियों का निरोध न हुआ तो बात कैसे बनेगी?

हम सबकी जैसी मनोदशा होती है, उसमें सीधे-सीधे आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधनाओं से बात बनने वाली नहीं। तभी अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के लिए होने वाले महायज्ञ से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यम-नियम की साधना की। यम और नियम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के पहले दो पायदान हैं। योगी इसे योग का आधार मानते हैं। इसके बिना सामान्य जनों का योग सधना मुश्किल है। हम सब देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है। इन योग साधनाओं के बाद ही उच्चतर योग साधनाओं से मन का प्रबंधन होगा और घट-घट के राम का जानना संभव हो सकेगा।

पर संत तुलसीदास जी कह गए – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नाम जप और संकीर्त्तन को छोड़कर प्राचीन काल में जितनी साधनाएँ हम लोगों को बतलाई गई, इस कलयुग में उन सबकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। राम नाम से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे स्वामी सत्यानंदजी महाराज। पर मन श्रीराम में रम गया। बात 1925 की है। उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह में एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज।

स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।  

नाम जप, संकीर्त्तन और मंत्रों की शक्ति को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारता है। महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नाम की महत्ता बतलाई थी। नतीजा हुआ कि दशरथ के राम में साक्षात् विष्णु प्रकट हो गए, जो हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। आईए, संतों द्वारा बताई गई योग सधना का क्रमिक अभ्यास करके श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में प्रकट करने का प्रयास करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग विद्या का आधार है यम-नियम

किशोर कुमार //

अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का प्रसंग ऐसे समय में चर्चा का विषय बना है, जब सूर्य उत्तरायण हो चला है और देश सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पोषण आदि की कामना लिए पूरा देश महान सूर्योपासना का पर्व मकर संक्रांति मना रहा है।  गंगा जी का पृथ्वी लोक में अवतरण इसी दिन हुआ था, इसीलिए “सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार” का जयघोष हो रहा है।  स्वामी विवेकानंद मकर संक्रांति के दिन ही अवतरित हुए थे औऱ दुनिया ने देखा कि उन्होंने किस तरह संपूर्ण विश्व में आध्यात्मिक मुधर क्रांति कर नव जागृति का संदेश दिया था। इतिहास गवाह है कि अर्जुन के बाणों से घायल भीष्म पितामह ने कष्ट में होते हुए भी प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी। क्यों? इसका उत्तर श्रीमद्भगवतगीता में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के पराजय के बाद बाबा गोरखनाथ ने योगियों को खिचड़ी खिलाकर जीत का जश्न मनाया था।

इसलिए, ऐसे शुभ योग में लगभग भुला दिए गए यम- नियम का प्रसंग आया है तो उम्मीद है कि ये हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा बनेंगे। वैदिककालीन ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग में वैदिक योग विद्या के आचार्य तक निर्विवाद रूप से इस तथ्य को स्वीकारते और उसे अमल में लाते रहे हैं। पर इन योग विद्याओं को लेकर आम धारणा वैसी ही है, जैसी धारणा उन्नीसवीं सदी तक आसन, प्राणायाम और ध्यान जैसी योग की विद्याओं को लेकर थी। तब आमतौर पर लोग योग को साधु-संन्यासियों की साधाना के साधन मानकर उससे दूरी बनाकर ही रहते थे। दूसरी तरफ, संत-महात्मा जानते थे कि भारत का गौरव फिर से प्रतिष्ठापित तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि योग-अध्यात्म आमलोगों की जीवन-पद्धति का हिस्सा न बन जाएगा। इसलिए, भारत में उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक के अनेक योगी योग को प्रतिष्ठापित करने के लिए जी जान से जुटे रहे।

इसी बीच बीसवीं सदी के महान संत परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक घोषणा करके दुनिया को चौंका दिया था। उन्होंने कहा था, “उन्हें ध्यान की अवस्था में झलक मिली है कि इक्कीसवीं सदी योग और अध्यात्म की सदी होगी। भक्तियोग हाशिए पर नहीं रह जाएगा। इसका आधार केवल विश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण होगा। युवीपीढ़ी सवाल करेगी कि मीराबाई जहर का प्याला पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं और तब विज्ञान की कसौटी पर इस बात को परखा भी जाएगा। भारत विश्व गुरू था और उसे फिर वही दर्जा प्राप्त होगा।“ उनकी यह वाणी रेडियो इराक से भी प्रसारित हुई थी। तब अनेक लोगों ने शायद ही इस बात को गंभीरता से लिया होगा। पर इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं और यम-नियम तक को महत्व मिलने लगा है तो कहना होगा कि वाकई, यह काल योग और अध्यात्म के लिहाज से अमृतकाल है।   

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्तमान समय में योग के ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। उन्होंने अध्योध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ग्यारह दिनों की साधना में महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की पहली दो योग साधनाओं यम और नियम का पालन करने की बात करके योग विद्या के इन आधार स्तंभों के महत्व से दुनिया को परिचित कराया है। साथ ही इन्हें अमल में लाने के लिए सबको प्रेरित भी किया है। हम जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव पर ही 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इसके बाद से दुनिया भर में योगाभ्यासियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो का कथन है, “दार्शनिक शिक्षा के अभाव में ही जीवन में भटकाव आता है और चालाक लोग उसका नाजायज फायदा उठा लेते हैं।“ ऐसे में कुशल नेतृत्वकर्त्ता उसे कहना चाहिए जो राष्ट्र की समृद्धि के लिए अन्य उपाय करने के साथ ही जनता को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करे। ऐसा नेतृत्वकर्त्ता ही जनता का रॉल मॉडल बनता है। हम सब देख भी रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने की घोषणा के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है।

