अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : विषमताओं से मुक्ति का आधार है योग-मार्ग

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं। इस साल इस दिवस का थीम है – ब्रेक द बायस। यानी समाजिक विषमताओं और पूर्वाग्रहों के कुप्रभावों से मुक्त होने का संकल्प। ताकि लैंगिक भेदभाव मिटे और समानता का अधिकार मिल सके। आध्यात्मिक उत्थान की कसौटी भी यही है, जहां नर और नारी के भेद मिट जाते हैं। वैदिक ग्रंथों में कहा भी गया है कि मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न ही उसकी आकांक्षा। बल्कि आत्मा मूल स्वरूप है, जो न नर है, न नारी। लिंग की दृष्टि से आत्मा का निर्धारण हो ही नहीं सकता। वैदिक काल में इस बात की समझ का ही नतीजा है कि वैदिक ग्रंथों में महिला-पुरूषों में व्यापक समानता के उदाहरण भरे पड़े हैं। ऋषिकाओं को ऋषियों से कमतर आंकना मुश्किल जान पड़ता है।

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। स्पष्ट है कि अलग-अलग काल खंडों में योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही।

वैदिककालीन अनेक ऋषिकाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ करती थीं। पुरानी बातों को जाने दीजिए। जगत्गुरू शंकराचार्य और पूर्व मीमांसा दर्शन के बड़े प्रसिद्ध आचार्य मंडन मिश्र की पत्नी भारती के बीच हुए शास्त्रार्थ को ही ले लीजिए। शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र हार गए तो भारती ने जगत्गुरू शंकराचार्य को चुनौती दे दी थी। उन्हें निरूत्तर कर दिया था। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू ने योग की गूढ़ विद्या परकाय प्रवेश विधि से राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश करके उनकी पत्नी से पत्नी से ज्ञान प्राप्त किया था। फिर भारती से शास्त्रार्थ करना संभव हो सका था।

योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

जगत्गुरू शंकराचार्य महिला शक्ति की महत्ता जानते थे। लिहाजा उनके द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग बंद कर दिए गए। आम महिलाओं के शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी योगाभ्यास को लेकर अनेक भ्रांतियां उत्पन्न की गईं। वैसे, बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविवास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। कुछ और संन्यासिनियों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। पर उन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए।  

पर बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां बदलने लगीं। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थी। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक विशेष तौर से महिला योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टी कृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। वरना वह तो पूर्वेतत्तर यूरोपीय देश लातविया मूल की थी और उनका जन्म 1899 में हुआ था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के उत्थान के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। वे समग्र शिक्षा पर काफी जोर देती हैं। यह समय की मांग भी है। लड़कियां औपचारिक शिक्षा ग्रहण करके डिग्रीधारी भर न बनें, बल्कि व्यावसायिक शिक्षा भी ग्रहण करके सबल और सक्षम बनें। जीवन में योग, अध्यात्म और भक्ति का समन्वय जरूरी है। पर ध्यान रहना चाहिए कि मृत्युलोक में हमारी उपस्थिति कर्मयोग यानी निष्काम कर्म के लिए है।

श्रीमद्भगवतगीता से लेकर योगमातिष्ठ तक में कहा गया है कि प्रभु की नित्य विद्यमानता के प्रति निरंतर जागरूक बने रहकर उसके प्रति अपने सब कर्मों को समर्पित कर दो और बिना अहंकार और विषय-वासनामय कामनाओं के यज्ञ भाव से कर्म करो। यही कर्मयोग है। इसके लिए योग का आश्रय लेना होता है। तभी चेतना का विस्तार होता है और जागरूकता अधिकाधिक सूक्ष्म होती है। फिर तो प्रतिकूल परिस्थितियां भी वरदान में बदली जा सकती है। ऋषिकाओं और आधुनिक युग की संन्यासिनियों के जीवन से भी हमें ऐसी ही प्रेरणा मिलती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कर्मयोग का आश्रय लेने का संकल्प लिया जाना चाहिए। यही मार्ग सामाजिक विषमताओं और पूर्वाग्रहों से मुक्ति दिलाएगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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