महर्षि पातंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन  प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनमें यम पांच प्रकार के और नियम भी पांच प्रकार के बतलाए गए हैं। पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह और पांच नियम हैं – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान। पर इनकी महत्ता की हम मुख्यत: दो कारणों से नहीं करते। पहला तो यह कि ये आधुनिक युग के लिहाज से या तो अव्यवहारिक लगते हैं। दूसरा यह कि कई बार भ्रम होता है कि ये सारे गुण तो मुझमें विद्यमान हैं ही। मैं तो सच्चा, संयमी, अहिंसक, न्यायप्रिय, संतोषी, धर्मात्मा आदि हूं ही। गलगतियां यहीं होती हैं और योग-विद्या का समुचित फल नहीं मिल पाता।

प्रश्नोपनिषद में चर्चा आती है कि छह जिज्ञासु अपने-अपने सवाल लेकर जब महर्षि पिप्पलाद के पास जाते हैं तो महर्षि उनसे कहते हैं कि पहले प्रत्युत्तर में कही गई बातों को ग्रहण करने का अधिकारी बनो। इसके लिए जरूरी है कि एक साल तक यम-नियम का पालन करो। शिष्य ऐसा ही करते हैं और तब उन्हें उपदेश मिलता है। गुरूजन आधुनिक युग की जीवन-पद्धति को देखते हुए कहते हैं कि यम और नियम के साधकों को सफलता प्राप्त करने के मार्ग में अनेक बाधाएँ आती हैं। पर महर्षि पतंजलि इस स्थिति से निबटने का तरीका बतलाते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रतिपक्ष भावना’ का विकास करके उन्हें दूर किया जा सकता है।

हमें सझना होगा कि यम और नियम का अंतिम उद्देश्य किसी थोपी गई नैतिक या नैतिक प्रणाली को विकसित करना नहीं है, जो जीवन को नीरस और उबाऊ बना दे और हमारे दिमाग को स्थिर और कठोर बना दे। बल्कि उनका लक्ष्य हमारी जुनूनी शक्ति को कम करके इन ऊर्जाओं को कुंडलिनी और उच्च चेतना के जागरण में लगाना है। इसलिए, यज्ञ करने या विद्या ग्रहण करने का अधिकारी बनने से पहले शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तौर पर केंद्रित होने के लिए यम नियम का पालन करने का विधान है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्रिसमस, धर्मों की सारभूत एकता और स्वामी सत्यानंद

किशोर कुमार //

दुनिया भर में क्रिसमस की धूम है तो दूसरी तरफ धर्मों की सारभूत एकता का संदेश देता झारखंड के देवघर जिला स्थित रिखियापीठ आज आधी रात के बाद ही बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की 100वीं जयंती का गवाह बनने जा रहा है। यही वह पीठ है, जहां से इस महान योगी ने कई दशकों तक सेवा, प्रेम और दान की सैद्धांतिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक शिक्षा भी दी थी। आश्रम परिसर में क्राइस्ट कुटीर की स्थापना करके अपनी अनुभूतियों के आधार पर संदेश दिया था कि धर्मों में सारभूत एकता है। इस बात को वैदिक ग्रंथों के आधार पर सिद्ध भी किया था।  

आज जब क्रिश्चियन ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में डूबे हुए हैं, तो बाबाजी, संत युक्तेश्वर गिरि, परमहंस योगानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक अपनी-अपनी अनुभूतियों के आधार पर धर्मों में सारभूत एकता की जो बात कहते रहे हैं, उसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भजते थे – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम …। दुनिया भर के सिद्ध संत इसी सत्य को उद्घाटित करते रहे हैं। पर संक्रमण काल में कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि दुआ करनी होती है – …. सबको सन्मति दे भगवान। सन्मति हो तो धार्मिक भेद नहीं रह जाता है। इसलिए कि सभी धर्मों का जो मकसद है, वह प्रकारांतर से एक ही है।   

बीसवीं सदी के प्रमुख योगी और “योगी की आत्मकथा” के लेखक परमहंस योगानंद के गुरू स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि ने 1894 में ही “दी होली साइंस” नामक आध्यात्मिक पुस्तक की रचना करके स्थापित किया था कि किस तरह वैदिक धर्म और ईसाई धर्म में सारभूत एकता है औऱ इन धर्मों व पंथों द्वारा प्रतिपादित सत्यों में कोई भेद नहीं है। उन्होंने इस बात को साबित करने के लिए सांख्य दर्शन, जिसे योग का आधार माना जाता है और बाइबिल को समझने में अत्यंत कठिन यूहन्ना के प्रकाशित वाक्यों (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाने वाले अनेक उदाहरणों का हवाला दिया था।

वर्तमान युग के लिहाज से योग को परिभाषित करने वाले बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1986 में “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” नामक पुस्तक की रचना की थी। उसके प्रारंभ में ही ऋग्वेद औऱ कुरान से लेकर जापानी बौद्ध लोकोक्तियों तक के आधार पर कहा था – लक्ष्य एक है, मार्ग अनेक हैं। ईसा मसीह ने स्वयं को जानो यानी आत्म-ज्ञान की बात की थी। यह ध्यान विधि से ही संभव था। इसलिए यह ईसाई धर्म का महत्वपूर्ण तत्व बन गया। ध्यान के बिना संभव नहीं कि कोई आत्म-ज्ञान हासिल कर ले। इसलिए ईसाई पादरियों और भिक्षुणियों के जीवन में ध्यान और आध्यात्मिक परंपराओं की अविरल धाराएं बहने लगीं। जिज्ञासुओं को ध्यान और आध्यात्मिक अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बाद के दिनों में तो अनेक ईसाई संतों ने ध्यान से प्राप्त अनुभवों को ईसा मसीह के दर्शन के अनुरूप पाया। ध्यान की रहस्यमयी विधियों पर लेखन किया। इस संदर्भ में ह्यूगो दी संत विक्टर की पुस्तक ”दी वे एसेंड टू गॉड इज टू डिसेंड इन टू वनसेल्फ” महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका सार भी यही है कि ऊपर जाने का मार्ग अपने भीतर से ही है। जो ईश्वर से मिलने के इच्छुक हैं, उन्हें सबसे पहले अपने दर्पण को साफ करना चाहिए। आत्मा धो कर चमकाना चाहिए।

तेरहवीं शताब्दी के कैथोलिक सेंट और इसाई दार्शनिक अल्बर्ट माग्नस  कहते थे कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर ही होना चाहिए। उनके मुताबिक – “जब तू प्रार्थना करता है तो अपने दरवाजे बंद कर ले। यानी सभी इंद्रियां बंद कर ले। ठीक से बंद कर ले। ताकि कल्पनाएँ और प्रतिबिंब तक प्रवेश न करने पाएँ। इसलिए कि चिंताओँ औऱ व्यवधानों से युक्त मन ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। इन व्याधियों से मुक्त मन ही रूपांतरित होकर ईश्वर को देख सकता है।“ पवित्र बाइबिल में ध्यान के बारे में कई जगहों पर उल्लेख है। यथा, एकदम स्थिर बनो औऱ जानो कि मैं ईश्वर हूं। (साम्स 46:10),  ईश्वर का राज्य तुम्हारें भीतर है। (लूक 17:21), शरीर का प्रकाश नेत्र है। यदि यह स्थिर हो जाए तो पूरा शरीर आलोकमय हो जाएगा। (मैथ्यू 6:22) ऐसे और भी कई दृष्टांत हैं।

यह पुस्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की देश-विदेश की यात्राओं और अनुभवों पर आधारित है। पुस्तक में कहा गया है कि बाइबिल में अनेक बातें ध्यान के सबंध में हैं। पर ईसाई मत के अनेक संप्रदायों को ध्यान की बात पची नहीं। ऐसे ही विचारों वाले चर्चों की वजह से ही उसके अनुयायी कर्मकांड और चर्च की अंधभक्ति की ओर उन्मुख हो गए। इस तरह उच्च चेतना के विकास से वंचित रह गए। पर आधुनिक काल में चीजें तेजी से बदल रही हैं। एंथोनी दी मेलो एसजे अपनी पुस्तक साधना – “ए वे टू गॉड” में माना कि सच्ची प्रार्थना और ध्यान एक ही बात हुई। दोनों की अनुभूतियां एक जैसी हैं।

फिलिस्तीन के मरूस्थल के रहस्यवादियों ने जिस जीसस प्रेयर की शुरूआत की थी, कालांतर में उसका इस कदर विस्तार हुआ कि यूनान के कट्ट ईसाइयों को भी इससे परहेज न रहा। पुस्तक में कहा गया है कि जीसस प्रेयर की तकनीक क्रियायोग ध्यान जैसी है। इससे मनुष्य के सीने के बीच में स्थित अनाहत चक्र जागृत होता है। इससे प्राणवायु का प्रबंधन होता है, चेतना का विस्तार होता है। अनेक पादरियों का संदेश भी है कि जीसस प्रेयर से ईसा मसीह सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान करते हैं।      

भारत के अनेक योगियों की योग संबंधी शिक्षाएं अमेरिकी और यूरोपीय देशों में फली-फूलीं। उन देशों में सबके आश्रम हैं। मैं सोचता था कि ऐसा कैसे हुआ? ईसाई धर्मावलंबियों के बीच भारत के परंपरागत योग को इतनी मान्यता कैसे मिल गई? “स्योर वे टू सेल्फ रियलाइजेशन” और “दी होली साइंस” इन दो पुस्तकों को पढ़ने के बाद सारे उत्तर मिल गए। धर्मों के बीच सारभूत समानता बताने वाले ग्रंथों की कमी नहीं है। धर्मों के बीच किन्हीं कारणों से विश्वास की खाई चौड़ी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि उन ग्रंथों की स्थापनाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाए। यही समय की मांग है। मेरी क्रिसमस! नमो नारायण।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कुछ आसान योगाभ्यासों से भी हृदय रहेगा स्वस्थ्य

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद स्वास्थ्य को लेकर लोगों में जागरूकता आई है औऱ सजग लोग योग या व्यायाम जरूर करते हैं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में युवा भी हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि एक साल के भीतर हृदयाघात से होने वाली मौतों में 12.5 फीसदी की वृद्धि हो गई है। आखिर कोविड-19 ने हमारे भीतर ऐसा कौन-सा जख्म दे दिया कि आजीवन लगातार लयबद्ध ढंग से स्पंदित और तरंगित होने वाला हृदय का पहिया बीच में ही रूक जा रहा है। दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानी इस नई चुनौती को समझने और उससे मुकाबला करने के उपायों पर अध्ययन कर रहे हैं। साथ ही हिदायत भी दे रहे हैं कि कोरोना के शिकार हुए लोग कठिन योग या व्यायाम न करें। दूसरी तरफ योगाचार्य कह रहे है कि योग की इतनी विधियां हैं कि हर कोई विशेषज्ञों के परामर्श से अपने अनुकूल योग करके आसन्न संकट से मुक्ति पा सकता है।  

योगाचार्यों की बात में दम है। इससे चिकित्सकों के परामर्श की अवहेलना भी नहीं होती। जैसे, सिद्धासन और प्राणायाम की दो विधियां नाड़ी शोधन प्राणायाम और भ्रामरी प्राणायाम भी हृदयाघात से बचाव में मददगार साबित हो सकती हैं। अब तक हुए विभिन्न शोधों से इस बात पुष्टि होती है। इन योग विधियों की साधना आसान भी है। सिद्धासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम का हृदय से संबंध तो अनेक लोग जानते हैं। पर भ्रामरी प्राणायाम का भी हृदय से सीधा संबंध है, यह बात ज्यादा प्रचारित नहीं है। दरअसल, इस प्राणायाम का सीधा प्रभाव उस अनाहत चक्र से होता है, जिसका संबंध हृदय से भी है। हमारे शरीर में जो मुख्य सात चक्र हैं, उनमें एक प्रमुख चक्र है-अनाहत चक्र। इसे हृदय चक्र भी कहते हैं। अनाहत का मतलब है कि जो आहत न हो और हृदय की तरह आजीवन चलते रहने वाला हो। योगियों का मानना है कि इस युग में मानव चेतना अनाहत से गुजर रही है। पर वह उस तरह क्रियाशील नहीं है, जिस तरह मूलाधार में क्रियाशील है। वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि हृदय अनाहत की ध्वनि का केंद्र है। ठीक भौंरे की गुफे की तरह। जब हम भ्रामरी प्राणायाम करते हैं तो भौंरे की गुंजन जैसी ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे अनाहत चक्र सक्रिय होता है। इसी वजह से यह प्राणायाम हृदय रोगियों के लिए विशेष लाभकारी साबित होता है।  

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। बिहार योग विद्यालय से जुड़े आस्ट्रेलिया के योगी और चिकित्सक डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि पुरूषों और महिलाओं की यौन ग्रंथियों में निर्मित होने वाले क्रमश: एण्ड्रोजन और एस्ट्रोजन हॉरमोन का बनना और उसका नियंत्रण पिट्यूटरी ग्रंथी से होता है, जो स्वयं मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस नामक हिस्से के नियंत्रण में रहती है। मस्तिष्क का यह हिस्सा भावनाओं और आवेगों के प्रति अतिसंवेदनशील रहता है। रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है। हम देख रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद महिलाएं भी समान रूप से हृदयाघात की शिकार हो रही हैं। अनाहत चक्र की साधना महिलाओं को विशेष फल देने वाली मानी गई हैं।  

सिद्धासन महिला और पुरूष दोनों ही कर सकते हैं। घेरंड संहिता में इस आसन के बारे में विस्तार से चर्चा है। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस संहिता लिखे अपने भाष्य में कहा है कि सिद्धासन करने से मेरुदण्ड की ऊर्जा निम्न चक्रों से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। इससे मस्तिष्क उद्दीप्त होता है और संपूर्ण तन्त्रिका-तन्त्र शांत होता है। स्वतः वज्रोली या सहजोली मुद्रा लग जाती है। परिणामस्वरूप यौन ऊर्जा-तरंगें मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक पहुँचने लगती हैं, जिससे प्रजननशील हार्मोन पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। यह आसन मेरुदण्ड के निचले भाग और उदर में रक्त-संचार को नियमित करता है, मेरुदण्ड के कटि-प्रदेश, श्रोणि और आमाशय के अंगों को पोषित करता है और प्रजनन-संस्थान व रक्त-चाप को भी संतुलित करता है। इस वजह से हृदयाघात से विशेष बचाव हो जाता है। पर सायटिका के मरीजों को इसका अभ्यास न करने की सलाह दी जाती है।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि इस तरह के कुछ आसान आसन और प्राणायाम हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करते हैं। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया। इसी तरह पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम करने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

हृदयाघात की घटनाओं में वृद्धि की तात्कालिक वजह चाहे जो भी हो, पर यह सर्वामान्य है कि विभिन्न परेशानियों में उलझा हुआ मन और असंयमित जीवन-शैली से ज्यादा नुकसान हो रहा है। कहा भी गया है कि चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। वैदिक ग्रंथों में तो दु:ख और चिंता के दुष्परिणामों को लेकर कितनी ही बातें कही गई हैं। गरूड़ पुराण में चिंता को चिता के समान बतलाया गया है। पर वैदिक ग्रंथों में समस्या का समाधान भी दिया गया है। आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि उदासी, चिंता, क्रोध, क्लेश, हताशा और दु:ख एक ही आधार से उपजे रोग हैं और वैदिककालीन योग ग्रंथों में बतलाए गए उपाय बड़े काम के हैं। इसलिए मौजूदा मर्ज की दवा तभी संभव है जब हम योगाचार्य के रूप में सही चिकित्सक का चुनाव करके उसके बताए नुस्खे पर अमल करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कैवल्यधाम, योग परंपारा और विज्ञान का संगम

किशोर कुमार

महाराष्ट्र के योगी स्वामी कुवल्यानंद यौगिक क्रियाओं से मिलने वाले परिणामों को विज्ञान की कसौटी पर भी सिद्ध करके भारत के साथ ही पश्चिमी देशों में भी ख्याति अर्जित कर रहे थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को खुद ही कुवल्यानंद जी के योगाश्रम कैवल्यधाम में जाकर उनकी उपलब्धियों का साक्षी बनना चाहते थे। लिहाजा वे महाराष्ट्र के लोनावाला पहुंच गए, जहां कैवल्यधाम आकार ले रहा था। वे स्वामी जी की उपलब्धियों से बेहद खुश हुए। पर तुरंत ही उन पर संशय के बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। दरअसल, उन्हें आश्रम में पता चला कि स्वामी जी को अमेरिका में रहने के न्यौते मिल रहे हैं। नेहरू जी नहीं चाहते थे कि भारत में योग परंपरा और विज्ञान का मिलन कराने वाले स्वामी कुवल्यानंद विदेश की धरती पर रच-बस जाएं। उन्होंने अपने मन के इस बात को न छिपाते हुए तुरंत ही स्वामी जी से आग्रह किया, आपको जो सुविधाएं चाहिए, बस मिलेगी। पर भारत छोड़कर मत जाइएगा। राष्ट्रवादी सोच वाले स्वामी कुवल्यानंद ने नेहरू जी को आश्वस्त किया कि वे अपने वतन को छोड़कर कहीं नहीं जा रहे हैं। हां, भारतीय योग का सुगंध विदेशों तक पहुंचे, वह यह जरूर चाहते हैं।

यह सुखद है कि स्वामी कुवल्यानंद जी का संकल्प फलीभूत हो चुका है। बीसवीं सदी के उस महान योगी ने दैवीय प्रेरणा और गुरू के आदेश पर जिस कैवल्यधाम रूपी योग मंदिर को अपने खून-पसीने से सींचा था, अब वह नित नई ऊंचाइयां छू रहा है। कैवल्यधाम के एक सौ साल पूरे होने पर देश-दुनिया के लोगों ने देखा कि जिस तरह दूध में शहद घुल-मिल जाता है, उसी तरह उस योग मंदिर में योग की परंपरा और विज्ञान का मिलन हो चुका है। दो दिनों पहले ही कैवल्यधाम के सौ साल पूरे होने पर एक तरफ भव्य शताब्दी समारोह का आयोजन करके जश्न तो मनाया गया, तो दूसरी तरफ शताब्दी वर्ष में स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण संबंधी स्वामी जी के सपने को प्रभावी ढंग से साकार करने का संकल्प भी लिया गया।   

योग विश्व समुदाय को दिया गया भारत का अमूल्य उपहार है। 2015 से हर वर्ष विश्व के अधिकांश देशों में योग दिवस मनाया जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने प्रस्ताव में यह स्पष्ट किया था कि योग पद्धति स्वास्थ्य व कल्याण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है और पूरे विश्व समुदाय के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। योग का लाभ बच्चों और हमारी युवा पीढ़ी तक पहुंचाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित योग विद्या को शिक्षण व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। योग व्यक्ति के समग्र विकास का मार्ग है। इसे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक प्रगति का एक प्रभावी साधन माना जाता है। व्यापक शोध और परीक्षण के बाद हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह स्थापित किया कि योग का निरंतर अभ्यास कैवल्य प्राप्त करने में सहायक है। उन्होंने कहा कि 20वीं सदी में स्वामी कुवलयानंद जी जैसे महान व्यक्तित्वों ने योग प्रणाली के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उपयोगिता को प्रचारित किया। स्वामी कुवलयानंद जी विद्यालयों में योग शिक्षा के प्रसार को काफी महत्व देते थे। उम्मीद है कि ‘कैवल्यधाम’ योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित करेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवाओं को समग्र विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाता रहेगा। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, राष्ट्रपति, भारत

स्वामी कुवल्यानंद ने स्कूल शिक्षा प्रणाली में योग के एकीकरण का सपना नौ दशक पहले देखा था। तब उनकी बातें किसी को भी अटपटी लगी रही होगी। पर अब कहना होगा कि उन्होंने अपनी दिव्य-दृष्टि से भांप लिया था कि भविष्य की चुनौतियां क्या होंगी और उनका समाधान किस विधि संभव है। संयोग देखिए कि वह समय भी आ गया जब प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने योग को दुनिया भर में प्रचारित करने के लिए कमर कस ली। उनका ध्यान बरबस ही इस बात की ओर भी गया कि भारत के योगी क्यों कहते रहे हैं कि प्रथमत: स्कूली बच्चों के लिए है और योगमय जीवन की शुरूआत वहां से होनी चाहिए। उन्हें इसका मर्म समझते देर न लगी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में योग को शामिल कर दिया। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि कैवल्यधाम के योगाचर्यों ने अपने गुरू स्वामी कुवल्यानंद के सपने को साकार करने का जो बीड़ा उठाया है, वह समयानुकूल है।     

कैवल्यधाम के शताब्दी वर्ष समारोह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने ठीक ही कहा, योग विश्व समुदाय को भारत का अमूल्य उपहार है। स्वामी कुवलयानंद जी स्कूलों में योग शिक्षा के प्रसार को बहुत महत्व देते थे। आज भी उनका सींचा हुआ पौधा यानी कैवल्यधाम संस्थान और उसके द्वारा संचालित स्कूल कैवल्य विद्या निकेतन व अन्य शिक्षण संस्थान प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं। मुझे विश्वास है कि ‘कैवल्यधाम’ में योग परंपरा और विज्ञान का प्रभावी संगम निरंतर प्रवाहित होता रहेगा और विश्व समुदाय, विशेषकर युवा समग्र विकास के पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे। महामहिम राष्ट्रपति को कैवल्यधाम की ओर से भी आश्वस्त किया गया कि योग परंपरा और विज्ञान का संगम पूर्व की तरह अविरल प्रवाहित होता रहेगा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है, बल्कि हकीकत बन चुकी है। सच है कि कैवल्यधाम परंपरा के अग्रणी योगी ओमप्रकाश तिवारी के नेतृत्व में स्वामी कुवल्यानंद की परंपरा तेजी से विस्तार पा रही है।

स्वामी कुवल्यानंद आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। इस तरह उन्होंने योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं।

यह तो हुई कैवल्यधाम और स्वामी कुवल्यानंद जी की बात। अब समझिए कि बच्चों के लिए योग पर इतनी जोर क्यों है? बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ ही ग्रंथियों में व्यापाक बदलाव होते हैं। अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद दोनों भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। पीनियल और पिट्यूटरी, इन दोनों ग्रंथियों का परस्पर गहन संबंध है। सच कहिए तो पीनियल ग्रंथि पिट्यूटरी ग्रंथि के लिए ताला का काम करती है। ताला खुलते ही पिट्यूटरी अनियंत्रित होती है औऱ बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं।

इसलिए बच्चों की प्रतिभावान बनाने से लेकर चरित्र-निर्माण तक को ध्यान में रखते हुए स्वामी कुवल्यानंद से लेकर विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती तक बच्चों की योग शिक्षा पर खासा जोर देते रहे हैं। भारत ही ऐसा देश है, जहां के संतों ने योग विद्या के रूप में परमात्मा द्वारा प्रदत्त महान उपहार के महत्व को सदैव समझा और उसे अक्षुण बनाए रखने के लिए सदैव काम किया। स्वामी कुवल्यानंद उन्हीं में से एक थे। कैवल्यधाम के रूप में उनकी फुलवारी की खुशबू दूर-दूर तक फैलती रहे, शताब्दी वर्ष में यही कामना है।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत मीराबाई हर युग में, हर काल में प्रासंगिक

किशोर कुमार

संत मीराबाई प्रासंगिक थीं, हैं और रहेंगी भी। अच्छा है कि उनकी 525वीं जयंती बड़े पैमाने पर मनाई जा रही है और उनकी स्मृति में डाक टिकट और सिक्के जारी किए गए हैं। वैसे भी, महान संतों की स्मृति में डाक टिकट जारी करने, सिक्के जारी करने का रिवाज पुराना है और यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। संत मीराबाई के जीवन से केवल कृष्ण-भक्ति के ही संदेश नहीं मिलते, बल्कि मीरा नाम तो बड़प्पन, ज्ञान, भारतीय संस्कृति, साहस, पवित्रता, सेवा, बलिदान और सबसे बढ़कर, समर्पण व भक्ति का एक शक्तिशाली प्रतीक है। ऐसे में आधुनिक युग के युवाओं के चरित्र-निर्माण के लिहाज से वे ज्यादा ही प्रासंगिक हैं। इसलिए उनके आदर्शों को वैज्ञानिक तरीके से और आज के संदर्भ में प्रस्तुत करना होगा।

देश ने बीते 25 नवंबर को साधु थानवरदास लीलाराम वासवानी को उनकी जयंती पर याद किया। वे एक ऐसे भारतीय शिक्षाविद् थे, जिन्होंने शिक्षा में मीरा आंदोलन का शंखनाद किया था। उन्होंने सन् 1932 में सिंध प्रांत में मीरा स्कूल की स्थापना की थी, जो एक मॉडल संस्थान था। वे चाहते थे कि वह स्कूल विश्वविद्यालय का शक्ल ले ले। पर विभाजन की ज्वाला में वह योजना जलकर भस्म हो गई थी। महाराष्ट्र में मीरा आंदोलन शून्य से शुरू करना पड़ा था। अनेक मीरा स्कूल और कॉलेज स्थापित किए गए। इन शिक्षण संस्थानों का असल मकसद औपचारिक शिक्षा नहीं, बल्कि छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था। समय के साथ ही परिस्थितियां बदली हैं। आज आलम यह है कि मीरा के पद की बात हो तो कई छात्रों को फिल्मी गाने की याद आती है – के पग घुँघरू बाँध, मीरा नाची थी और हम नाचे बिन घुँगरू के…। यह बेहद चिंताजनक है। इसलिए मौजूदा समय में इस आंदोलन को आगे बढ़ाना ही साधु वासवानी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। केवल “नो नानवेज डे”, जैसा कि 25 नवंबर को उत्तर प्रदेश में मनाया गया, पर्याप्त नहीं है।  

संत मीराबाई भक्तिकाल की दैवीय शक्ति से परिपूर्ण विलक्षण योगिनी थीं। पर उनकी जीवनी आधुनिक युग के लिए भी प्रेरणा का प्रकाश-पुंज है। जरा सोचिए, आदियोगी शिव की तरह हलक में जहर उतार ले और बाल बांका भी न हो, यह कोई साधारण बात है। ससुराल वालों ने इसके पहले भी कम प्रताड़ित न किया था। उन्हें लगभग वैसी ही यातनाएं दी गईं जितनी प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु दिया करते थे। श्रीकृष्ण ने जैसे प्रह्लाद की रक्षा की वैसे ही मीरा के पक्ष में भी सदैव खड़े रहे। तभी संत मीराबाई के जीवन की कई घटनाएं आम समझ से चमत्कार से कम नहीं जान पड़ती हैं। एक बार राणा ने मीरा के पास टोकरी में एक नाग भेजा और संदेश दिया कि इसमें फूलों की माला है। मीरा स्नान करके पूजा करने बैठ गईं। अपना ध्यान समाप्त करने के बाद, टोकरी खोला तो अंदर श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और फूलों की एक माला थी। राणा ने मीरा को सोने के लिए कीलों का एक बिस्तर भेजा। मीरा ने अपनी पूजा समाप्त की और कीलों के बिस्तर पर सो गईं। लो! कीलों का बिस्तर गुलाब के फूलों के बिस्तर में तब्दील हो गया था।

इस वैज्ञानिक युग में ये शास्त्रसम्मत कथाएं हमें काल्पनिक लग सकती हैं। पर आधुनिक युग में भी कई ऐसे संत हुए, जिनके कारनामें विज्ञान के लिए चुनौती बनी रह गई हैं। बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी ने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। तब बच्चे बड़ों से पूछेंगे कि मीराबाई जहर पी कर भी जिंदा कैसे रह गई थीं? यह सुखद है कि भक्ति विज्ञान और मीराबाई की आध्यात्मिक शक्ति के रहस्यों पर देश-दुनिया में लगातार शोध किए जा रहे हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने पांच दशक पहले जो बातें कही थीं, उसकी झलक अब हम सबको भी मिलती दिख रही है। देश-दुनिया में मीराबाई और उनकी भक्ति की शक्ति की प्रबलता व उसके रहस्य को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन किए जा रहे हैं। सच तो यह है कि संपूर्ण भक्ति विज्ञान पर वैज्ञानिक शोधों की दिशा में बात आगे बढ़ चुकी है। संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। दूसरी तरफ मीराबाई का जीवन से प्रेरणा लेते हुए मौजूदा शिक्षा प्रणाली को समृद्ध बनाने के लिए सुगबुगाहट शुरू है।

इसमें दो मत नहीं कि मीराबाई हमारे देश के सितारों से भरे आध्यात्मिक आकाश में सबसे चमकीले सितारों में से एक हैं। वह ज्ञानी हैं, दार्शनिक हैं औऱ रहस्यवादिनी हैं। उनके पदों में वैसा ज्ञान, दर्शन और रहस्यों का प्रस्फुटन हुआ है, वैसा संत कबीर की रचनाओं को छोड़कर शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। मीराबाई के पूर्व जन्म का संस्कार ही था कि वे बाल्यावस्था से गिरिधर गोपल की भक्त बन गई थीं। और संचित कर्मों के बिना पर उनकी भक्ति की शक्ति थी कि तमाम झंझावातों से निकलकर अमर हो गईं।

उनके पूर्व जन्म की बात कुछ लोगों को कपोल कल्पना लग सकती है। वैसे भारतीय वांग्यमय में पुनर्जन्म के हजारों उदाहरण मिलते हैं। जैसे, शिव-पार्वती व विष्णु अवतारों के साथ ही काक भुशुण्डी जी की कहानी सर्वाधिक प्रचलित है। मीराबाई को भी श्रीकृष्ण की गोपियों में एक और श्रीराधा की सहेली बतलाया गया है। इसे सच न मानने का कोई आधार नहीं है। पर इन विवादों में न भी पड़ा जाए तो उनके जीवन मिलने वाले संदेश मूल्यवान हैं। उनकी 525वीं जयंती पर आयोजित भव्य कार्यक्रमों की सार्थकता तभी है, जब संत मीराबाई की शिक्षाएं आंदोलन का स्वरूप ले ले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सूर्योपासना कर ली, अब बारी सूर्य नमस्कार की

किशोर कुमार

आस्था का महापर्व छठ संपन्न हो गया। इस पर्व की शुरूआत कहां से हुई, कैसे हुई, इस पर बहुत लिखा-कहा जा चुका है। अब बात होनी चाहिए सूर्योपासना के यौगिक आयाम की, जो जीवन को सुखमय बनाने के लिए अमृत समान है। आप समझ गए होंगे। मैं बात करने जा रहा हूं सूर्य नमस्कार योग की, जिसे सूर्योपासना का ही विकसित रूप माना जाता है। भारतीय वांग्मय से हमें ज्ञात हो चुका है कि वैदिक काल से की जा रही सूर्योपासना ही छठ पूजा औऱ आधुनिक हठयोग की शक्तिशाली योगविधि सूर्य नमस्कार का आधार बनी थी। पर इतना जान भर लेना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस पुरानी योग पद्धति के विज्ञान को समझना भी महत्वपूर्ण है। वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर योगियों ने साबित किया कि सूर्य नमस्कार के अभ्यास से मानव प्रकृति का सौर पक्ष जागृत होता है। इससे चेतना के विकास के लिए जीवनदायिनी ऊर्जा मिल जाती है।

मैंने इस पूरे मामले को समझने के लिए देश-विदेश में सूर्य नमस्कार पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों और बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की दुनिया भर में स्वीकार्य पुस्तक “सूर्य नमस्कार” को आधार बनाया है। पहले जानते हैं कि अपने अध्ययनों के बाद वैज्ञानिक सूर्य नमस्कर योग को लेकर किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। कोरोना महामारी के बाद खासतौर से भारत के युवा हृदयाघात के शिकार हो रहे हैं। कई युवा जान गंवा चुके हैं। अमेरिका के सैन जोश स्टेट यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के वैज्ञानिक भावेश सुंरेंद्र मोदी का शोध भी युवाओं पर ही आधारित है। उन्होंने छह एशियाई युवाओं पर शोध किया। यह जानने के लिए कि सूर्य नमस्कार हृदय रोगियों के लिए कितना कारगर है। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से कोर्डियोरेस्पिरेटरी फिटनेस को ठीक रखा जा सकता है।

अपने देश में भी सूर्य नमस्कार को लेकर अध्ययन किए जाते रहते हैं। चेन्नई स्थित सत्यभाषा इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नालॉजी के एल प्रसन्ना वेंकटेश ने अपने एक सहयोगी के साथ शोध किया तो पाया कि सूर्य नमस्कार अंतःस्रावी तंत्र (इंडोक्राइन सिस्टम) को व्यवस्थित रखता है। वरना, जीवन संकट में पड़ जाता है। यही वजह है कि सूर्य नमस्कार के अभ्यासियों को न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति मिल जाती है। वैसे, टी. कृष्णमाचार्य, स्वामी शिवानंद, स्वामी कुवल्यानंद, परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर आदि नामचीन योगियों ने तो साठ के दशक में ही अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि सूर्य नमस्कार शारीरिक अवयवों में नवजीवन का संचार करता है। साथ ही वर्तमान जीवन पद्धति की मांगों व तनावों के बीच हमें क्रियाशील जीवन व्यतीत करने में सहायता प्रदान करता है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इस योग के प्रभावों को थोड़ा विस्तार से समझा। वे कहते थे कि सूर्य नमस्कार मुँहासा, फोड़े-फुंसियां, रक्ताल्पता, कम भूख लगना, दुर्बलता, स्थूलता, कम विकास होना, स्फीत शिरा, गठिया, सिरदर्द, दमा तथा फेफड़े की अन्य विकृतियाँ, पाचन संस्थ की व्याधियाँ, अपच, कब्ज, गुर्दे संबंधी व्याधियाँ, यकृत की क्रियाशील में कमी, निम्न रक्तचाप, मिर्गी, मधुमेह, त्वचा की बीमारियाँ (एक्जिा सोरायसिस, सफेद दाग), सामान्य सर्दी-जुकाम का बचाव, अन्तःस्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म तथा रोगनिवृत्ति संबंधी समस्याएं, मानसिक व्यधियां (जैसे, चिंता, अवसाद, विक्षिप्त, मनोविकृति) इत्यादि बीमारियों से निजात दिलाता है।

हम जानते हैं कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में असंतुलन होना योग के दृष्टिकोण से अस्वस्थ होने का मुख्य कारण होता है। कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् या व्यवस्थाप्रिय हो, यदि उसके ऊर्जा संस्थान सामान्य ढंग से क्रियाशील नहीं हैं तो उसे व्याधिग्रस्त होना ही है। सूर्य नमस्कार योग में इतनी शक्ति है कि उससे शारीरिक व मानसिक ऊर्जाओं में पुनर्संतुलन स्थापित हो जाता है। कोरोना महामारी और वायुमंडल में फैले प्रदूषण के कारण फेफड़े की बीमारी आम हो गई है। हर आयु वर्ग के लोग इस बीमारी से दो चार हो रहे हैं। चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि फेफड़ों की रचना खण्डों या उपखण्डों से हुई है। सामान्य श्वसन में शायद ही कोई सभी उपखण्डों का उपयोग करता हो । सामान्यतया फेफड़ों के केवल निम्न भाग ही उपयोग में आते हैं। ऊपरी हिस्से या तो कार्य करना बन्द कर देते हैं या उनमें उपयोग में लाई हुई वायु, कार्बन डाइ-ऑक्साइड तथा विषैली गैस जमा होती रहती हैं। ऐसा विशेषकर शहरवासियों तथा धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों के फेफड़ों में पाया जाता है। ये विषैले पदार्थ फेफड़ों में वर्षों तक पड़े रह जाते हैं, जिससे श्वसन तथा अन्य शारीरिक संस्थानों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

इसी वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाते हुए स्वामी सत्यानंद सरस्वती बतलाते रहे हैं कि श्वसन संस्थान के लिए यह योग कारगर है। दरअसल, सूर्य नमस्कार में प्रत्येक गति के साथ लयबद्ध गहन श्वसन प्रक्रिया स्वतः होती रहती है। इससे फेफड़ों में भरी हुई दूषित वायु पूर्णतः बाहर निकल जाती है और उनमें ताजी, स्वच्छ तथा ऑक्सीजन-युक्त वायु भर जाती है। विशेषकर ऐसा हस्तउत्तानासन की स्थिति में होता हैं, इसमें वक्ष भित्ति फैल जाती है। पादहस्तासन करते समय जब किंचित् बलपूर्वक श्वास छोड़ी जाती है, (ऐसा खुले मुँह से भी किया जा सकता है), तब यह श्वास शुद्धिकरण की शक्तिशाली विधि बन जाती है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने से फेफड़ों की सभी कोशिकाएँ फैलती हैं, उद्दीप्त होती हैं और स्वच्छ हो जाती हैं। रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। इस कारण शरीर, मस्तिष्क के ऊत्तकों एवं कोशिकाओं की क्षमता तथा ऑक्सीजनीकरण में वृद्धि होती है। सुस्ती से शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है। श्वसन-व्याधियाँ दूर होती हैं तथा वायु मार्ग का अवांछित श्लेष्मा भी समाप्त होता है। यह अभ्यास क्षय की तरह के ऐसे रोगों से बचाव करता है, जो फेफड़ों के कम उपयोग में लाए गये तथा निश्चल भागों में उत्पन्न होते हैं।

स्पष्ट है कि सूर्य नमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। अच्छी बात यह है कि छात्रों को भी यह खूब भाता है। यह तथ्य भी विज्ञानसम्मत है कि यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो सूर्य मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार करने से उसका असर द्विगुणित हो जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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